नेताजी- १८१

सुभाषबाबू की हिटलर के साथ हो रही बातचीत धीरे धीरे आगे बढ़ रही थी। लगभग तेरह महीनों के इन्तज़ार के बाद हुई इस प्रत्यक्ष मुलाक़ात में, वे हिटलर के साथ जो कुछ बात कर रहे थे, उन सभी मुद्दों में उनका पाला निराशा से ही पड़ रहा था। फिलहाल रुसी मुहिम में व्यस्त रहनेवाले हिटलर की प्रथमिकता (‘प्रायॉरिटी’) ‘भारत और भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम’ यह नहीं है, यह बात सुभाषबाबू की समझ में आ चुकी थी। हालाँकि उनकी योजनाओं में दरअसल हिटलर ने ‘आउट ऑफ द वे’ जाकर उनकी काफ़ी सहायता की है ऐसा दृश्य दिखायी दे रहा था, लेकिन जब प्रत्यक्ष कृति करने का वक़्त आ गया था, तब टालमटोल करने का हिटलर का रुझान साफ़ साफ़ दिखायी दे रहा था। हो सकता है कि शायद हिटलर की दृष्टि से वह वास्तविकता के एहसास से किया गया फ़ैसला था, लेकिन उससे सुभाषबाबू की योजनाओं पर पानी फेर गया था, यह बात भी उतनी ही सच थी; और इसीलिए उनका मन अब धधक रहे पूर्वीय मोरचे की ओर आकर्षित हो रहा था। लेकिन इतनी सहायता करने के बाद जर्मनी छोड़कर जापान जाने का मेरा निर्णय हिटलर को कहाँ तक रास आयेगा, यह आशंका सुभाषबाबू के मन में थी।

इस समस्या का समाधान मानो भगवान ने ही कर दिया और हिटलर के मुँह से ही ‘वह’ प्रस्ताव उन्हें सुनायी दिया – ‘….इसके बजाय आप भौगोलिक दृष्टि से भारत के क़रीब रहनेवाले जापान में जाकर अगली कोशिशें क्यों नहीं करते?’

हिटलर के मुँह से इस प्रस्ताव को सुनते ही सुभाषबाबू को इस मुलाक़ात के दौरान पहली ही बार कुछ तसल्ली हुई।

सुभाषबाबू को जापान ले आने के लिए रासबाबू द्वारा जो अथक कोशिशें चल रही थीं, उसमें क़ामयाबी मिलकर जापानी सरकार के द्वारा उस अर्थ का प्रस्ताव भी हिटलर के पास भेजा गया था। साथ ही सुभाषबाबू के रोम दौरे में जैसा कि मुसोलिनी ने उनसे वादा किया था, उसके अनुसार उसने भी, सुभाषबाबू को जापान भेजने की दृष्टि से हिटलर को सलाह दी थी। इन सबके परिणामस्वरूप हिटलर द्वारा यह प्रस्ताव रखा गया।

उसके बाद संभाषण की गाड़ी, यदि सुभाषबाबू जापान जाने का तय कर लेते हैं, तो उन्हें कैसे जाना चाहिए, इस पटरी पर आ गयी। तब सुभाषबाबू ने हिटलर से, मुसोलिनी द्वारा उन्हें दिये गये आश्‍वासन के बारे में कहा – ‘ज़रूरत आ पड़ने पर हम हमारे हवाईदल के साहसी वैमानिक आपकी सेवा में देकर आपको ठेंठ रोम से रंगून पहुँचाने की व्यवस्था करेंगे।’

तब हिटलर ने फ़ौरन वहीं पर सुभाषबाबू को इस योजना में रहनेवाले ख़तरों से सचेत करके इस विकल्प को नामंज़ूर कर दिया – ‘महोदय, आपका जीवन हमारे लिए एवं समग्र रूप में आपके कार्य के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इटाली पर भरोसा करके उसे इस तरह ज़ोखम में मत डालिए। हालाँकि यह सच है कि हाल ही में इटाली के एक वैमानिक ने रोम से ठेंठ रंगून तक का हवाई सफ़र सफलतापूर्वक पूर्ण किया है, मग़र तब भी इस रास्ते में कई ब्रिटन-नियंत्रित देश भी हैं। कभी भी कुछ भी हो सकता है। इसलिए हवाई मार्ग को न चुनें, तो ही बेहतर है। साथ ही, सद्यःकालीन विस्फोटक युद्धपरिस्थितियों में सागरी यात्रा करना यह विकल्प भी भरोसेमन्द नहीं है।’ हिटलर के प्रत्येक वाक्य के साथ सुभाषबाबू की मायूसी बढ़ रही थी। हिटलर बात कर ही रहा था – ‘….इसलिए मेरी राय में जर्मन या जापानी पनडुबी से जाने का विकल्प ही बेहतर रहेगा। यदि आपकी ‘हाँ’ हो तो इस मामले में जापान के साथ बातचीत करके इस योजना को अंजाम दिया जा सकता है। हालाँकि यह विकल्प भी ख़तरे से खाली नहीं है। इस सागरी मार्ग में अँग्रेज़ों के जहाज़ लगातार गश्त लगाते रहते हैं, कई जगह उन्होंने बारुद भी लगा रखे हैं; और सबसे अहम बात यह है कि इस सफ़र के लिए कम से कम दो महीनों का वक़्त लग सकता है, इस बात पर भी आपको ग़ौर करना चाहिए।’

जर्मनी में ऊब चुके सुभाषबाबू के मन में जापान जाने के अलावा और कोई भी विचार नहीं था। उन्होंने फ़ौरन वहीं पर हिटलर को ‘हाँ’ कर दी।

मीटिंग में अब बातचीत करने का कोई मुद्दा ही न रहने के मीटिंग ख़त्म हो गयी। सुभाषबाबू के साथ काफ़ी देर तक हस्तान्दोलन करते हुए, उनके अगले कार्य के लिए शुभकामना देकर हिटलर ने उन्हें बिदा कर दिया।

आगे चलकर ऐतिहासिक मानी गयी, हिटलर के साथ हुई उनकी इस मीटिंग में हालाँकि बाक़ी सभी दृष्टि से सुभाषबाबू के लिए कुछ ख़ास लाभदायक नतीजें हाथ में न भी आये हों, मग़र तब भी इन आख़िरी चन्द मिनटों में जो वे चाहते थे, वही हुआ था और इसीलिए उनके नज़रिये से यह मीटिंग पूरी तरह क़ामयाब हुई थी और गत तेरह महीनों से आशा-निराशा के बीच जूझ रहे सुभाषबाबू के मन में आशा का नया सवेरा जाग उठा था।

अब वे प्रतीक्षा कर रहे थे, जापान से पनडुबी की व्यवस्था कब की जा रही है इसकी।

इसी दौरान, १५ जून १९४२ को बँकॉक में एक नौं-दिवसीय परिषद का आयोजन किया गया था। इससे पहले २८-३० मार्च इस दौरान टोकियो में हुई परिषद में भारतीय स्वतन्त्रता के लिए प्रयास करनेवाली ‘इंडियन इंडिपेन्डन्स लीग’ (आयआयएल) की स्थापना करने का तथा विभिन्न एशियाई देशों में उसकी शाखाएँ कार्यान्वित करने का प्रस्ताव पारित हुआ था, उसे अब मूर्त स्वरूप प्राप्त हो चुका था और बँकॉक की इस परिषद में ‘आयआयएल’ की सभी एशियाई देशों की शाखाओं के कुल मिलाकर डेढ़सौ से भी अधिक प्रतिनिधि उपस्थित थे।

इस परिषद में ‘आयआयएल’ के उद्देश्य घोषित किये गये, जिसमें भारत की आज़ादी के लिए सभी स्तरों पर से कोशिशें करते रहना, यह एक प्रमुख उद्देश्य था। रासबिहारी बोस ये ‘आयआयएल’ की सर्वोच्च ‘कृतिसमिति’ के अध्यक्ष रहेंगे और सिंगापूर यह ‘आयआयएल’ का मुख्यालय रहेगा, यह प्रस्ताव भी पारित किया गया। साथ ही, नूतन प्रस्तावित ‘इंडियन नॅशनल आर्मी’ यह ‘आयआयएल’ का फ़ौजी विभाग रहेगा और कॅप्टन मोहनसिंग उसकी अगुआई करेंगे, यह भी तय किया गया। इस परिषद को जापानी प्रधानमन्त्री से लेकर कइयों ने शुभेच्छा सन्देश भेजे थे। इस परिषद में सुभाषबाबू के सन्देश को भी पढ़कर सुनाया गया, जिसमें उन्होंने ‘भारत का आज़ाद होना यह ब्रिटीश साम्राज्यवाद की जड़ पर किया गया प्रहार साबित होगा’ यह विश्‍वास व्यक्त किया था।

मैं अब बढ़ती उम्र के साथ थक गया हूँ, यह एहसास रासबाबू को था और साथ ही फ़ौजी उपक्रम को स्वतन्त्र रूप में सँभालने के लिए कॅप्टन मोहनसिंग का व्यक्तित्व सक्षम नहीं है, यह एहसास भी ‘आयआयएल’ के सदस्यों को था और इसीलिए इस परिषद के अन्तिम दिन में ‘सुभाषबाबू पूर्वीय एशिया आकर भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के लिए यहाँ से की जा रहीं कोशिशों की अगुआई करें’ यह प्रस्ताव सर्वसंमति से पारित किया गया और उस दिशा में कोशिश करने की गुज़ारिश जापान सरकार से की गयी।

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