परमहंस-१३८

काशीपुरस्थित घर में स्थलांतरित होने के बाद भी रामकृष्णजी की बीमारी बढ़ती ही चली गयी। अब उनका शरीर यानी महज़ अस्थिपंजर शेष बचा था। लेकिन उनकी मानसिक स्थिति तो अधिक से अधिक आनंदित होती चली जा रही थी, मानो जैसे बुझने से पहले दीये की ज्योति बड़ी हो जाती है, वैसा ही कुछ हुआ था। अपने शिष्यों के प्रति और कुल मिलाकर दुनिया के ही प्रति अपार करुणा तथा प्रेम उनकी दृष्टि से छलक रहा था। उनकी आनंदित मानसिक स्थिति हालाँकि उनके शिष्यों को भी आनंदित कर देती थी, उनके शिष्यों के उस आनंद में रामकृष्णजी के वियोग की कल्पना के दुख की छटा थी।

उनका स्वास्थ्य ठीक हों इसलिए किसी ने प्रार्थनाएँ कीं, किसी ने अपने अपने आराध्यदेवता से मन्नतें मानी, व्रत-वैकल्य किये। यहाँ तक कि शारदादेवी ने भी एक बार दुख असहनीय होने पर तारकेश्‍वर के मंदिर में जाकर वहाँ की शिवजी की मूर्ति के सामने बैठकर ठान ली थी कि मेरे पति के स्वास्थ्य में सुधार होने के बग़ैर मैं खाना-पानी ग्रहण नहीं करूँगी। एक पूरा दिन ऐसे ही चला गया। दूसरे दिन रात को उन्हें एकदम बिजली कड़कने जैसी आवाज़ आयी और उस पल से उनके मन में यह विरागी एहसास दृढ़ होता गया कि ‘यह क्या तुम इन स्वप्नवत् होनेवाले भौतिक रिश्तों के जाल में ङ्गँस रही हो!’ इस साक्षात्कार के बाद धीरे धीरे उनका मन शान्त होता गया और वे काशीपुर लौट आयीं। आते ही रामकृष्णजी ने उन्हें मुस्कुराते हुए ही पूछा – ‘क्या फिर….क्या कहा भगवान ने?’ शारदादेवी ने जो घटित हुआ था वह बताया। रामकृष्णजी केवल हँस पड़े।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णभारतीय शास्त्रों का अध्ययन किये हुए कोलकाता के तत्कालीन सुविख्यात ज्ञानी विचारक पंडित शशधर ये रामकृष्णजी के काशीपुर स्थित वास्तव्य में उनसे मिलने आते थे। ऐसी ही एक मुलाक़ात के दौरान उन्होंने यह मशवरा दिया कि ‘रामकृष्णजी जैसे योगियों के पास बहुत बड़ी ताकत होती है, ऐसा शास्त्रों में कहा गया ही है। इसलिए यदि रामकृष्णजी ने अपने गले पर ध्यान केंद्रित किया और बीमारी से मुक्त होने का संकल्प किया, तो वे बीमारी से आसानी से मुक्त हो सकते हैं।’

उसपर रामकृष्णजी ने उन्हें खरी खरी सुनायी – ‘यह मशवरा यदि किसी आम भक्त ने दिया होता, तो कोई बात नहीं थी; लेकिन तुम जैसे अध्यात्म का गहरा अध्ययन किये ज्ञानी मनुष्य द्वारा ऐसा मशवरा दिया जाना, इस बात से मुझे ताज्जुब हो रहा है। महत्प्रयासों से देवीमाता के चरणों पर केंद्रित और स्थिर हो चुके मेरे मन को क्या मैं वहाँ से हटाकर इस मामूली मांसहड्डी के पिंजड़े में उलझा दूँ? हरगिज़ नहीं! मैं कदापि ऐसा नहीं करूँगा।’

रामकृष्णजी की आध्यात्मिक ताकत का बार बार यक़ीन हो चुके उनके पुराने शिष्य दरअसल यह जानते थे कि रामकृष्णजी यदि चाहें, तो वे इस बीमारी को आसानी से दूर भगा सकते हैं। लेकिन शिष्यों द्वारा वैसा करने का सुझाव बार बार दिये जाने के बावजूद भी रामकृष्णजी ने वैसा करने से हमेशा इन्कार ही किया, इस कारण शिष्यों का दुख लगातार कबढ़ता ही जा रहा था।

यह दुख यदि बिलकुल ही असहनीय हो जाता, तो वे बीच बीच में रामकृष्णजी के पास ही गिड़गिड़ाते। ‘आप ही इस बीमारी को नष्ट करने के लिए देवीमाता से प्रार्थना करें, आपकी प्रार्थना वह कभी भी नहीं ठुकरायेगी’ ऐसी विनति उनसे करते थे। रामकृष्णजी ने इस विनति को कई बार ठुकराया था। लेकिन एक बार शिष्यों द्वारा बहुत ही मिन्नतें करने पर, ‘देखता हूँ कोशिश करके’ ऐसा उन्होंने शिष्यों से कहा। दूसरे दिन जब शिष्यों ने पूछा कि ‘क्या आपने देवीमाता से प्रार्थना की?’; तब उन्होंने कहा कि ‘हाँ, की। मैंने देवीमाता से इतना कहा कि ‘मुझे निगलने में परेशानी हो रही है, इस कारण मैं खाना नहीं खा सकता। क्या तुम वह परेशानी थोड़ी कम कर दोगी?’ उसपर उन्होंने तुम लोगों की ओर निर्देश किया और कहा कि ‘इन्हें देखो, इन सबके मुख से तो तुम ही खाना खा रहे हो!’ यह सुनने के बाद और कुछ पूछने की मेरी हिम्मत ही नहीं हुई।’

शिष्यों ने जो समझना था, वह वे समझ चुके थे। उसके बाद उन्होंने फिर कभी रामकृष्णजी से ऐसी ज़िद नहीं की। लेकिन दुख होने के बावजूद भी वे सभी अपने अपने कर्तव्यों से दृढ़तापूर्वक जुड़े हुए थे। दरअसल गुरु के वियोग की कल्पना का दुख ही उनकी सेवावृत्ति को अधिक से अधिक प्रेरित करनेवाला साबित हुआ था। खुद को भूलकर, जोरों से, लेकिन एकदूसरे को सँभालते हुए की हुई गुरु की सेवा ने ही उनमें संघभावना दृढ़ होने लगी थी – आगामी रामकृष्णसंप्रदाय की नींव रची जा रही थी। ‘मेरी आख़िरी बीमारी में ‘नज़दीकी कौन और दूर का कौन’ इसकी परीक्षा होगी और उस अग्निपरीक्षा में से पास हुए ही ‘नज़दीकी’ साबित होंगे’ ऐसी जो भविष्यवाणी रामकृष्णजी ने कई साल पहले की थी, वह सच होकर; इस आगामी रामकृष्णसंप्रदाय के अग्रसर सेवक तैयार हो चुके थे।

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