नेताजी- १९१

सुभाषबाबू को जर्मन पनडुबी में से जापानी पनडुबी में स्थानान्तरित करने में, ख़राब हवा के चलते ख़ौल उठा समुद्र यह मार्ग का रोड़ा बन रहा था। बड़ी बड़ी लहरों के कारण पनडुबियाँ भी लगातार डोल रही थीं और इस कारण कहीं वे एक-दूसरे से टकरा न जायें इस डर से उन्हें एक-दूसरे के और क़रीब लाना भी मुमक़िन नहीं था।

२७ की रात से धीरे धीरे प्रकृति का यह रुद्र रूप शान्त हो जाने के आसार दिखायी देने लगे। लेकिन अभी भी वह पूरी तरह से शान्त नहीं हुआ था। यहाँ जर्मन पनडुबी का इन्धन ख़त्म होने के आसार नज़र आने के कारण म्युसेनबर्ग के सर पर मानो टँगी हुई तलवार ही डोल रही थी। और कितनी देर तक इन्तज़ार करना पड़ेगा, यह सोचविचार म्युसेनबर्ग और उसकी टीम कर ही रही थी कि….

….अचानक इस ‘डेडलॉक’ को तोड़ने के लिए, दो साहसी माहिर तैराक़िये रहनेवाले जर्मन खलासी आगे आये और उन्होंने तैरते हुए जापानी पनडुबी तक जाने की अनुमति म्युसेनबर्ग से माँगी और वह मिलने पर वे उस ख़ौले हुए समुद्र में कूद पड़े। अनपेक्षित रूप से दो जर्मन खलासियों को पानी में कूदते हुए देखकर यहाँ जापानी पनडुबी पर, उनके लिए रस्सियों का इन्तज़ाम करना आदि भागदौड़ शुरू हो गयी।

मन में आदिमाता का स्मरण करते हुए सुभाषबाबू, निसर्ग के साथ टक्कर लेनेवाले, उन खलासियों के उस जाँबाज़ साहसी कृत्य को साँस रोककर देख रहे थे।

उन ख़ौली हुई लहरों के कारण यहाँ-वहाँ फ़ेंके जानेवाले उन खलासियों ने जान की बाज़ी लगाकर आख़िर, जापानी पनडुबी में से फ़ेंकी गयीं उन रस्सियों को पकड़ने में क़ामयाबी हासिल कर ही ली! उनके द्वारा रस्सियाँ पकडीं जाने पर उन्हे जापानी पनडुबी पर खींच लिया गया। जापानी पनडुबी पर कदम रखते ही, अतिश्रम के कारण वे कुछ समय तक ज्यों के त्यों पड़े रहे। बाद में होश सँभालने के बाद उन्होंने – हमारा इन्धन ख़त्म होने की क़गार पर है, इसलिए इस तरह जान ज़ोखम में डालकर यहाँ तक आना पड़ा, यह जापानी पनडुबी के कप्तान को बताया। फ़िर कुछ देर के विश्राम के बाद वे जापानी रस्सियों को अपनी कमर को बाँधकर पुनः पानी में कूद पड़े और तैरते हुए जर्मन पनडुबी तक आ पहुँचे। वे रस्सियाँ उन्होंने सुभाषबाबू को ले जाने के लिए तैयार रहनेवाले रबर के रा़फ़्ट से बाँध दीं।

सुभाषबाबू द्वारा जर्मन पनडुबी से विदा लेने की घड़ी आ गयी। गत दो महीनें यह पनडुबी ही उनका विश्‍व बन गयी थी और उतनी अवधि में वे म्युसेनबर्ग और उसकी टीम का सम्मान का विषय बन गये थे। ऐसे अतिमहत्त्वपूर्ण व्यक्ति को इस तरह के विचित्र हालात में बीच तू़फ़ानी समुद्र के छोड़ देने में म्युसेनबर्ग का दिल काँप रहा था। जबकि समुद्र शान्त हो ही रहा है, तो वह और थोड़ा शान्त होने तक राह देखते हैं, ऐसा सुझाव म्युसेनबर्ग ने दिया। उसके पीछे की म्युसेनबर्ग की आत्मीयता को सुभाषबाबू महसूस कर रहे थे, लेकिन अब रा़फ़्ट के तैयार होने के बाद उनसे वहाँ पल भर के लिए भी रुका नहीं जा रहा था। उन्होंने गद्गद होकर म्युसेनबर्ग से बिदा ली और उस डोल रहे रबर के रा़फ़्ट पर कदम रखा। उनके पीछे पीछे अबिद भी रा़फ़्ट पर उतरा। तब तक २८ अप्रैल १९४३ की भोर हो चुकी थी।

हालाँकि समुद्र अब का़फ़ी हद तक शान्त हो चुका था, मग़र तब भी रा़फ़्ट जैसी हलकी चीज़ को उथलपुथल कर देने की ताकत लहरों में अवश्य ही थी। लेकिन अपने जीवन में हमेशा तू़फ़ानों से ही टक्कर लेते आये सुभाषबाबू इस कुदरती तू़ङ्गान से घबड़ाकर मुक़र जानेवाले नहीं थे। उन्हें तो अब बस वह जापानी पनडुबी ही नज़र आ रही थी। थोड़ासा भी विचलित न होते हुए सुभाषबाबू ने हाथ हिलाकर म्युसेनबर्ग और पनडुबी के अन्य जर्मन अ़ङ्गसरों से विदा ली और रा़फ़्ट को जापानी पनडुबी की ओर खींचने का संकेत दिया….

….और शुरू हो गया, समुद्र के बीचोंबीच एक पनडुबी में से दूसरी पनडुबी में हो रहा मानवीय स्थानान्तरण का जाँबाज़ खेल!

समूचे द्वितीय विश्‍वयुद्ध के इतिहास में इस तरह का – ‘नौसैनिक न रहनेवाले आम नागरिकों का युद्ध के दौरान दो विभिन्न देशों की नौसेना की पनडुबियों में, एक पनडुबी में से दूसरी पनडुबी में स्थानान्तरित होने का’ – एकमात्र उदाहरण….!

कई देशों के नौसेना विशेषज्ञों ने कुल मिलाकर सुभाषबाबू के जर्मनी से लेकर जापान तक के पनडुबी के इस स़फ़र को ‘लगभग चमत्कार’ (‘निअर मिरॅकल’) ही क़रार दिया है।

यह स्थानान्तरण क़ामयाब हुआ इसीलिए आगे चलकर इतिहास में अजरामर बन गया। लेकिन उस वक़्त तो लहरों के कारण हर पल रा़फ़्ट इस कदर उपर नीचे हो रहा था कि कहीं वह पलटी तो नहीं होगा, इस डर से दोनों पनडुबियों के अ़ङ्गसरों के दिल काँप रहे थे। सुभाषबाबू और अबिद ने पूरी ताकत लगाकर उस रस्सी और रा़फ़्ट के रॉड्स को कसकर पकड़ा था। कहीं इस इन्सान का जिग़र फ़ौलाद का तो नहीं बना है, इस कौतुक के साथ म्युसेनबर्ग चौंककर सुभाषबाबू को देख रहा था।

आख़िर एक घण्टे की मशक्कत के बाद सुभाषबाबू का रा़फ़्ट जापानी पनडुबी तक पहुँच ही गया और सुभाषबाबू ने जापानी पनडुबी में कदम रखा। इतनी देर से दिल थामकर इस हैरतंगेज़ घटना को देख रहे जापानी खलासियों ने तालियाँ बजाकर अपनी खुशी ज़ाहिर की। वहाँ पर किसी युद्ध में अतुलनीय बहादुरी दिखाकर लौटे हुए विजयी वीर की तरह उनका यथोचित स्वागत किया गया। सुभाषबाबू जापानी पनडुबी तक सहीसलामत पहुँच गये, यह देखकर जर्मन पनडुबी पर भी कर्तव्यपूर्ति का हर्ष मनाया गया।

ख़ैर, हालाँकि सुभाषबाबू तो जापानी पनडुबी में सहीसलामत पहुँच चुके थे, लेकिन उस पनडुबी का ‘मिशन’ अब भी समाप्त नहीं हुआ था। जिस तरह सुभाषबाबू जर्मन पनडुबी में से जापानी पनडुबी में आ गये थे, उसी तरह दो जापानी नौसेना तन्त्रज्ञ एमी तेत्सुशिरो तथा तोमोनागा हिडिओ और वह दो टन सोना जापानी पनडुबी में से जर्मन पनडुबी में हस्तान्तरित होनेवाला था। जर्मनी द्वारा विकसित किये गये इस ‘यू-१८०’ पद्धति की अत्याधुनिक पनडुबियों की तक़नीक़ को जर्मनी से जापान को हस्तान्तरित (‘टेक्नॉलॉजी ट्रान्सफ़र’) करने का समझौता इन दो देशों के बीच हुआ था, उसीकी वह ‘फ़ीज़’ थी। साथ ही वे दो जापानी नौसेना तन्त्रज्ञ जर्मन पनडुबी में रहकर उसका निर्माण, उसे चलाना तथा उसकी देखभाल करना इन बातों का पूरा प्रशिक्षण प्राप्त करनेवाले थे। साथ ही, दोनों पनडुबियों पर से अत्याधुनिक शस्त्र-अस्त्र, काग़ज़ात आदि बातों का भी आदानप्रदान होनेवाला था। जर्मन पनडुबी पर से पनडुबी निर्मितीप्रक्रिया की फ़ाइलें; वहीं, जापानी पनडुबी पर से, उनकी पनडुबियों को ढूँढ़ निकालने के लिए दुश्मन के जहाज़ों पर बिठायी गयीं सोनार यंत्रणा को चकमा देनेवाली प्रतियंत्रणा इनका आदानप्रदान होनेवाला था।

तब तक समुद्र के शान्त हो जाने के कारण यह दूसरा हस्तान्तरण बड़ी तेज़ी से एवं सुरक्षित रूप में पूरा हो गया और दोनों पनडुबियों ने एक-दूसरे से बिदा लेकर अपना वापसी का स़फ़र शुरू कर दिया।

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