नेताजी-१७३

सुभाषबाबू यहाँ बर्लिन में ‘आज़ाद हिन्द सेना’ की भर्ती के लिए दिलोजान से कोशिशें कर रहे थे और वहाँ महायुद्ध के अतिपूर्वीय नये मोरचे पर मानो उनकी भावी कृतियोजना को फ़लित बनाने के लिए ज़मीन ही जोती जा रही थी! ७ दिसम्बर १९४१ को अमरीका के पर्ल हार्बर स्थित शक्तिशाली नौसेना अड्डे को जापान ने बमबारी करके टहसनहस कर दिया और दूसरे ही दिन स्वयं के युद्ध में उतरने की अधिकृत घोषणा भी कर दी। अमरीका ने भी इस घटना के कारण जापान के खिला़फ़ युद्ध घोषित कर दिया।

इस घटना के बाद ह़फ़्तेभर में ही जापान ने ब्रिटन की ‘प्रिन्स ऑफ़ वेल्स’ तथा ‘रीपल्स’ इन दो अतिशक्तिशाली महाकाय युद्धनौकाओं को पॅसिफ़िक महासागर में जलसमाधि दे दी। लेकिन अतिपूर्वीय मोरचे के युद्ध के हालातों का अन्देसा ठीक से न रहनेवाला ब्रिटन अब भी जापान को ‘किस झाड़ की पत्ती’ के समान मान रहा था और ‘सिंगापूर’ स्थित अपने अड्डे को अभेद्य मानकर इतरा रहा था। वहाँ का स्थानीय नेतृत्व भी, अपनी नाक़ामयाबी को छिपाने के लिए तथा वरिष्ठों की नाराज़गी से बचने के लिए ‘सबकुछ आलबेल है’ इसी आशय के सन्देश लन्दन भेज रहा था। लेकिन वहाँ थायलंड, मलाया, हाँगकाँग सभी जगह जापानी सेना लगातार आगे बढ़ रही थी।

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एक तो, इस इला़के की गर्म-नमींयुक्त आबोहवा के साथ तालमेल बिठाने में ब्रिटीश सेना को का़फ़ी दिक्कत पेश आ रही थी। साथ ही, अँग्रेज़ी फ़ौज को वहाँ की कीचड़भरी ज़मीन पर युद्ध करने का अभ्यास न होने के कारण, जापानी सेना ने उनके छक्के छुड़ा दिये थे और एक के बाद एक करके वहाँ के शहरों पर जापानी अपना कब्ज़ा जमाते जा रहे थे। जापानी फ़ौज की हमले की पद्धति भी सुनिश्चित थी। बड़ी तेज़ी से जापान के ‘झीरो’ वर्ग के लड़ाकू विमान आते थे, रेल-हवाई अड्डे आदि यातायात की सुविधाओं पर धुँवाधार बमबारी करके घण्टे-दो घण्टों में ही उन्हें टहसनहस कर देते थे। चन्द घण्टेभर पहले ही सबकुछ ठीकठाक प्रतीत हो रहा था कि यक़ायक़ चारों ओर से आगजली की घटनाएँ, उखड़ी हुई रेल की पटरियाँ, हवाई अड्डों पर स्थित हवाई जहाज़ों की जलती हुई इन्धन की टँकियाँ यह दृश्य दिखायी देने लगता था। इन हवाई हमलों ने तो अँग्रेज़ फ़ौज की नींद ही उड़ा दी थी। इन हवाई हमलों के आसार दिखायी देने पर मानो जैसे यमदूत ही आ रहे हैं, ऐसा उन्हें प्रतीत होता था।
मलाया स्थित ‘पंजाब १/१४’ यह अँग्रेज़ी फ़ौज की, लेफ्टनंट कर्नल फ़िट्झपॅट्रिक के नेतृत्व में कार्यरत रहनेवाली एक रेजिमेंट जापानी हमले में से अपनी जान बचाकर एक रबर के खलिहान में पनाह लेकर छिपी हुई थी। अधिकतर सैनिक़ बुरी तरह घायल हो चुके थे लेकिन वहाँ के स्थानीय ब्रिटीश मुख्यालय से अगली कार्यवाही के सन्दर्भ में किसी भी प्रकार का ‘ऑर्डर’ न रहने के कारण, जहाँ हैं वहीं पर जान मुठ्ठी में पकड़कर रहने के अलावा उनके पास और कोई चारा नहीं था। ऐसी हालत में भी, ब्रिटीश हवाई दल हमारी सहायता करेगा यह आशा उनके मन में थी। लेकिन इस भयानक जापानी हवाई हमले का मुक़ाबला करने की ना तो तैयारी वहाँ के ब्रिटीश हवाईदल की थी और ना ही क्षमता। क्योंकि ‘सिंगापूर अड्डा अभेद्य होने की बात’ मानकर चलने से बाक़ी सभी जगह के संसाधन युरोप में जर्मन सेना से लड़ने के लिए ले जाये गये थे। हर बीते हुए दिन के साथ, मुख्यालय ने हमें बीच मँझधार में ही छोड़ दिया है, ऐसी भावना वहाँ के सैनिक़ों में, ख़ासकर भारतीय सैनिक़ों में दृढ़ होने लगी थी और उनके दिल में असन्तोष की चिंगारी भड़कने लगी थी। ‘हमें इस तरह लावारिस बनाकर छोड़नेवाली इस ब्रिटीश सेना के साथ भला हम क्यों व़फ़ादार रहें? और तो और, जान दाँव पर लगाने के बावजूद भी हमें हमेशा ही अँग्रेज़ अ़फ़सरों से नीचे का ही दर्जा दिया जायेगा, है ना?’ यह सवाल उस रेजिमेंट के मेजर मोहनसिंग, अक्रमखान आदि के मन में उठ रहे थे।

उतने में वह जापानी बवंड़र वहाँ पर आ ही गया! दो-तीन बार जापानी वायुदल ने उस इला़के को बमबारी से भुन डालने के बाद ही इस इला़के में अपनी सेना को उतारा था। जंगली इला़के के युद्ध का विशेष प्रशिक्षण दिये गये जापानी सैनिक़ उस दलदलभरी ज़मीन पर बड़ी सहजता से विचरण करते हुए दिखायी दे रहे थे। इस जंगल-युद्घ प्रशिक्षण में उन्हें शस्त्र-अस्त्रों के साथ ही बिलकुल रसोई के बर्तनों के साथ सभी सामग्री को पीठ पर से ले जाने का प्रशिक्षण भी दिया गया था और अत एव जापानी सैनिक उस जंगल में भी बड़ी फ़ुरती के साथ विचरण कर रहे थे।

आख़िर जापानी सैनिक़ों ने इस रेजिमेंट को घेर ही लिया। अन्य कोई विकल्प न बचने के कारण इस रेजिमेंट ने जापानी सेना के सामने घुटनें टेक दिये।

लेकिन उस शरणागति के प्रसंग में भी एक चमत्कारिक घटना घटित हुई। मोहनसिंग के ‘हुलिये से’ वे ‘भारतीय’ होंगे, यह अँदाज़ा जापानी सैनिक़ों ने किया और उनके प्रमुख द्वारा इस बात का इतमीनान किया जाने के बाद उनके बर्ताव में ‘नर्मदिली’ दिखायी देने लगी। मोहनसिंग और उसके साथी इस बदलाव से चौंक गये। पहले ही अँग्रेज़ सेना-अ़फ़सरों ने उनके मन में – ‘जापानी सेना उनके कब्ज़े में आये हुए दुश्मन सैनिक़ों पर अमानुष अत्याचार करके उन्हें मार डालती है’ यह दहशत फ़ैलायी थी। उस पार्श्‍वभूमि पर इस विरोधाभास का आकलन उन्हें नहीं हो रहा था। ले. कर्नल फ़िट्झपॅट्रिक आँखें फ़ाड़-फ़ाड़कर उस ‘दिलजमाई’ को देख रहा था।

लेकिन एकाद-दो जापानी सैनिक थोड़ीबहुत हिन्दी जानते थे। इससे यह ज्ञात हुआ कि वे जापानी उन युद्धबन्दियों में से केवल भारतीय युद्धबन्दियों के लिए दोस्ती का हाथ आगे बढ़ा रहे हैं….वे उन भारतीय सैनिकों को ‘युद्धबन्दी’ के नहीं, बल्कि ‘दोस्त’ के रूप में अपनाना चाहते हैं!

‘क्यों? कहीं यह जापानियों की नयी चाल तो नहीं है? अब मीठी बोली बोल रहे हैं और कल अँग्रेज़ों के साथ जंग लड़ने के लिए मोरचे पर भेज देंगे….उनका भला क्या भरोसा!’ यह विचार भी मोहनसिंग और अन्य सैनिकों के मन में आया था।

लेकिन आगे चलकर बातचीत में से हक़ीक़त समझ में आ गयी। ‘एशिया एशियाइयों के लिए’ इस संकल्पना को मूर्त स्वरूप देने की कोशिशें गत कुछ वर्षों से जापान में अपनी जड़ें मज़बूत बना रही थीं। इसी सिलसिले में भारतीय स्वतन्त्रतासेनानी, मलाया आदि देशों के क्रान्तिकारी संगठन इनके साथ जापानी सेना का संपर्क बना हुआ था। ख़ास इसी काम के लिए जापानी सेना ने सेना के अन्तर्गत ही मेजर फ़ुजिवारा के नेतृत्व में ‘एफ़. किकान’ नाम के एक गुप्त संगठन का निर्माण किया है यह जानकारी भी मोहनसिंग को मिली। साथ ही, सन १९१२ में तत्कालीन व्हाईसरॉय हार्डिंग्ज पर बम फ़ेंककर, पुलीस को चकमा देकर देश के बाहर निकलने में क़ामयाब रहे जिगरबाज़ स्वतन्त्रतासेनानी राशबिहारी बोस ने भी जापान में पनाह लेकर वहाँ पर अपनी गुप्त संपर्कयन्त्रणा बना ली थी और उन्हीं के ज़रिये ‘एफ़. किकान’ भारतीय स्वतन्त्रतासैनिकों के सम्पर्क में थी, यह जानकारी भी मोहनसिंग को मिली और वे खुश हो गये।

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