नेताजी-१८९

आख़िर सुभाषबाबू का जर्मनी से पनडुबी का स़फर शुरू तो हो गया। पनडुबी में कदम रखने से पहले अबिद के दिल में पनडुबी के स़फर के प्रति महसूस हो रहा ‘थ्रिल’ पनडुबी की भीतरी अव्यवस्था को देखकर कुछ मुरझा सा गया था। लेकिन इस स़फर के महत्त्व को जानने के बाद उसका दिल फिर झूम उठा। सुभाषबाबू ने तो शुरू से ही इस अव्यवस्था पर कोई ऐतराज़ नहीं जताया था। पनडुबी में कदम रखने के पल से ही वे अपने क़ाम में डूब गये थे।

पनडुबी ने कुछ फासला उत्तर में, फिर का़फी दूरी पश्चिम में तय की और उसके बाद दुश्मन के सागरी क्षेत्र में से बाहर निकलकर खुले अटलांटिक महासागर में दाखिल होने का यक़ीन होने के बाद ही दक्षिण में प्रस्थान किया। सम्पूर्ण युरोप खण्ड को पार करके अफ्रिका खण्ड की परिक्रमा करने के बाद उसे मादागास्कर में सुभाषबाबू की प्रतीक्षा कर रही जापानी पनडुबी तक पहुँचना था। हालाँकि उस मुक़ाम पर इस पनडुबी का मिशन तो ख़त्म होनेवाला था, मग़र तब भी सुभाषबाबू का स़फर तो जारी ही रहनेवाला था। वे जापानी पनडुबी में से अगला स़फर करनेवाले थे।

यह स़फर कोई छोटा-सा स़फर तो नहीं था – लगभग १५ हज़ार सागरी मील की आधी पृथ्वीपरिक्रमा ही वह थी! और ऱफ़्तार थी समुद्री सतह से स़फर करते हुए प्रतिघण्टे अठारह मील और पानी के भीतर से प्रतिघण्टे महज़ आठ मील! वह पनडुबी युद्धकालीन विशेष कार्य के लिए निकली थी और इसीलिए वह किसी भी बन्दरगाह में रुकनेवाली नहीं थी। अत एव जहाँ देखो वहाँ स़िर्फ पानी ही पानी, ऐसे हालात थे। समुद्र के भीतर से गुज़रते हुए वह बॅटरियों के इलेक्ट्रिक स्रोत से चलती थी। उन बॅटरियों को हररोज़ रिचार्ज करना पड़ता था और इसके लिए पनडुबी में इन्धन भरना आवश्यक था। लेकिन किसी भी बन्दरगाह में वह पनडुबी रुकनेवाली नहीं थी और इसीलिए उसकी साथी पनडुबियों को इस तरह के क़ाम सौंपे गये थे। उनमें से एक बहुत ही बड़ी पनडुबी का निर्माण, इस तरह की युद्धसेवा में व्यस्त रहनेवालीं पनडुबियों को सागर के बीचोंबीच इन्धन की आपूर्ति करने की दृष्टि से ख़ास रूप में किया गया था और उसी के द्वारा इस पनडुबी में इन्धन भरा जाता था। लेकिन यह क़ाम समुद्री सतह पर आकर ही करना पड़ता था। मग़र युद्ध के हालात के कारण दिन में सतह पर आना ख़तरे से ख़ाली नहीं था। दुश्मन के हवाई जहाज़, दुश्मन की युद्धनौकाएँ किसी भी वक़्त हल्ला बोल सकती थीं। अत एव दिन का स़फर प्रायः पानी के भीतर से ही होता था। लेकिन उसमें भी कोई कम ख़तरा नहीं था। दोस्तराष्ट्रों द्वारा हाल ही में ‘सोनार’ रड़ारयंत्रणा का अत्याधुनिकीकरण करके, पनडुबियों को खोजने के लिए इस तरह की यन्त्रणाओं को उनके जहाज़ों के नीचे लगाया गया था। इस वजह से किसी भी वक़्त रड़ार पर दिखायी देकर शत्रु के टोर्पेडोज़ द्वारा हमला किये जाने का ख़तरा बरक़रार था। अब उसपर भी जर्मन टेक्निशियन्स ने अस्थायी उपाय खोज़ निकाला था। पानी के नीचे से ही, लेकिन ज़्यादा गहराई तक न जाकर सतह के नीचे से स़फर करने पर वे रड़ार यन्त्रणाएँ उन पनडुबियों की खोज करने में नाक़ाम साबित होती थीं, इस बात को जर्मन टेक्निशियन्स ने ढूँढ़ निकाला था। अत एव, पनडुबी को कुछ देर के लिए सतह के ऊपर से, तो कुछ देर के लिए सतह के नीचे से स़फर करना पड़ता था। मग़र तब भी ख़तरे की बढ़ रही गुंजाईश के कारण, उन ‘विशेष अतिथि’ को सहीसलामत मादागास्कर तक पहुँचाने की ज़िम्मेदारी जिन्हें सौंपी गयी थी. उन कॅप्टन म्युसेनबर्ग को का़फी चौकन्ना रहना पड़ता था।

सबसे अहम बात यह थी कि सतह पर होते समय यदि निग़रानी नौका से, दुश्मन का जहाज़ या हवाई जहाज़ आ रहा है, यह सन्देश आ जाता था, तो पनडुबी को फौरन ही पानी में गोता लगाना पड़ता था। सुभाषबाबू का स़फर शुरू होने के बाद जब पनडुबी ने पहली बार इस तरह गोता लगाया था, तब अबिद के तो होश ही उड़ गये थे। लेकिन धीरे धीरे उसे इस बात की आदत हो गयी थी। सुभाषबाबू के ग्रन्थलेखन केे काम में उन्हें अबिद का़फी उपयोगी साबित हो रहा था। साथ ही, इक और मामले में भी अबिद से उन्हें का़फी सहायता मिली। पहले दिन उनके लिए जो खाना भेजा गया, उसमें हवाबन्द ड़िब्बे में रखे गये मांस के टुकड़े थें। उस स्वादहीन भोजन को खाना और पचाना दोनों के लिए का़ङ्गी तक़ली़फदेह साबित हुआ। अत एव अबिद सीधे सीधे पनडुबी के रसोईघर में गया और वहाँ के बावर्ची से दोस्ती करके उन दोनों के लिए खुद भोजन बनाने की इजाज़त भी उसने प्राप्त कर ली। ख़ुशक़िस्मती से पनडुबी में चावल और दाल की कुछ गोनियाँ थीं। इस वजह से दाल चावल और उबले हुए अण्डें ऐसा ‘शाही’ खाना अबिद ने सुभाषबाबू के लिए बनाया। अबिद द्वारा पक़ाया गया वह खाना ‘मान्यताप्राप्त’ हो जाने के कारण ङ्गिर यह हररोज़ की परिपाटी ही बन गयी।

इन्धन भरने के लिए पनडुबी जब रात को समुद्री सतह पर आ जाती थी, तब कभी कभी सुभाषबाबू भी कप्तान के साथ डेक पर आकर खुली हवा में साँस लेते थे, हम कितने दिनों में कहाँ तक आये हैं, इसकी जानकारी भी प्राप्त करते थे, युद्ध के समाचारों के बारे में भी पूछते थे। कॅप्टन म्युसेनबर्ग से उनकी अब अच्छी-ख़ासी दोस्ती हो चुकी थी।

यह दिनक्रम लगभग दो महीनों तक अव्याहत रूप में चल रहा था। ८ फरवरी १९४३ को कील बन्दरगाह से रवाना हुई पनडुबी के अप्रैल के मध्य तक मादागास्कर पहुँचने का नियोजन किया गया था। इसी दौरान वक़्त का जायज़ा लेकर, उससे भी पहले जापान से एक आय-२९ दर्जे की पनडुबी इसी तरह रवाना हो चुकी थी। लेकिन उसके कप्तान के अलावा अन्य किसी को भी, ‘हम मादागास्कर जा रहे हैं’ इस बात के अलावा अन्य किसी भी प्रकार की जानकारी नहीं दी गयी थी।

यहाँ अटलांटिक महासागर को लगभग पूरी तरह पार कर चुके सुभाषबाबू को इसी दौरान बीच में ही एक हैरतंगेज़ वाक़िये से गुज़रना पड़ा….प्रत्यक्ष युद्ध का मानो वह ठेंठ अनुभव ही था। अफ़्रिका के दक्षिणी छोर से पाँच-छः सौ किलोमीटर की दूरी पर यक़ायक़ ब्रिटन की एक इंधन ले जानेवाली युद्धनौका आगे कुछ ही दूरी पर चल रही है, इस बात का पता चला। पनडुबी ‘टोर्पेडो’ आदि शस्त्र-अस्त्रों से लैस थी ही। अत एव, इससे पहले कि वे हमें देखकर हमपर हमला करें, क्यों न हम ही उसपर धावा बोल दें, इस तरह का विचारविमर्श पनडुबी के अ़ङ्गसरों के बीच हुआ और उस युद्धनौका को उड़ाने का फैसला किया गया। उसके अनुसार पनडुबी में ‘हाय अ‍ॅलर्ट’ घोषित करके पनडुबी ने पानी के नीचे गोता लगाया। पनडुबी के टोर्पेडोज़ की पहुँच में वह युद्धनौक़ा आ जाये, इतनी दूरी पर कप्तान पनडुबी को ले गया और वहाँ से उस युद्धनौक़ा पर टोर्पेडोज़ से बमबारी कर दी। पीछे से यक़ायक़ बमबारी होने के कारण हमले का जवाब देने का समय न मिली हुई वह युद्धनौक़ा पानी में डूब गयी। यह घटना हुई १५ अप्रैल को।
उसके बाद २३ अप्रैल को सुभाषबाबू की पनडुबी पूर्वनियोजित मादागास्कर समीप के संकेतस्थल तक पहुँच गयी। आधी जंग जीती जा चुकी थी!

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