परमहंस-११९

रामकृष्णजी की शिष्यों को सीख

‘जैसे जैसे श्रद्धावान भक्तिमार्ग प्रगति करता जाता है, वैसे वैसे – ‘ईश्‍वर श्रद्धावान के नज़दीक ही होते हैं और वह भी सक्रिय रूप में’ यह एहसास उस श्रद्धावान के दिल में जागृत होता रहें ऐसे अधिक से अधिक संकेत उसे प्राप्त होते रहते हैं। उसके जीवन में ईश्‍वर की विभिन्न लीलाएँ घटित हो रही हैं ऐसा वह महसूस करता है और फिर उसका ईश्‍वर के प्रति प्रेम बढ़ने लगता है।

ये लीलाएँ यानी महज़ – ‘विभिन्न प्रकार के संकटों में ईश्‍वर को गुहार लगायी कि ‘कहाँ से तो’ ‘ना जाने किस प्र्रकार सहायता प्राप्त होती रहती है’ इतनी ही बात नहीं हैं; बल्कि उस श्रद्धावान में विवेक, वैराग्य, तारतम्यभाव, नामस्मरण की इच्छा, असत्यवचन की ओर तथा असत्यवर्तन की ओर रूझान कम हो जाना, साथ ही, अन्य श्रद्धावानों के प्रति अनुकंपा, अन्य श्रद्धावानों की मदद करने की भावना, केवल श्रद्धावानों की ही संगत में रहने की इच्छाइन बातों की वृद्धि होती है, यह भी दरअसल उस परमात्मा की ही लीला है। किसी श्रद्धावान की भक्तिमार्ग पर की मार्गक्रमणा उचित दिशा में हो रही है या नहीं, यह इन संकेतों में से समझ में आ सकता है।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णयह प्रगति यानी उस श्रद्धावान का मन धीरे धीरे स्वच्छ होता जाने का और उस कारण उसके लिए ईश्‍वरप्राप्ति की घड़ी नज़दीक आ रही होने का ही लक्षण है। जिस तरह, किसी कंपनी के कर्मचारी के घर यदि उस कंपनी का सर्वोच्च अधिकारी पधारेगा ऐसा तय हुआ, तो वह फिर जिस आर्तता के साथ अपने वरिष्ठ के स्वागत की तैयारी करेगा – उदा. प्रथम आंगन में जमा रान साफ़ करेगा, घर तक आनेवाले मार्ग में होनेवाले काँटेकंकड़, कचरा साफ़ करेगा, फिर घर के सारे कमरों की, ख़ासकर दीवानखाने की स्वच्छता करेगा, प्रसाधनगृह को साफसुथरा रखेगा, जितना बन सकेगा उतने घर के परदे आदि बातें बदलकर घर को नया, आकर्षक रूप देने की कोशिश करेगा – वैसा ही यह है। ईश्‍वर हालाँकि सर्वत्र ही है, मग़र फिर भी जिसके मन में बुरी बातें भरी हैं और उन्हें त्यागने के लिए वह तैयार नहीं है, ऐसे व्यक्ति के मन में वह परमात्मा केवल साक्षीभाव से ही रहेगा, वह सक्रिय रूप में नहीं रह सकता। उसे सक्रिय बनाने के लिए पहले मन को साफ़सुथरा करना होगा, शुरू शुरू में ज़बरन् ही सही, लेकिन बुरी बातों को त्यागने के प्रयास करने ही होंगे। ईश्‍वर तुम्हारे दिखावे में नहीं आते, बल्कि तुम्हारे मन की स्वच्छता कितनी है यह देखते हैं।’

यह मुद्दा उपस्थितों के मन पर अंकित करने के लिए रामकृष्णजी ने एक कथा सुनायी-

‘एक बार दो दोस्त रास्ते से जा रहे थे। एक जगह कुछ लोग इकट्ठा हुए थे और पवित्र ग्रंथ का पाठ शुरू था। एक दोस्त ने कहा, ‘चल, हम भी इस पवित्र पठन को सुनते हैं।’ ऐसा कहकर वह उन लोगों में जा बैठा। दूसरे दोस्त को वह कुछ ख़ास पसन्द नहीं आया। इसलिए वह नापसन्दगी दर्शाकर आगे चलने लगा और वह जहाँ हमेशा जाता था ऐसे, बुरी बातों के लिए विख्यात होनेवाले एक स्थान में गया और वहाँ के मनोरंजन में मश्गूल हुआ। लेकिन थोड़ी ही देर में उसे पछतावा हुआ कि ‘मेरा दोस्त वहाँ वह पवित्र पठन सुनते बैठा है और मैं यह क्या पाप कर रहा हूँ। शर्म आनी चाहिए मुझे!’ ऐसा सोचकर वह तुरन्त ही वहाँ से बाहर निकलकर उस पठन के स्थान की ओर जाने निकला।

यहाँ पर थोड़ी देर पहले वह पठन सुनने आये पहले दोस्त के मन में भी कुछ समय बाद उल्टेसीधे खयाल आने लगे – ‘कैसा मूर्ख हूँ मैं! मेरा दोस्त वहाँ अच्छीख़ासी रंगरलियाँ मना रहा है और मैं क्या यह बकबक सुन रहा हूँ!’ ऐसा सोचकर वह भी वहाँ से बाहर निकला और जहाँ उसका दोस्त गया था, उस स्थान की ओर निकल पड़ा।

कुछ साल बाद जब उन दोनों की मृत्यु हुई, तब उनके कर्मों का फ़ैसला हुआ। मज़े की बात यह थी कि पहले पठन में सम्मिलित होने गया दोस्त नर्कवास को प्राप्त हुआ और पहले बुरी बातें करने गया हुआ, लेकिन बाद में पछतावा हुआ दोस्त स्वर्गवास को प्राप्त हुआ।’

यह कथा सुनाकर रामकृष्णजी ने स्पष्टीकरण दिया कि ‘पहला दोस्त पठन के लिए गया और दूसरा दोस्त बुरी बातें करने गया, ये उनकी बाह्यकृतियाँ थीं। लेकिन ईश्‍वर किसी की महज़ बाह्यकृतियों के आधार पर उनका लेखाजोखा नहीं करते, बल्कि वे इन्सान का मन भी देखते हैं। पठन के लिए गये पहले दोस्त को अपने दोस्त की, इस तरह रंगरलियाँ मनाने की बात अधिक आकर्षित कर गयी, अर्थात् उसका मन पठन में लगा ही नहीं था, वह अन्यत्र भटक रहा था। ऐसी बात का भला क्या फ़ायदा? वहीं, दूसरे दोस्त ने शुरू में बुरा मार्ग चुना निश्‍चित्, जो कि ग़लत ही है; लेकिन जब उसे अपनी ग़लती का एहसास हुआ, तब उसे पछतावा हुआ और उस ग़लती को सुधारने के लिए उसने तुरन्त ही प्रामाणिकता से प्रयास शुरू किये। ‘इस तरह श्रद्धावान को अपनी ग़लतियों का एहसास हो जाने के बाद उसे वे ग़लतियाँ मान्य होना और उन्हें सुधारने के लिए उसके द्वारा प्रामाणिकता से प्रयास किया जाना’ यह बात ईश्‍वर को भाती है और ईश्‍वर फिर उस श्रद्धावान के साथ दृढ़तापूर्वक और सक्रिय रूप में खड़े रहते हैं।’

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