नेताजी-१८७

एमिली से भावपूर्ण विदा लेकर दिल पर पत्थर रखते हुए सुभाषबाबू ने घर के बाहर कदम रखा। बर्लिन से सुभाषबाबू को लेकर कील बंदरगाह की ओर जानेवाली रेलगाड़ी एक रात पहले ही कील पहुँच चुकी थी। उनके साथ केपलर, वेर्थ ये जर्मन दोस्त तथा नंबियारजी भी थे। अबिद को अलग से ही ठेंठ कील बंदरगाह पर ही आने के लिए कहा गया था। लेकिन जर्मनी में कदम रखने के बाद फौरन ही सुभाषबाबू का ‘दोस्ताना’ जिसके साथ गहराई से जुड़ गया था, उन जर्मन दोस्त ट्रॉट ने, जो उनपर जान निछावर करता था, ‘मैं आ नहीं सकूँगा, इस बात का मुझे अ़फसोस है’ यह कहकर खेद ज़ाहिर किया था। ट्रॉट को भला इतना महत्त्वपूर्ण काम क्या आ गया होगा, इस सोच में ही सुभाषबाबू कील स्टेशन पर उतर गये और वहाँ से आगे बंदरगाह जाने की व्यवस्था होने तक प्रतीक्षागृह में ही बैठे रहे। इसी दौरान, कोई भी पहचान न पाये, इस तरह की पोशाक़ पहना हुआ ट्रॉट ही खुद वहाँ पर ‘अवतरित’ हुआ और उसने इशारे से ही सुभाषबाबू को भीड़ से कुछ दूरी पर एकान्त में बुलाकर फटाफट से बात करना शुरू कर दिया।

बर्लिन स्टेशन से सुभाषबाबू के साथ ट्रॉट के न आने की वजह यह थी कि वह हिटलर के प्रशासन में रहकर हिटलर का घात करने की कोशिशें कर रहा है, इस बात की भनक हिटलर को लग चुकी थी और उसने ट्रॉट के पीछे गेस्टापो लगा दिये थे। मग़र तब भी, इतने महीनों से मेरे दोस्त ने जिस घड़ी का इन्तज़ार किया, उस स्वप्नपूर्ति की राह पर वह कदम रखने जा रहा है, तो उसे विदा करने का मौक़ा मैं भला कैसे गँवाऊँ, इस विचार से ट्रॉट बेचैन था। अत एव अपनी जान पर खेलकर जैसे तैसे बड़ी हॅट, बड़ा गॉगल, लंबा सा कोट इस तरह की पोशाक़ पहनकर वह कील आया था। अपनी रामकहानी सुनाकर – काश मेरे नहीं, कम से कम दोस्त, तुम्हारे कार्य में तो तुम्हें सफ़लता मिलें, यह शुभेच्छा व्यक्त करके ट्रॉट ने सुभाषबाबू से अलविदा कहा। सुभाषबाबू मन ही मन बहुत दुखी हुए। अपने अपने देश को ग़ुलामी में से, तानाशाही में से मुक्त करने के कितने ख्वाब हम दोनों ने एक साथ देखे थे! जर्मन विदेश मंत्रालय की ‘स्पेशल इंडिया डिव्हिजन’ के प्रमुख के तौर पर ट्रॉट ने सुभाषबाबू की कई बार ‘आऊट ऑफ द वे’ जाकर सहायता की थी। अर्थात् इसी पद के कार्यक्षेत्र की आड़ में उसने विदेशों में भी कई समानशील, हिटलरद्वेषी नेताओं के साथ साँठगाँठ करने की प्रक्रिया भी जारी रखी थी….बिलकुल इंग्लैंड़ में भी! हिटलर की राक्षसी महत्त्वाकांक्षा से जर्मनी को बचाने के लिए चर्चिल तक से भी सम्पर्क स्थापित करने में वह नहीं हिचकिचाया। उस वक़्त उसे चर्चिल को देने के लिए, अपनी अव्वल दर्ज़े की माहिर अँग्रेज़ी में सुभाषबाबू ने ही एक बहुत ही बेहतरीन निवेदन लिखकर दिया था। लेकिन जर्मनी के मामले में हमेशा चौकन्ने रहनेवाले चर्चिल को यह भी हिटलर द्वारा बिछाया गया एक जाल ही प्रतीत हुआ। भला इतनी अच्छी अँग्रेज़ी किसी जर्मन व्यक्ति की कैसे हो सकती है! दाल में ज़रूर कुछ काला है, यह सोचकर चर्चिल ने बर्लिन स्थित अपने गुप्तचरों द्वारा ट्रॉट के बारे में जानकारी हासिल की। उस जानकारी में ‘ट्रॉट यह जर्मनी में राजाश्रय ले चुके सुभाषचन्द्र बोसजी का गहरा दोस्त है’ यह बात सामने आ गयी और केवल इस एक बात से चर्चिल ने ट्रॉट का नाम काट ही दिया। ‘ब्रिटीश साम्राज्य के नं. १ के दुश्मन रहनेवाले सुभाषचन्द्र बोस के दोस्त की’ सहायता मैं हरगीज़ ही नहीं करूँगा, ऐसी चर्चिल ने कसम खा ली और उलटा ‘ट्रॉट ने हिटलर के ख़िला़फ मुझसे सहायता माँगी है’ यह ‘ख़बर’ अपने गुप्तचरों के ज़रिये हिटलर तक पहुँचाने का पु़ख्ता इन्तज़ाम कर दिया।

अत एव ट्रॉट की इन गतिविधियों के बारे में हिटलर को जानकारी मिल सकी और उसने गेस्टापों की झंझट ट्रॉट के पीछे लगा दी।

उसकी यह रामकहानी सुनकर सुभाषबाबू के मन में उसके प्रति का़फी हमदर्दी उत्पन्न हुई। ख़ासकर, चूँकि ‘वह मेरा दोस्त है’ यह बात उसकी योजनाओं में अड़ंगा बन गयी, इसका उन्हें बहुत बुरा लगा; लेकिन अब सोचने के लिए भला उनके पास वक़्त भी कहाँ था! कील बंदरगाह की ओर प्रस्थान करने का समय का़फी क़रीब आ चुका था। अत एव उसे शुभकामनाएँ देकर और चौकन्ना रहने की सलाह देकर सुभाषबाबू कील बंदरगाह की ओर रवाना हुए।

अबिद भी तब तक कील बंदरगाह पर पहुँच चुका था। जहाज़ से स़फर करना है इसका अर्थ यह है कि हम कहीं ग्रीस जैसी किसी जगह जा रहे हैं, यह शुरुआत में उसने सोचा था। लेकिन सुभाषबाबू के कील पहुँचते ही और उनके साथ केपलर, वेर्थ जैसे जर्मन उच्चाधिकारी नंबियारजीसहित दिखते ही, मामला कुछ अलग ही है, यह अबिद जान गया। उसमें भी, हम पनडुबी से जा रहे हैं यह जानकारी सुभाषबाबू से मिलने के बाद तो वह रोमांचित एवं उत्कंठित हो गया। मग़र अब भी कहाँ जाना है, इसका उसे पता नहीं था।

कील बंदरगाह पर अत्याधुनिक तक़नीक़ से लैस ‘यू-१८०’ क्लास की जर्मन पनडुबियों का समूह सुभाषबाबू की प्रतीक्षा कर रहा था। ये इतनी सारी पनडुबियाँ मेरी पनडुबी के साथ आनेवाली हैं, यह सुनकर सुभाषबाबू हैरान हो गये। लेकिन इस पनडुबी के स़फर में इस भारतीय नेता की सुरक्षा के सर्वोच्च दर्ज़े के इन्तज़ाम में कोई क़सर बाक़ी नहीं रहनी चाहिए, ऐसे आदेश स्वयं हिटलर द्वारा दिये जाने के कारण जर्मन नौसेना ने यह अतिरिक्त एहतियाद बरते थे। सुभाषबाबू की पनडुबी अटलांटिक महासागर को लाँघकर अफ्रिका के दक्षिणी छोर तक पहुँचने तक ये बाक़ी की पनडुबियाँ सुरक्षाकवच के रूप में उनके साथ आनेवाली थीं और उसके बाद ही वापस लौटनेवाली थीं। साथ ही, शत्रुराष्ट्र द्वारा समुद्र में भी कई जगह बारुद भरकर रखे जाने के कारण, इस पूरे स़फर में अत्याधुनिक तक़नीक़ एवं शस्त्र-अस्त्रों से लैस रहनेवाली एक छोटी जर्मन विनाशिका आगे के मार्ग में कोई खतरा नहीं है इसकी निश्चिति करते हुए उनकी पनडुबी के आगे आगे चलनेवाली थी।

सुभाषबाबू की पनडुबी अटलांटिक महासागर में से स़फर करते हुए अफ़्रीका खण्ड की परिक्रमा करके हिन्द महासागर तक जानेवाली थी। इसी दौरान एक और पनडुबी जापान से निकलनेवाली थी। अफ़्रीका के दक्षिणी छोर के पास के इला़के में बसा मादागास्कर यह पुर्तग़ालियों के नियन्त्रण में रहने के कारण वहाँ पर इन दोनों पनडुबियों का मिलना मुक़र्रर किया गया था और वहीं पर सुभाषबाबू का एक पनडुबी में से दूसरी पनडुबी में हस्तान्तरण होनेवाला था। पुर्तग़ाल इस महायुद्ध में ‘तटस्थ’ रहने के कारण, उसके अधिकारक्षेत्र में कम से कम खतरा रहने की बात सोचकर इस जगह को चुना गया था।

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