नेताजी-१८२

हिटलर के साथ सुभाषबाबू की मीटिंग खत्म हो गयी। जर्मनी में कदम रखते समय हिटलर से उन्हें जो अपेक्षाएँ थीं, उनमें से कुछ पूरी हो चुकी थीं, तो कुछ अधूरी ही रह गयी थीं। अँग्रेज़ों की वहशी हुकूमत के ख़िला़फ़ हिटलर से सहायता माँगने जाते हुए, मैं एक तानाशाह की गुफ़ा में कदम रख रहा हूँ, इस बात का एहसास सुभाषबाबू को पूरी तरह था। जर्मनी में उसने किस तरह अपने प्रभावी वक्तृत्व के बल पर इकट्ठा किये हुए अनुयायियों की झुण्डशाही की सहायता से सत्ता हथियाई है, इसका भी एहसास सुभाषबाबू को था।

लेकिन भारत में अँग्रेज़ों द्वारा जो वहशी अत्याचार किये जा रहे थे, अँग्रेज़ जिस तरह जोंक की तरह भारतीयों का खून चूस रहे थे, उसमें से भारत को मुक्त करने के लिए वे किसी भी प्रकार की अग्निपरीक्षा देने के लिए तैयार थे; बिलकुल ‘तानाशाह से सहायता ली’ इस उछाली गयी कीचड़ को भी स्वीकार करने के लिए तैयार थे….और इस तरह की कीचड़ उनपर उछाली ही जा रही थी। लेकिन वे तो ‘….लातों के भूत बातों से नहीं मानते’ इस भारतीय सन्तों द्वारा दिये गये त्रिकालाबाधित सन्देश पर अमल करने ‘लाठी’ मुहैया कराने के लिए ही वहाँ गये थे, ‘काँटे से काँटा’ निकालने के लिए ही वहाँ गये थे। लेकिन इस ‘काँटे से काटा’ निकालने की कोशिश में पहले ‘काँटे’ की जगह दूसरा ‘काँटा’ पैर में घुस सकता था, ऐसा कइयों का मानना था। हिटलर यदि रशिया जीतने में क़ामयाब हो जाता, तो उसला अगला भक्ष्य स्वाभाविक तौर पर, अँग्रेज़ों के तत्कालीन सत्तामुकुट का ‘कोहिनूर’ रहनेवाला ‘भारत’ ही रहता, यही बात कई लेखकों द्वारा लिखी गयी। इसलिए भारत को ‘आग में से दावानल में’ धकेल सकनेवाले इस ‘काँटे’ से सहायता लेना कहाँ तक मुनासिब था, यह सवाल उनके विरोध में हमेशा से ही किया जाता है। उनपर साधनशुचिता का पालन न करने का आरोप भी सुभाषविरोधक हमेशा से ही करते आये हैं। लेकिन इस ‘यदि-तो-और-अग़र-मग़र’ में न फ़ॅंसते हुए, उन हालातों में सुभाषबाबू ने जो मुनासिब समझा, वही उन्होंने ‘प्रॅक्टिकली’ विचार करके किया था और वह करते हुए देशहित का विचार पलभर के लिए भी उन्होंने नज़रअन्दाज़ नहीं किया था। अत एव ‘दुश्मन का दुश्मन मेरा मित्र’ इस तत्त्व के अनुसार, उस वक़्त ब्रिटन के लिए तुल्यबल साबित हुए जर्मनी से उन्होंने सहायता ली। लेकिन दूरंदेशी से, जर्मनी से उन्होंने जो कुछ भी सहायता ली, वह कर्ज़ के रूप में ही और वह भी अपनी ‘टर्म्स’ पर!

उनपर किये गये साधनशुचिता का भंग करने के आरोप का विचार किया जाये, तो ब्रिटन ने भला कहाँ और कौनसी साधनशुचिता का पालन किया था? दुनिया भर में अपनी हु़कूमत का जाल बिछाते हुए, ‘डिव्हाइड अँड रूल’ इस ‘तत्त्व’ (?) का यथेच्छ इस्तेमाल किया था। साथ ही ‘आन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में ना तो कोई भी किसी का दीर्घकालीन दुश्मन रहता है और ना ही मित्र और शत्रु या मित्र भी ताकतवरों की सहूलियत के अनुसार तय किया जाता है’ यह तत्त्व तो ब्रिटन के खून में ही था। कम्युनिस्ट सोव्हिएत रशिया का नाम लेते ही मुँह टेढ़ा करनेवाले चर्चिल ने नहीं क्या, हिटलर का काँटा निकालने के लिए स्टॅलिन की सहायता की थी! और फ़िर युद्ध के बाद युरोप का ‘रूसीकरण’ करना चाहनेवाले स्टॅलिन को दुश्मन मानकर रोकने की कोशिशें की थीं! ब्रिटन को सुभाषबाबू ने उसी की भाषा में जवाब देने की कोशिश की थी।

भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के लिए विदेश में मदद माँगने जाते हुए, उस वक़्त तो अँग्रेज़ों की सर्वसमर्थ सत्ता को टक्कर देने के लिए जर्मनी और रशिया ये दो ही विकल्प उन्हें नज़र आ रहे थे। इनमें से रशिया ने उन्हें पनाह देने से इनकार कर दिया था; अब रहा जर्मनी….इसलिए उन्हें मजबूरन उस तानाशाह के पास राजाश्रय माँगना पड़ा था।

….लेकिन यह तानाशाह कितना क्रूरकर्मा है, इसका क़रीब से दर्शन उन्हें जर्मनी में कदम रखने के बाद ही हुआ था। हालाँकि जर्मनी ने उन्हें सभी प्रकार की सुखसुविधाएँ दी थीं, मग़र तब भी लगभग सभी क्षेत्रों में गेस्टापो (जर्मन गुप्तचरों) की प्रचुरता रहनेवाले नाझी जर्मनी में वे यक़ीनन ही स्वतन्त्र तो नहीं थे। शायद मुझपर भी जर्मन गेस्टापो नज़र रखे हुए हैं, इस विचार का अनुसरण करते हुए उन्होंने इस बात का भी पता लगाया कि उनकी सेवा में दिये गये स्टा़ङ्ग में से उनका बटलर (बावर्ची) यह गेस्टापो का ‘इन्फ़ॉंर्मर’ है। लेकिन मुझे इस बात का पता चला है, इसकी उसे ज़रासी भी भनक तक न लगने देते हुए, उन्होंने महत्त्वपूर्ण मुद्दों को बंगाली में दर्ज़ करके रखना शुरू कर दिया। यदि किसी के साथ कुछ निजी महत्त्वपूर्ण बात करनी हो, तो वे सीधे उस मनुष्य को अपने साथ लेकर बंगले के गार्डन में चक्कर लगाते थे। अब ज़ाहिर है कि आख़िर वे जर्मनी में बिन बुलाये मेहमान होने के कारण उनके साथ यह तो होगा ही और यह वे जानते भी थे। लेकिन जर्मनी के ही, यहाँ तक कि बर्लिन के भी नागरिकों पर रहनेवाली हिटलर की दहशत को जब उन्होंने क़रीब से देखा, तब हिटलर के देशप्रेम की प्रामाणिकता पर उन्हें सन्देह लगने लगा। एक बार तो उनकी सेवा में दिये गये स्टाफ़ की एक वृद्धा कर्मचारी के बेटे के साथ भी एक भयानक हादसा हुआ। एक बार उसके घर की बाल्कनी में नाझी पक्ष का झण्डा नहीं लगाया गया था, इस मामूली से कारण की वजह से दैनिक निगरानी करनेवाले सेना के अ़फ़सर ने उसे जूतों और लाठी से जानवर जैसा पीटा था। उसमें उसकी रीढ़ की हड्डी में गंभीर रूप से चोट आ गयी और वह हमेशा के लिए अपाहिज़ बन गया।

इस सब बातों को क़रीब से देखने के बाद उनका संवेदनशील मन तो कबका ऊब चुका था। लेकिन हिटलर के प्रति रहनेवाले इस ग़ुस्से में, भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के लिए सहायता इकट्ठा करने के अपने ध्येय को थोड़ासा भी नज़रअन्दाज़ न करते हुए; केवल ‘मेरे देश को ग़ुलामी की खाई में रखने के लिए वहशी पद्धतियों का इस्तेमाल करनेवाले ब्रिटन के ख़िला़फ़ मेरी सहायता स़िर्फ़ यही कर सकता है’ इस एकमात्र विचार के साथ हिटलर के प्रति सम्पूर्ण घृणा मन में रहने के बावजूद भी वे जर्मनी में दिन गुज़ार रहे थे। इसीलिए तो वहाँ हिटलर की राक्षसी महत्त्वाकांक्षा के कारण जर्मनी का सर्वनाश न हो, इस उद्देश्य से हिटलर का घात करने की योजना बनाने वाले ट्रॉट जैसे जर्मन देशभक्तों के साथ उन्होंने अच्छे ताल्लुकात बना लिये थे।

लेकिन अपने इस बालक की घुटन भला ईश्वर की समझ में न आये, ऐसा क्या कभी हो सकता है! अत एव बहुत ही अजीबोंग़रीब तरीके से प्राप्त हुए हिटलर के ही अनुमोदन से, उसके चंगुल में से छूटकर जापानी मोरचे पर से भारत की स्वतन्त्रता के लिए प्रत्यक्ष जंग लड़ने का अवसर उनके सामने आ गया था!

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