नेताजी- १७७

वहाँ जर्मनी में भारतीय मुक्तिसेना बनाने की सुभाषबाबू की कोशिशों को क़ामयाबी मिल रही थी और जापान में भी इसी तरह की कोशिशें चल रही हैं, यह जानने के बाद उनका हौसला बुलन्द हो गया था। इसी दौरान सुभाषबाबू के साथ हुई मुलाक़ात के बाद जापानी राजदूत ने उनके बारे में स्वयं की अनुकूल राय जापान सरकार तक पहुँचाने से और राशबाबू जैसे देशभक्तों की कड़ी मेहनत से जापान सरकार अधिकृत रूप में भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम को अपना समर्थन देने के लिए तैयार है, यह ख़बर भी सुभाषबाबू को मिली। लेकिन उस समय अक्षराष्ट्र – जर्मनी, इटली और जापान एक-दूसरे के साथ किये हुए समझौते के कारण एक होकर युद्ध लड़ रहे थे और इसीलिए इस तरह की किसी भी प्रकार की घोषणा इन तीनों के द्वारा एकत्रित रूप में की जाना आवश्यक जाना।

जापान से यह अनुकूल ख़बर मिलते ही सुभाषबाबू ने हिटलर से मुलाक़ात करने की कोशिश करने का तय किया। लेकिन इससे पहले रोम जाकर मुसोलिनी से प्रत्यक्ष मिलकर उसका समर्थन प्राप्त करके उसके बाद ही, अपनी भूमिका को रहनेवाला जापान और इटाली का सबल समर्थन लेकर ही हिटलर से मिला जाये, यह उन्होंने तय किया। उसके अनुसार १९४२ के मई की शुरुआत में मुसोलिनी से मिलने की बात निश्चित हुई। पिछली द़फ़ा जर्मन विदेश मन्त्रालय द्वारा अड़ंगा डाला जाने के कारण मुसोलिनी उनसे नहीं मिला था और इसीलिए उन्हें इटाली के विदेश मन्त्री से – मुसोलिनी के दामाद काऊंट सियानो से मिलने पर ही सन्तोष मानना पड़ गया था। लेकिन अब मुसोलिनी ने खुद मिलने का वादा करने के बाद वे बड़े उत्साह के साथ इस मीटिंग की पूर्वतयारी करने में जुट गये।

इसी दौरान उनकी खुशी को दुगुना कर देनेवाली एक ख़बर उन्हें मिली –

….उनके घर अब एक नन्हें मेहमान का आगमन होनेवाला था।
….एमिली अब माँ बननेवाली थी।

इस मीठी ख़बर को सुनते ही एमिली के लिए क्या करूँ और क्या नहीं, ऐसा उन्हें हो गया। अब तक स्वतन्त्रतासंग्राम की ख़ातिर अपनाये हुए वीरान जीवन की गिऱफ़्त में दब चुका, उनके मन का यह नाज़ूक पहलू इस ख़बर को सुनते ही रोशन हो उठा था। भारतमाता को आज़ाद करने के लिए जंग लड़ना इस सर्वोच्च आत्मीयता की बात के अलावा, यदि उनके मशक्कतपरस्त जीवन में दो पल के विश्राम का कोई हक़ का सहारा था, तो वह था एमिली का प्यार। एमिली भी अपने असामान्य पति के गगनस्पर्शी व्यक्तित्व को भली-भाँति जानती थीं और उन्होंने भी ‘उस विशाल पहाड़ को मज़बूत सहारा देनेवाली तलहटी’ की अपनी भूमिका को स्वयं ही स्वीकार किया था। स्वतन्त्रतासंग्राम के लिए युरोप में रहकर की गयीं कोशिशों में कई बार दुख के, ग़ुस्से के, अपेक्षाभंग के अनुभवों की आँच सुभाषबाबू को लग जाती थी। ऐसे वक़्त वे दिल खोलकर अपनी घुटन एमिली के पास ही ज़ाहिर करते थे। ‘मातृभूमि की स्वतन्त्रता’ के मामले में मेरे पति कितने संवेदनशील एवं दृढ़ हैं, यह बात वे जानती थीं। इतना ही नहीं, बल्कि उनके जीवन में मेरा नंबर इस ध्येय के बाद का ही है, यह भी एमिली को भली-भाँति ज्ञात था। भूख-प्यास, दिन-रात सबकुछ भूलकर स्वतन्त्रतासंग्राम में कूद पड़े सुभाषबाबू की जीवनसंगिनी बनना यह आग के साथ खेलना है, इस वास्तव को स्वीकार करके ही उन्होंने सुभाषबाबू से शादी करने का फ़ैसला किया था। इसीलिए आनेवाले नये नन्हें मेहमान के आगमन से वे भी फ़ूले नहीं समा रही थीं और उस मेहमान के स्वागत की तैयारियाँ करने में, उसके सपने देखने में और उसके भविष्य की योजनाएँ बनाने में उनका ख़ाली वक़्त बीत रहा था।

सुभाषबाबू अब फ़ूल की तरह उनका ध्यान रख रहे थे। उन्होंने खाना खाया कि नहीं, वे सोयीं कि नहीं, उन्होंने वॉक लिया कि नहीं, दवाइयाँ लीं कि नहीं, इस तरह के कईसवाल पूछकर वे उनका ख़याल रखते थे। सुभाषबाबू के मन का अबतक दिखायी न दिया हुआ यह हिस्सा भी एमिली के मन को भा गया था।

इस नयी ख़बर के कौतुक में सुभाषबाबू इतने गुम हो गये थे कि उन्हें स्वयं ही खुद को बार बार कोशिशपूर्वक वास्तव में ले आना पड़ता था। एमिली से पलभर की दूरी भी उनसे बर्दाश्त नहीं होती थी; और इसीलिए मुसोलिनी से मिलने के लिए रोम जाने की योजना भी कुछ दिनों के लिए स्थगित क्यों न की जाये, ऐसा भी वे सोच रहे थे। लेकिन आख़िर अपने ध्येय से बन्धे सुभाषबाबू के मन पर उनका ध्येय ही हावी हो गया। उनके कार्य के महत्त्व को जाननेवालीं एमिली ने भी उन्हें समझाया और वे रोम के लिए रवाना हुए।

रोम में ५ मई को मुसोलिनी के साथ उनकी मीटिंग तय हुई थी। कुछ वर्ष पूर्व के उनके युरोप के वास्तव्य में भी जब वे रोम गये थे, तब मुसोलिनी ने उनकी अच्छी-ख़ासी ख़ातिरदारी की थी। लेकिन गत वर्ष के रोम दौरे में मुसोलिनी से मिला हुआ ठंडा प्रतिसाद निराश करनेवाला था। इसलिए अब इस बार वह कैसा प्रतिसाद देगा, इस साशंकता में ही सुभाषबाबू ने रोम में कदम रखा।

सुभाषबाबू का सिरदर्द बढ़ानेवाली एक बात यह भी थी कि इक्बाल सिदेई का रोम प्रशासन में हस्तक्षेप बढ़ रहा था और उसीके ज़रिये वह कई तरह की साज़िशें भी रच रहा था। सुभाषबाबू के ‘इंडियन लीजन’ को मिल रही कामयाबी को देखकर उसने भी रोम में इसी तरह के एक केन्द्र की स्थापना की थी और उसमें लगभग तीनसौ भारतीय युद्धबन्दी भी शामिल हो चुके थे। सुभाषबाबू के कार्य की संरचना में नंबियारजी को मिलनेवाला दूसरे नंबर का स्थान भी सिदेई को खटक रहा था, क्योकी उस पद को वह खुद भी यही हासिल करना चाहता था। साथ ही, उन दोनों के बीच में ‘अखण्ड भारत’ के मुद्दे पर सहमति नहीं हुई थी। इन सब बातों की जानकारी सुभाषबाबू ने मुसोलिनी को इस मीटिंग में दी। उन दोनों के बीच के मनमुटाव के बारे में मुसोलिनी भी जानता था। लेकिन सिदेई ने रोम प्रशासन में अपनी एक ऐसी जगह बना ली है कि जहाँ से उसे फ़ौरन हटाना मुमक़िन नहीं है, यह भी मुसोलिनी ने सुभाषबाबू को बताया।

‘भारतीय स्वतन्त्रता’ के मुद्दे पर इटाली का आपको समर्थन है, यह मुसोलिनी ने सुभाषबाबू से कहा। सुभाषबाबू ने फ़िर जापान से मिले हुए समर्थन के बारे में भी उसे बताया और अब त्रिपक्षीय घोषणा करने के मामले में हिटलर से बातचीत करने के लिए भी उसे कहा। तब मुसोलिनी ने जर्मनी-भारत के बीच की भौगोलिक दूरी को जानकर, वहाँ से कोशिशें करने के बजाय सुभाषबाबू के लिए तौलनिक दृष्टि से भारत के पास रहनेवाले जापान में जाकर कोशिशें करना मुनासिब होगा, यह सुझाव दिया। मैं इस बारे में भी हिटलर से बात करूँगा, यह आश्‍वासन भी मुसोलिनी ने उन्हें दिया।

वह मानो सुभाषबाबू के मन की ही बात कह रहा था!

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