परमहंस-१०७

रामकृष्णजी की शिष्यों को सीख

जब एक भक्त ने ऐसा सवाल पूछा कि ‘सभी में ईश्‍वर हैं, फिर यदि कोई मनुष्य किसी भक्तिमार्ग चलनेवाले श्रद्धावान के साथ बुरा बर्ताव कर रहा है, तो फिर वह श्रद्धावान क्या करें’; तब, श्रद्धावानों को इस व्यवहारिक दुनिया में जीते समय, दुनिया के बुरे लोगों से खुद की रक्षा करते समय तारतम्यभाव कैसे अपनाना चाहिए, इस बात को समजाकर बताते समय रामकृष्णजी ने एक साँप की कथा बतायी –

‘एक जंगल में हमेशा कुछ चरवाहा बच्चें अपने मवेशियों को चराने ले आते थे। लेकिन उस जंगल के एक भाग में एक बड़ा ज़हरीला साँप रहता था और उसके द्वारा काटे जाने से कई लोगों की मृत्यु भी हुई थी। अतः जंगल के उस भाग में जानें की किसी की हिम्मत नहीं होती थी। एक दिन एक तपस्वी उस भाग से गुज़र रहा था, तब उन चरवाहा बच्चों ने उसे साँप के बारे में बताकर आगाह कर दिया। लेकिन उस तपस्वी ने – ‘मैं कुछ मन्त्र वगैरा जानता हूँ, इस कारण वह साँप मेरा बाल तक बाँका नहीं कर सकता। वह चुपचाप मेरे कदमों में आकर गिर जायेगा’ ऐसा उन चरवाहों से कहा और उसने उस – साँप होनेवाले जंगल के भाग में प्रवेश किया। अपितु इसपर चरवाहों को यक़ीन न हुआ होने के कारण वे उसके साथ वहाँ पर नहीं गये।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णवह तपस्वी वहाँ एक जगह पर अपनी उपासना करते बैठ गया। थोड़ी ही देर में वह साँप फुफकारते हुए वहाँ आया और उस तपस्वी की ओर आगे बढ़ने लगा। लेकिन उसके तपस्वी के नज़दीक आने पर उस तपस्वी ने कुछ मन्त्रों का उच्चारण किया, तभी वह साँप चुपचाप उसके कदमों में पड़ा रहा। तब उस तपस्वी ने उस साँप को एक गुरुमंत्र सिखाया और उसका जाप करने की शक्ति उस साँप को प्रदान कर, उस मन्त्र का नित्यजाप करने के लिए उसे कहा। साथ ही, वह कभी भी किसी को भी चोट न पहुँचायें, ऐसा भी उस साँप को उसने अनुरोधपूर्वक कहा। ‘यह करने पर, तुम्हें जिसने निर्माण किया उन ईश्‍वर से तुम्हारा परिचय होगा’ ऐसा उसे बताया। मुख्य बात – ‘मैं लौटकर आऊँगा, तब तुमसे मिलूँगा’ ऐसा भी उसे आश्‍वस्त किया और वह तपस्वी आगे अपने रास्ते पर चल दिया।

यहाँ पर इस साँप ने उस मन्त्र का नित्यजाप करने की शुरुआत की। मुख्य बात यानी वह अब किसपर भी धावा नहीं बोल रहा था, किसी को डराता नहीं था; इतना ही नहीं, बल्कि यदि कोई मनुष्य उसके संपर्क में आयें, तो भी वह उसे काटता नहीं था। ‘वह ज़हरीला साँप अब काटता नहीं है’ यह ख़बर धीरे धीरे आसपास के इलाके में फैल गयी। उन चरवाहा बच्चों की हिम्मत बढ़ गयी और वे अब उस साँप को बेवजह ही पत्थर वगैरा मारने लगे। लेकिन फिर भी वह साँप उन्हें काटता नहीं था। फिर एक दिन उनमें से एक बच्चे ने अधिक ही हिम्मत जुटाकर उस साँप की पूँछ को हाथ में पकड़ा और गोल गोल घुमाकर उसका सिर ज़मीन पर, पत्थरों पर पटक दिया और फिर उस साँप को दूर कहीं ङ्गेंक दिया। पटकने से ज़़ख्म हो जाने के कारण उस साँप के मुँह से अब खून बहने लगा। ज़़ख्मों में से काफ़ी खून बहने के कारण थोड़ी ही देर में वह बेहोश हो गया। वह मर गया है, यह सोचकर वे चरवाहे उसे वहीं छोड़कर चले गये।

बहुत समय बाद उस साँप को होश आया। उसके बदन की हड्डियाँ काफ़ी दर्द कर रहीं थीं। उसे असहनीय वेदनाएँ हो रहीं थीं। लेकिन उस अवस्था में भी वह उस तपस्वी द्वारा दिये गये मन्त्र का जाप कर रहा था। जैसे तैसे वह अपने बिले तक पहुँच गया। अब वह साँप अपना खाना खुद कमाने की स्थिति में भी नहीं था। कुछ दिन बाद हालाँकि ज़़ख्म तो भर गये, लेकिन अब प्राणभय के कारण वह दिन में बिले से बाहर ही नहीं निकलता था। उसका बिला जिस पेड़ के नज़दीक था, उस पेड़ पर से गिरनेवाले फल, यही उसका आहार बन गया। लेकिन उस कारण वह धीरे धीरे दुबला-पतला बनता चला गया।

ऐसे कई दिन बीत गये। एक दिन उस तपस्वी का पुनः उस जंगल में आगमन हुआ। उसने उन चरवाहों को उस साँप के बारे में पूछा, तो उन्होंने वह साँप मर गया होने की ख़बर उस तपस्वी को दी। मुझसे मिले बिना साँप मरेगा नहीं, यह तपस्वी जानता था। उस साँप के बिले के नज़दीक थोड़ी देर प्रतीक्षा करते हुए रुक गया। थोड़ी ही देर में वह साँप अपने खाने की तलाश में जैसेतैसे रेंगते हुए आया। उसकी यह हालत देखकर तपस्वी को बहुत बुरा लगा। लेकिन उस अवस्था का कारण जानते ही वह उस साँप पर बहुत गुस्सा हुआ। ‘लेकिन आप ही ने तो मुझे बताया था कि किसी को भी चोट न पहुँचायें’ ऐसा उस साँप ने उसे कहा। उसपर – ‘अरे, मैंने ‘चोट नहीं पहुँचाना’ ऐसा कहा था, लेकिन स्वसुरक्षा के लिए फुफकारने पर तो पाबंदी नहीं लगायी थी’ ऐसी उस तपस्वी ने उस साँप को डाँट पिलायी।’

इतनी कथा कहकर रामकृष्णजी ने इकट्ठा हुए शिष्यों को यह बोध किया कि ‘सभी भूतमात्र में ईश्‍वर को देखें, ऐसी सीख हालाँकि श्रद्धावानों को दी जाती है, मग़र दुष्ट दुराचारियों से अपनी रक्षा करने जितना तीखापन तो श्रद्धावानों में होना ही चाहिए। लेकिन ऐसा तीखापन केवल उस समय तक ही रहना चाहिए, अन्यथा नहीं। श्रद्धावान स्वयं होकर दूसरों को पीड़ा कभी भी न पहुँचायें।’

Leave a Reply

Your email address will not be published.