नेताजी-१७६

दूसरे विश्‍वयुद्ध के अतिपूर्वीय मोरचे पर सब जगह जापानी सेना की पकड़ मज़बूत होती जा रही थी और अँग्रेज़ी सेना पीछे हट रही थी। जगह जगह से जापानी सेना द्वारा गिऱफ़्तार किये गये ब्रिटीश फ़ौज के भारतीय युद्धबन्दियों को भारतीय मुक्तिसेना में से लड़ने के लिए कॅप्टन मोहनसिंग के हवाले किया जा रहा था। बँकॉक को मोहनसिंग का मुख्यालय बनाया गया था।

Netaji Shubhash Chandra Bose

यह सारा काम सुसूत्रतापूर्वक चलें, इस उद्देश्य से मलाया और बर्मा स्थित भारतीयों की एक बैठक ९-१० मार्च १९४२ को बँकॉक में हुई। इस बैठक में राशबाबू उपस्थित थे। इसके बाद यह कार्य महज़ भारतीय मुक्तिसेना तक सीमित न रहते हुए अधिक व्यापकता से सुसूत्रतापूर्वक चलता रहे, इस उद्देश्य से राशबाबू ने अतिपूर्वीय देशों के भारतीयों की एक परिषद का आयोजन २८-३० मार्च तक टोकियो में किया। बँकॉक से कॅप्टन मोहनसिंग और उनके कुछ सहकर्मियों को भी इस परिषद में आमन्त्रित किया गया था। बँकॉक से टोकियो जा रहे दो हवाई जहाज़ों में से एक हवाई जहाज़ क्षतिग्रस्त हो गया और उसमें मोहनसिंग के कॅप्टन अक्रम आदि कुछ सहकर्मी भगवान को प्यारे हो गये। उनके शहीद होने के शोक की छाया परिषद पर अवश्य छायी हुई थी। इस परिषद में, इस कार्य को सुसूत्रतापूर्वक चलाने के लिए ‘इंडियन इंडिपेंडन्स लीग’ (‘आयआयएल’) की स्थापना की जानी चाहिए, यह तय किया गया और उस लीग के अध्यक्ष के रूप में सर्वसम्मति से राशबाबू को चुना गया। उसी के अन्तर्गत राशबाबू की अध्यक्षता में एक कृतिसमिति (‘कौन्सिल ऑफ़ अ‍ॅक्शन’) का गठन किया गया। कॅप्टन मोहनसिंग की देखरेख में संगठित हो रही भारतीय मुक्तिसेना का नामकरण ‘इंडियन नॅशनल आर्मी’ (‘आयएनए’) किया गया और वह ‘आयआयएल’ की फ़ौजी शाखा होकर, ‘आयआयएल’ के अधिकार में – ‘कौन्सिल ऑफ़ अ‍ॅक्शन’ के आदेशों के अनुसार अपना काम करेगी, यह प्रस्ताव भी पारित किया गया। इस फ़ौजी कार्रवाई के लिए आवश्यकता के अनुसार जापानी सेना की सहायता लेने की बात भी तय की गयी। लेकिन एक बार जब भारत आज़ाद हो जायेगा, तो उसके बाद के संवैधानिक पहलुओं को भारत के जनप्रतिनिधि ही तय करेंगे, यह भी इसमें स्पष्ट किया गया था।

इस परिषद के लिए बँकॉक से रवाना हुए हवाई जहाज़ का दुर्घटनाग्रस्त हो जाना, इस बात का बतंगड़ बनाकर अँग्रेज़ सरकार ने २३ मार्च को इस दुर्घटना की ख़बर, प्रसारमाध्यमों द्वारा प्रसारित करते हुए – ‘बँकॉक से टोकियो जा रहे हवाई जहाज़ को हुई दुर्घटना में सुभाषचन्द्र बोस की मौत हो गयी’ यह वाहियात ख़बर दे दी। देशभर में मातम छा गया। सुभाषबाबू के परिजनों पर, ख़ास कर पहले से ही उनके घर से इस तरह अचानक ग़ायब हो जाने के कारण भीतर से टूट चुकी उनकी बुजुर्ग़ माँ पर दुख का पहाड़ ही टूट पड़ा। अब तक जिसका सहवास बहुत ही कम प्राप्त हुआ था, वह प्यारा बेटा क्या अब मुझे कभी नहीं मिलेगा? इस सोच से उनके आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। देशभर से सांत्वना संदेश लगातार आ रहे थे।

२५ मार्च को इस बात की ख़बर लगते ही सुभाषबाबू चीढ़कर ‘आझाद हिन्द रेडिओ’ केंद्र गये और उन्होंने ‘मैं बर्लिन में ठीकठाक हूँ और मेरे मरने की ख़बर देने के पीछे अँग्रेज़ सरकार की कुटिलता है और देशभर में अ़फ़रात़फ़री का माहौल बनाने के लिए रची गयी यह उनकी साज़िश है’ यह अपने भाषण में कहा। साथ ही, मैं भारतीय मुक्तिसेना बनानी की कोशिशों में जुटा हूँ और शीघ्र ही भारत की सीमा पर अँग्रेज़ी फ़ौज के साथ आरपार की लड़ाई लड़ने आ रहा हूँ, यह जानकारी भी उन्होंने उस समय दी। २३ मार्च को चर्चिल का ख़ास दूत स्ट्रॅफ़ोर्ड क्रिप्स भारत आ चुका है। उसके द्वारा लायी गयी योजना में ‘कालविपर्यास’ यही अन्तःस्थ हेतु है और इसीलिए उसके बहकावे में न आकर भारतीय इस योजना को ठुकरा दें, यह भी उन्होंने इस समय ज़ोर देकर कहा।

वहाँ दरअसल दिसम्बर १९४१ में जापान के महायुद्ध में प्रवेश करने के पहले से ही राशबाबू ने सुभाषबाबू को एशिया लाने के लिए, जापान सरकार स्थित अपनी संपर्कयन्त्रणा के ज़रिये कोशिशें शुरू कर दी थीं। लेकिन सुभाषबाबू की अगली योजना के बारे में कोई नहीं जानता था। इसलिए उस बारे में जानकारी हासिल करने के लिए जर्मनी स्थित जापान के राजदूत ओशिमा और फ़ौजी अ‍ॅटॅची यामामोटो ने अक्तूबर १९४१ में ही जर्मन विदेश मन्त्रालय के माध्यम से सुभाषबाबू से मुलाक़ात की; लेकिन सुभाषबाबू जैसे, अपने इरादों पर अड़िग रहनेवाले व्यक्ति राशबिहारीजी के अधिकार में काम करने में भला कितनी दिलचस्पी दिखायेंगे, इस बारे में सन्देह रहने के कारण, हम किस वजह से मिल रहे हैं इस बात को उन्होंने ज़ाहिर नहीं किया। बस, भारतीय मुक्तिसेना बनाने की जर्मनी में चल रहीं सुभाषबाबू की कोशिशें कहाँ तक क़ामयाब हुई हैं, इत्यादि फ़ुटकर बातचीत ही जापानी प्रतिनिधियों ने इस मुलाक़ात में की। लेकिन इन्सानों की परख करने में माहिर रहनेवाले सुभाषबाबू यह भली-भाँति जानते थे कि ये लोग महज़ मेरा हालचाल पूछने यहाँ तक अपना काम छोड़कर नहीं आये हैं। साथ ही, राशबाबू के नेतृत्व में एशिया में चल रही कोशिशों के बारे में भी वे जानते थे। इसलिए उन्होंने ही जानबूझकर इस बारे में बात छेड़ दी और बातों बातों में, ‘मैं भी एशिया आने के लिए उत्सुक हूँ और राशबाबू के नेतृत्व में काम करने में मुझे कोई हर्ज़ नहीं है’ यह भी सा़फ़ सा़फ़ कह दिया। अब जापानी शिष्टमंडल के मन का बोझ भी हलका हो गया और उन्होंने एशिया आने में सुभाषबाबू को कोई ऐतराज़ नहीं है, यह सन्देश टोकियो भेज दिया और उन्हें एशिया लाने के मामले में हिटलर से बातचीत करने के लिए भी कहा। आगे चलकर सुभाषबाबू की ओशिमा के साथ कई मुलाक़ातें हुईं और उन्हीं के ज़रिये सुभाषबाबू को पूर्वीय ‘इंडियन नॅशनल आर्मी’ के बारे में पता चलने के बाद तो उन्हें ऐसा लगने लगा कि कब मैं जापान पहुँचता हूँ।

दरअसल जिस तरह पूर्वी एशिया में युद्ध भड़क उठा था, उसी तरह युरोप और उत्तरी अफ़्रिका में भी जंग का माहौल चरमसीमा पर था। लेकिन पूर्वी एशिया के युद्ध के हालात भारत की आज़ादी के ध्येय तक जल्द से जल्द पहुँचने की दृष्टि से पोषक थे, क्योंकि भारत से वह दूरी जर्मनी की अपेक्षा यक़ीनन ही कम थी और किसी बड़ी फ़ौज को भारत तक ले जाने की दृष्टि से यह सुविधाजनक भी था। अत एव, जर्मनी द्वारा सभी प्रकार की सहायता दी जाने के बावजूद भी, किसी विदेशी राजदूत की तरह आलीशान बंगला, नौकरचाकर आदि उनकी सेवा में रहने के बावजूद भी उनके मन में पूर्वी एशिया में कदम रखने की आस थी। दूसरी वजह यह भी थी कि जर्मनी से उन्हें ये सभी सुविधाएँ उपलब्ध तो अवश्य करायी गयी थीं और यह सब उस समय जर्मनी का सर्वेसर्वा रहनेवाले हिटलर की अनुमति से ही हुआ था। लेकिन इतना होने के बावजूद भी हिटलर ना तो उनसे खुद मिलने के लिए तैयार था और ना ही भारत की आज़ादी को जर्मनी ज्ञश समर्थन रहने की अधिकृत घोषणा कर रहा था और यही बात उन्हें खटक रही थी।

एशिया जाने का फ़ैसला करने से पहले उन्होंने पुनः एक बार हिटलर से मिलने की दृष्टि से ज़ोरदार कोशिशें करने का तय कर लिया।

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