परमहंस-१०६

रामकृष्णजी की शिष्यों को सीख :

‘जिस तरह कोई सांसारिक मनुष्य धनसंपत्ति से, कोई पतिव्रता पत्नी अपने पति से, कोई माता अपनी संतान से प्रेम करती है, वह प्रेम ईश्‍वर से करना सिखो। दरअसल इन तीनों आकर्षणों का (लालच-मोह, प्रेम और वत्सलता) रूख़ एकत्रित रूप में उसी आर्तता के साथ ईश्‍वर की दिशा में मोड़ना चाहिए; फिर इस एक ही जन्म में ईश्‍वर की प्राप्ति होने की संभावना बढ़ेगी।’

‘जिसे सचमुच ईश्‍वरप्राप्ति की लगन लगी है, उसने फिर इस मामले में – ‘दुनिया क्या कहेगी’ इसकी परवाह नहीं करनी चाहिए। दुनिया में सभी ओर से बोलनेवाले लोग होते हैं। भक्तिमार्ग पर चलने का फ़ायदा, यह केवल भक्तिमार्ग पर प्रामाणिकता से और निग्रह के साथ चलनेवाले श्रद्धावान की समझ में आता है। लेकिन यह फ़ायदा दुनिया की करन्सी (रुपये-पैसों में) गिना जा सकनेवाला न होने के कारण, दुनिया को यह सबकुछ विपरित प्रतीत होता है और फिर दुनिया कई बार श्रद्धावानों का मज़ाक ही उड़ाती है, श्रद्धावानों को इस मार्ग पर चलने से रोकने की कोशिशें करती रहती है। लेकिन जिस तरह हाथी अपने मार्ग पर चलते हुए आसपास के छोटे-छोटे प्राणियों की परवाह नहीं करता, वह अपना मार्ग चलता रहता है; उसी तरह श्रद्धावान भी दुनिया के बर्ताव से, बिन-माँगी सलाह से विचलित न होते हुए भक्तिमार्ग को न छोड़ें।’

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णयह हालाँकि सच है कि ईश्‍वर सभी चीज़ों में हैं, श्रद्धावान इस मामले में तारतम्यभाव बरतें, यह तत्त्व समझाकर बताते समय रामकृष्णजी ने एक कथा सुनायी –

एक बार एक गुरुजी ने – ‘ईश्‍वर सभी चर-अचर बातों में अर्थात् सभी प्राणिमात्र-वस्तुमात्रों में भरे हैं’ यह तत्त्व अपने शिष्यों को समझाकर बताया। उसके बाद उन गुरुजी का एक शिष्य जंगल में यज्ञ की समिधाओं के लिए लकड़ियाँ लाने गया था। थोड़े ही समय में वहाँ अचानक भागदौड़ शुरू हुई। लोग दौड़ते चिल्लाते आ रहे थे कि ‘एक हाथी उन्मत्त होकर दौड़ता चला आ रहा है, अतः दूर भाग जाओ।’ लेकिन इस शिष्य को तो सुबह ही यह पक्का मालूम हो चुका था कि सारे चराचर में वे ईश्‍वर ही भरे हैं। इसलिए – ‘यह उन्मत्त होकर दौड़ा चला आनेवाला हाथी नहीं, बल्कि ‘हाथी-ईश्‍वर’ है, उसे प्रणाम करते हैं’ यह सोचते हुए वह भाग न जाते हुए, हाथी के मार्ग में, उसे प्रणाम करते हुए अपनी जगह पर ही खड़ा रहा। हाथी पास आते समय उसका महावत भी उसे चिल्ला-चिल्लाकर आगाह कर रहा था, दूर जाने के लिए कह रहा था। लेकिन यह अपनी जगह से अंशमात्र भी नहीं हिला। अंजाम, जो होना था वही हुआ; हाथी ने सीधे उसे अपनी सूँड़ में पकड़कर दूर फेंक दिया। इसके सारे बदन पर ज़़ख्म हो गये और सिर पर चोट खाकर वह बेहोश हो गया।

यह सारा वाक़या सुनते ही उसके गुरुजी फ़ौरन अपने अन्य शिष्यों के साथ वहाँ आये और उसे अपनी कुटि में ले जाकर उसका ईलाज़ किया। थोड़ी देर में वह होश में आ जाने के बाद किसी ने उसे पूछा, ‘अरे, हाथी इतना उन्मत्त होकर दौड़ा चला आ रहा था, फिर तुम वहाँ से दूर भाग क्यों हीं गये?’ उसपर उसने जवाब दिया कि ‘सुबह ही तो गुरुजी ने बताया था कि सारीं चर-अचर बातों में ईश्‍वर भले हैं। अर्थात् उस हाथी में भी वे होंगे ही। इसलिए उस हाथी-ईश्‍वर को प्रणाम करते हुए मैं रुका था।’ उसपर सभी हँस पड़े, लेकिन गुरुजी ने उसे शांतिपूर्वक समझाया कि ‘अरे, फिर उस हाथी का महावत तो तुम्हें बाजू हटने के लिए कह रहा था ना? उस महावत में भी ईश्‍वर हैं ही। फिर तुमने उस महावत-ईश्‍वर की क्यों नहीं सुनी?’

यह कथा बताकर रामकृष्णजी ने, श्रद्धावानों को जो ‘तारतम्यबुद्धि’ बरतनी चाहिए, उसके बारे में अधिक विवेचन किया –

‘जिस प्रकार सारा पानी यह ‘पानी’ ही है, मग़र फिर भी उसके उपयोग को लेकर हम फ़र्क़ करते ही हैं ना। शुद्ध पानी पीने के लिए उपयोग में लाते हैं, तो उतना शुद्ध न होनेवाला पानी नहाने के लिए, कपड़े धोने के लिए या फिर मलमूत्रविसर्जन के लिए उपयोग में लाते हैं। क्यों? वैसे देखा जाये, तो सारे पानी में भी ईश्‍वर का वास है? ही। इतना ही नहीं, बल्कि अपने शास्त्रों नें पानी को ‘जीवन’ ही कहा है। लेकिन वहाँ हम – ‘अशुद्ध पानी पिया, तो बीमार पड़ जायेंगे’ इस विचार से यह तारतम्यभाव करते ही हैं। वैसे ही यहाँ भी करना चाहिए। ईश्‍वर हालाँकि सभी मनुष्यों में हैं, लेकिन उन्होंने ही मानव को बहाल की कर्मस्वतन्त्रता का उचित या अनुचित इस्तेमाल करके कुछ लोग ‘नेक इन्सान’ बन जाते हैं, तो कुछ बुरे। ऐसे समय श्रद्धावान को चाहिए कि वह तारतम्य बरतकर, केवल अच्छे मार्ग पर चलनेवाले इन्सानों के साथ ही रहने के प्रयास करें, बुरी वृत्ति के लोगों से जितना हो सके इतना दूर ही रहें।’

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