नेताजी-१८८

आदिमाता चण्डिका का स्मरण करते हुए सुभाषबाबू ने अबिद के साथ कील बंदर पर स्थित पनडुबी में कदम रखा। वेर्नर म्युसेनबर्ग इस, पनडुबी के ज़िन्दादिल कॅप्टन ने उनका स्वागत किया। बाहर से चमकीली लम्बी सी मछली की तरह दिखायी दे रही पनडुबी में प्रवेश करते ही जो नज़ारा दिखायी दिया, उससे अबिद के उत्साह पर का़फी हद तक पानी फेर गया। एक तो, जहाँ जायें वहाँ डीज़ल की उग्र गन्ध उनका पीछा कर रही थी। कपड़ें, चद्दरें, ब्लँकेट्स सभी में वह डीज़ल की गन्ध समा गयी थी। और तो और, थोड़ी ही देर में उनके लिए जो चाय-नाश्ता भेजा गया, उसमें से टोस्टेड ब्रेड़ का स्वाद भी कुछ ऐसा था कि जैसे डीज़ल में ही उसे तला गया हो। और इतना सबकुछ भी शायद कम लगे, इसलिए चौबीसों घण्टें अखण्डित रूप में शुरू रहनेवाली, इंजन की ‘धडधड’ आवाज़ का एक ही सूर में बज रहा पार्श्‍वसंगीत इस सारे माहौल को मानो ‘चार चाँद’ ही लगा रहा था!

Netaji

उसीमें उनके लिए ‘आरक्षित’ की हुई जगह जब कॅप्टन ने उन्हें दिखायी, तब अबिद को चक्कर आना ही बाक़ी रह गया था। अ़ङ्गसरों के लिए ‘आरक्षित’ रहनेवाली एक छोटी सी, बिना दरवाज़े की केबिन जैसी जगह में उनके रहने का इन्तज़ाम कर दिया गया था। उसमें रेल के स्लीपर कंपार्टमेंट की तरह दीवार में एक के उपर एक ठोकी गयीं संकरी लकड़ियों पर उन्हें सोना था। उसके सामने से ही पनडुबी की एक छोर से दूसरी छोर तक जाने के लिए एक लम्बा-सा संकरा मार्ग (पॅसेज) था। उसी पॅसेज में ही ५ फीट बाय ३ फीट ऐसे ‘बड़े’ चौकोर में, यदि वे कुछ काम करना चाहते हैं तो उनके लिए एक टेबल और दो कुर्सियों का बन्दोबस्त किया गया था। उस जगह छत की ऊँचाई इतनी कम थी कि कोई सीधा खड़ा भी न रह पाता था। पनडुबी से स़फर करना है, इस बात से पहले रोमांचित हुए अबिद के तो, इस ‘व्यवस्था’ को देखकर तोते ही उड़ गये।

लेकिन सुभाषबाबू को इस इन्तज़ाम से कोई आपत्ति नहीं थी। जैसे तैसे आख़िर मैं जापान के लिए रवाना हो रहा हूँ, इसी में वे खुश थे। दो साल पूर्व, पेशावर से लेकर क़ाबूल तक के स़फर की अपेक्षा यह स़फर बहुत ही सुखदायी है, ऐसा उन्होंने अपने मन को रिझाया था। अपने ध्येय के सामने बाक़ी सारी बातें उनके लिए कोई अहमियत नहीं रखती थीं और ध्येयपूर्ति के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए वे तैयार थे। उनके जापानी स़फर का त़ङ्गसील जब आकार ले रहा था, उस समय जब बाक़ी के सारे विकल्प ख़ारिज़ होकर यह पनडुबी में से जापान के स़फर की कल्पना पर सोचविचार हो रहा था तब उस समय की युद्धस्थिति को देखते हुए, इस स़फर के सुरक्षित रूप में सम्पन्न होने के आसार पचास प्रतिशत भी नहीं हैं, ऐसा निष्कर्ष जर्मन नौसेना ने जर्मन सरकार को प्रस्तुत किया था। जब सुभाषबाबू को यह बताया गया, तो उन्होंने – ‘सुरक्षित रूप में पहुँचने की यदि एक प्रतिशत भी संभावना हो, तो भी मैं जाने के लिए तैयार हूँ’ ऐसा जर्मन सरकार से कहा था। अज्ञात भविष्य के अँधेरे में केवल अँदाज़ा लगाकर पत्थर फेंककर मारने का यह उनके लिए कोई पहला अवसर नहीं था। इसलिए वे इन हालातों से निराश न होते हुए, सीधे अपने सामान में से टाईपरायटर निकालकर काम की तैयारी में जुट गये।

इतने प्रतिकूल हालातों में भी न ढली उनकी स्थितप्रज्ञता को अबिद हैरानी से देख रहा था। उसे तो अबतक यह भी पता नहीं था कि वे जा कहाँ रहे हैं! उनको दी गयी जगह में सामान को लगाते हुए यक़ायक़ सुभाषबाबू को याद आया कि अबिद को अबतक यह नहीं बताया गया है; और उन्होंने एकदम उसे – ‘क्या तुम्हें यह पता है कि हम कहाँ जा रहे हैं?’ यह सवाल पूछा। अबिद को पिछले कुछ दिनों की घटनाओं का स्मरण हुआ। कुछ दिन पूर्व ही, ग्रीस में तथा युरोप के अन्य कई शहरों में इंडियन लीजन की शाखाएँ शुरू करने के लिए उसे वहाँ भेजने की योजनाओं पर विचार हो रहा था। लेकिन इन योजनाओं पर आगे कुछ कार्यवाही नहीं हुई थी। अत एव सुभाषबाबू द्वारा इस प्रश्‍न के पूछे जाने पर वह हैरान होकर उनकी ओर देखने लगा।

उसपर सुभाषबाबू ने उसे – ‘हमें इस पनडुबी में जल्द से जल्द जापान तक की दूरी तय करनी है’ यह बताने पर वह तो हक्काबक्का हो गया। थोड़ी देर बाद उसे, जिस स़फर पर वह निकला है उसकी अहमियत पर ग़ौर होने लगा और उसमें स्थित ‘थ्रिल’ के सामने, उस प्रवास की सभी ‘अव्यवस्थाएँ’ गौण लगने लगीं। सुभाषबाबू के लिए उनका ध्येय कितनी अहमियत रखता है, इस बात को वह भली-भाँति जानता था। इसीलिए, उनके इन महत्त्वपूर्ण प्रयासों में मेरा ‘गिलहरी जितना’ ही सही, लेकिन सहभाग रहनेवाला है; और तो और, यदि यह १५ हज़ार सागरी मीलों का स़फर सफ़लतापूर्वक सम्पन्न हो जाता है, तो वह अपने आप में एक ऐतिहासिक मिसाल साबित होगा, इस बात पर ग़ौर करते ही उसका मन पुनः उभरकर सचेत हो गया।

यह पनडुबी किसी भी बन्दरगाह पर रुकनेवाली नहीं थी, वह निरन्तर स़फर ही करनेवाली थी। अतः दिन-रात चहु ओर केवल पानी ही पानी ऐसी स्थिति रहनेवाली थी। बैठे रहने के अलावा और कुछ कर भी नहीं सकते थे।

निरन्तर भूतकाल की घटनाओं का अध्ययन करके, उसपर से वर्तमान की घटनाओं के आधार पर भविष्य का अँदाजा लगानेवाले, लेकिन साथ ही, वर्तमान का साथ कभी न छोड़नेवाले सुभाषबाबू समय का महत्त्व भली-भाँति जानते थे। अतः उन्हें समय को व्यर्थ गँवाना ज़रा भी पसन्द नहीं था। जब वे पिछले ख्रिसमस में नवजात अनिता को देखने व्हिएन्ना गये थे, तब वहाँ भी उन्होंने अपनी व्यस्त दिनचर्या में से समय निकालकर, यानि अनिता के दैनिक नींद के टाईमटेबल पर अपनी समयसारिणी निर्धारित करके अपने ‘द इंडियन स्ट्रगल’ ग्रन्थ के दूसरे भाग का लेखन किया था।

इसीलिए यहाँ पर भी ‘केवल बैठे रहना’ इस ‘नकारात्मक’ बात का ‘सकारात्मक’ दृष्टि से उपयोग करना सुभाषबाबाबू ने निश्चित किया था और इस ‘द इंडियन स्ट्रगल’ के दूसरे भाग के हस्तलिखित प्रुफों को ‘टाईपरिटन’ अन्तिम स्वरूप देने का तय किया था। पहले भाग के लेखन के समय एमिली ने टाइपिंग किया था। इस बार टाइपिस्ट रहनेवाला था अबिद!

आख़िर पनडुबी ने कील का किनारा छोड़ ही दिया और थोड़ी ही देर में वह पानी में नीचे चली गयी। नया स़फर….नया अनुभव! अज्ञात भविष्य की कोख में क्या छिपा है, यह भला किसे पता था! लेकिन सुभाषबाबू को उसकी यत्किंचित भी फिक्र नहीं थी। वे ग्रन्थलेखन के काम में डूब गये थे।

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