नेताजी-१९३

८ फ़रवरी १९४३ को कील बन्दरगाह से जर्मन पनडुबी द्वारा शुरू हुआ सुभाषबाबू का जलप्रवास, २३ अप्रैल को मादागास्कर के नजिक जर्मन पनडुबी में से जापानी पनडुबी में स्थानांतरित होने के बाद कुछ ही दिनों में, यानी ६ मई १९४३ को साबांग बन्दरगाह पर समाप्त हो गया। साबांग बन्दरगाह पर, बर्लिन स्थित जापानी सेना के पूर्व मिलिटरी अटॅची कर्नल यामामोटो ने सुभाषबाबू का स्वागत किया। उन्हें वहाँ देखकर सुभाषबाबू को सुखद धक्का लगा। सुभाषबाबू की पनडुबी स़फ़र योजना को जब, जर्मन एवं जापानी सरकारों की तथा सेनाओं की सहायता से अन्तिम रूप दिया जा रहा था, उस कालावधि में यामामोटो बर्लिन में ही होने के कारण सुभाषबाबू का उनके साथ अच्छाख़ासा दोस्ताना हो चुका था। बीच के समय में उनका तबादला होकर वे मेजर फ़ुरुकावा के स्थान पर यानी; जगह जगह शरण आ चुकी ब्रिटीश सेना में रहनेवाले भारतीय सैनिक़ों को एक छत्रछाया के तले लाने का काम करनेवाले, जापानी सेना के ‘हिकारी किकान’ संगठन के प्रमुख के तौर पर काम सँभाल रहे थे।

सुभाषबाबू द्वारा इतने दिनों का दुर्गम जलप्रवास किया जाने के कारण, वे अब थोड़ा सा विश्राम करके ही टोकियो रवाना हों, ऐसा सुझाव यामामोटो ने उन्हें दिया। लेकिन वह सुझाव सुभाषबाबू को रास नहीं आया और ‘यदि आप कहें, तो अभी के अभी चलने के लिए भी मैं तैयार हूँ’ ऐसा उन्होंने यामामोटो से कहा। यामामोटो ने मुस्कुराकर बात को टाल दिया। यामामोटो द्वारा उन्हें विश्राम करने का सुझाव देने के पीछे एक अन्य कारण भी था। दरअसल सुभाषबाबू पिछले वर्ष ही यहाँ पर आ जाते, तो बात अलग होती; लेकिन पिछले वर्ष की युद्धस्थिति अब नहीं रही थी। पिछले वर्ष के अन्त में जापान के विश्वयुद्धप्रवेश के बाद, शुरू शुरू में उन्हें नेत्रदीपक सङ्गलता ज़रूर मिली थी; लेकिन बीच के समय में युद्ध का पलड़ा पलटकर शत्रुपक्ष की ओर झुका था और उन्हें कई स्थानों पर दुश्मन से मात खानी पड़ रही थी, कई बन्दरगाह, कई आर्मी पोस्ट्स पर उन्हें पानी छोड़ना पड़ रहा था। ऐसे समय, उन स्थानों में फ़ँसे जापानी सैनिकों को पुनः टोकियो ले आने का अतिरिक्त कार्यभार भी जापानी हवाईदल को ही उठाना पड़ रहा था। अत एव हवाई जहाज़ तुरन्त उपलब्ध होने की कोई गुंजाईश नहीं थी।

वह आख़िर १० मई को उपलब्ध हुआ। लेकिन यह हवाई जहाज़ छोटा होने के कारण वह लंबी उड़ानें नहीं भर सकता था। इन्धन भरने के लिए उसे पाँच बार रुकना पड़ा। इसीलिए पेनांग, सायगाव, मनिला, तायपेई और हामामात्सु इन पड़ावों पर रुकते हुए वह हवाई जहाज़ १६ मई को टोकियो पहुँचा।

टोकियो के शानदार इंपिरियल होटल में उनके ठहरने का इन्तज़ाम कर दिया गया था। जापानी सम्राट का पॅलेस, प्रधानमन्त्री टोजो का ऑफ़िस, फ़ौजी दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रहनेवाले मुख्यालय इस तरह के अतिमहत्त्वपूर्ण सत्ताकेन्द्र जहाँ एकत्रित रूप में मौजूद थे, ऐसे जापान के सबसे अहम एरिया में ही यह होटल बसा था। बर्लिन की तरह ही यहाँ पर भी सुभाषबाबू के लिए स्टाफ़ का इन्तज़ाम कर दिया गया था। लेकिन टोकियो में उनके स्थिरस्थावर होने के ८-१० दिन बाद भी, होटल से का़फ़ी नज़दीक ही ऑफ़ीस रहनेवाले प्रधानमन्त्री टोजो से मुलाक़ात होने के आसार नज़र नहीं आ रहे थे, अतः उन्होंने ग़ुस्से से यामामोटो से इस बारे में पूछा।

दरअसल यामामोटो असली वजह जानते थे, लेकिन वह सुभाषबाबू को बताकर उनके गुस्से को न्योता देने की अपेक्षा उन्होंने ‘प्रधानमन्त्री टोजो काम में का़फ़ी व्यस्त हैं’ ऐसे ‘फ़ॉर्मल’ जवाब देना ही मुनासिब समझा। एशिया में जापान को और युरोप में जर्मनी एवं इटली को युद्ध में झेलनी पड़ रही हार के कारण जापान की चिन्ताएँ बढ़ती ही जा रही थीं और टोजो उस मोरचे पर व्यस्त थे, यह कारण भी सच था।

लेकिन दूसरा, उतना ही महत्त्वपूर्ण कारण यह था कि पीछले साल हुए ‘मोहनसिंग’ वाक़ये के बाद ‘इंडियन नॅशनल आर्मी’ के प्रति और कुल मिलाकर भारतीयों के ही – ‘एक संघ’ के रूप में क़ाम करने की क्षमता के प्रति प्रधानमन्त्री टोजो के मन में प्रश्नचिन्ह खड़ा हुआ था और इस अनुशासन का अभाव रहनेवाली और बिलकुल भी दूरदृष्टि न होनेवाले अ़फ़सर भरपूर मात्रा में रहनेवाली आर्मी का गठन करके हम कोई भूल तो नहीं कर रहे हैं, यह सवाल आजकल उनके मन में उठने लगा था। उसीमें, दक्षिण एशियाई देशों में रहनेवाले प्रमुख भारतीयों ने एकत्रित होकर जो ‘इंडियन इंडिपेन्डन्स लीग’ स्थापन की थी, उसने उन्हें एक ६०-पॉईंट का आवेदनपत्र प्रस्तुत किया था; जिसमें उन्होंने की हुई माँगें, युद्ध के मौजुदा हालात को मद्देनज़र रखते हुए, टोजो को अवास्तविक प्रतीत हो रही थीं। हालाँकि वह आवेदनपत्र था, लेकिन उसका सूर कुछ इस तरह का था कि वह आज्ञापत्र ही प्रतीत हो। इस बात पर भी टोजो नाराज़ थे। फ़िलहाल तो, जापान की युद्ध में हो रही हार पर जल्द ही कोई मसला ढूँढ़ निकालना यही उनकी प्राथमिकता थी।

लेकिन यह सब सुभाषबाबू को न बताते हुए, फ़िलहाल टोजो बहुत ही व्यस्त होने के कारण सुभाषबाबू के लिए वक़्त निकालना उनके लिए मुश्किल साबित हो रहा है, यही कारण यामामोटो ने सुभाषबाबू को बताया और थोड़ासा सब्र रखने की उनसे दऱख्वास्त की। लेकिन सुभाषबाबू नाराज़ हैं, यह बात भी उन्होंने विदेश मन्त्रालय के ज़रिये टोजो तक पहुँचायी ज़रूर।

हालाँकि टोजो से मुलाक़ात नहीं हो पा रही थी, मग़र फ़िर भी देश से बाहर रहकर पूर्वी एशिया से भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम का काम शुरू रखनेवाले भारतीय क्रान्तिकारियों के अग्रणी राशबिहारीजी स्वयं ही उनसे मिलने आ गये। सुभाषबाबू से प्रत्यक्ष रूप में मिलने पर वे बहुत ही सद्गदित हुए और इस जंग की बाग़ड़ोर उनके हाथ से अपने हाथ में लेने की उनसे दऱख्वास्त की। तब सुभाषबाबू ने, टोजो मुलाक़ात के लिए वक़्त नहीं दे रहे हैं, इसके प्रति अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की। तब जाकर सुभाषबाबू को उनसे इस पूरी रामकहानी का पता चला और साथ ही टोजो की नाराज़गी का कारण भी उनकी समझ में आ गया। इसके अलावा राशबाबू ने, जापानी राजनीतिक विश्व के पेचींदा समीकरण, टोजो का स्वभाव एवं कार्यपद्धति इनसे भी सुभाषबाबू को अवगत कराया।

जर्मनी में धारण किये हुए ‘ओरलेन्दो मेझोता’ इस नाम के बाद, यहाँ जपान में उन्हें फ़िलहाल ‘मात्सुदा’ यह नाम धारण करना पड़ा था और ‘एक जापानी व्हीआयपी’ यही उनकी पहचान बतायी जाती थी। टोजो से मुलाक़ात होने तक व्यर्थ समय न गँवाते हुए, जापान सरकार के विदेश तथा रक्षा मन्त्रालयों के अन्य महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों से मेलजोल बढ़ाना उन्होंने शुरू कर दिया था।

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