परमहंस-१३७

इस नये काशीपूरस्थित विशाल फार्महाऊस में अब रामकृष्णजी और उनके शिष्यगण धीरे धीरे नये माहौल से परिचित हो रहे थे। यहाँ पहली मंज़िल पर होनेवाले बड़े हॉल में रामकृष्णजी के निवास का प्रबंध किया गया था और वे वहीं पर, आये हुए भक्तों से मिलते थे। उससे सटे एक छोटे कमरे में, उस उस दिन सेवा की बारी होनेवाले उनके शिष्यगण रहते थे। ग्राऊंड फ्लोअर पर तीन कमरे थे, जिनमें से दो शिष्यगणों के लिए और आये हुए भक्तों को बिठाने के लिए इस्तेमाल किये जाते थे; वहीं, तीसरा छोटा कमरा शारदादेवी खाना पकाने के लिए और रहने के लिए इस्तेमाल करती थीं।

यहाँ कुल मिलाकर श्यामापुकुर के घर की तुलना में बड़ी जगह थी और खुली हवा भी अधिक थी। रामकृष्णजी के हॉल से सटकर ही खुला बड़ा टेरेस होकर, वहाँ कभीकभार रामकृष्णजी जा बैठते थे या फिर वॉक करते थे। नीचे विस्तृत बगीचे में वहाँ के सेवकवर्ग के कुछ छोटे घर थे। साथ ही, दो तालाब भी होकर, चलने के लिए रास्तें भी बनाये गये थे।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णऐसे प्रसन्न माहौल का थोड़ाबहुत अच्छा असर रामकृष्णजी की मनोवृत्ति पर हुआ और तबियत को भी थोड़ासा आराम मिल रहा होने के असार दिखायी देने लगे। अब वे नये उत्साह के साथ, आये हुए भक्तों को मार्गदर्शन करने लगे; मानो उन्हें उनका निर्धारित जीवनकार्य जल्द से जल्द, बहुत ही कम समय में पूरा करना था।

आध्यात्मिक दृष्टि से यह कालखंड उनके शिष्यगणों के लिए सर्वोच्च आनंदमयी साबित हुआ। इस कालखंड में रामकृष्णजी ने अपने शिष्यगणों को भरभरकर ज्ञान दिया, भावसमाधिअवस्था में होते समय उन्होंने कइयों को उनके (उस उस शिष्य के) जीवनरहस्य तथा जीवनकार्य समझाकर बताये और अगले कार्य के लिए उचित मार्गदर्शन किया।

साथ ही, उनके आख़िरी कालखंड के बारे में उन्होंने पहले कभी, समय समय पर जो भविष्यवाणियाँ कीं थीं, उनमें से सभी सच हुईं उनके शिष्यों को दिखायी दीं। ‘जाने से पहले मैं यह सारा आध्यात्मिक ज्ञान लोगों को बाँटकर जाऊँगा’; ‘जब अधिक से अधिक लोग इस देह (रामकृष्णजी) के बारे में और उसकी महानता के बारे में आपस में चर्चा करने लगेंगे, तभी देवीमाता इस देह को पुनः अपने पास बुला लेगी’; ‘मेरा आख़िरी कालखंड यह, शिष्यों में से कौन क़रिबी है और कौन नहीं, यह सुनिश्‍चित रूप में दिखा देगा’ ऐसीं जो कई भविष्यवाणियाँ उन्होंने स्वयं के बारे में समय समय पर बात करते हुए पिछले कई वर्षों में की थीं, वे सारी सच हुईं उनके शिष्यों ने देखीं।

इतना ही नहीं, बल्कि जिस जिस शिष्य के बारे में उन्होंने बहुत पहले – ‘यह आगे चलकर संन्यासी बनेगा’ ऐसा बताया था, उनमें छिपी संन्यस्त वृत्ति को इसी कालखंड में बढ़ावा मिला और वे और उतने ही जन आगे चलकर संन्यासी बने।

इस ‘आख़िरी कालखंड का’ शायद एहसास हुआ होने के कारण ही, यहाँ अब उनके दक्षिणेश्‍वरस्थित नित्य शिष्यगणों में से अधिकांश लोग उन्हें हररोज़ आकर मिलने लगे थे। एकदम क़रिबी शिष्य तो वहीं पर वास्तव्य कर रहे थे और बारी बारी से उनकी सेवा करते थे। उनके गृहस्थाश्रमी शिष्य भी उन्हें प्रतिदिन आकर मिलते थे।

कभी कभी रामकृष्णजी बिलकुल सांसारिक लोगों की तरह बात करते थे। बीच में ही कभी किसी के पास, फलाना फलाना चीज़ कहाँ मिलेगी और किस दाम में मिलेगी, यह पूछते। उसकी क़ीमत सुनकर, ‘बापरे, इतनी महँगी! फिर रहने दो’ ऐसा कहते थे। तो कभी छोटे बच्चे की तरह अपनी तबियत के बारे में – ‘मैं कब ठीक हो जाऊँगा?’ ऐसा सवाल मासूमियत से पूछते थे। बीच में ही कभी किसी शिष्य को – ‘मुझे इतने सारे दृष्टान्त हुए, इतनी बार मैं भावसमाधि को प्राप्त हुआ, फिर भी मैं बीमार क्यों हूँ?’ ऐसा पूछते थे। एक बार इस प्रश्‍न को उनके एक नज़दीकी अनुभवी शिष्य ने उन्हें रास आयें ऐसा उत्तर देने की कोशिश की – ‘आपकी यह बीमारी यह महज़ बीमारी न होकर, शायद वह आपकी मनोभूमिका में जो बड़ा बदलाव हो रहा है, उसका निर्देशक है। शायद आपका मन अब धीरे धीरे उन ईश्‍वर के मूल रूप की ओर – निर्गुण निराकार परब्रह्म की ओर आपको खींच रहा है।’

रामकृष्णजी मुस्कुराये और उन्होंने कहा, ‘सच है, लेकिन और एक बात है। इस देह के माध्यम से देवीमाता जो कुछ दुनिया को देना चाहती थी, वह सब देकर हो चुका है। मुझे अब सभी ओर और सबमें, राम ही दिखायी दे रहा है। फिर मैं सिखाऊँगा किसे?’

ऐसे कई संभाषणों में काशीपूर में दिन आगे बढ़ रहे थे।

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