नेताजी- १७१

अ‍ॅनाबर्ग शिविर के युद्धबन्दियों के सामने सुभाषबाबू द्वारा इतनी तड़प के साथ ‘आज़ाद हिन्द सेना’ की संकल्पना सुस्पष्ट करने के बावजूद भी युद्धबन्दियों से मिला प्रतिसाद तो ठण्डा ही था। लेकिन ‘ज़िद’ (‘नेव्हर से डाय स्पिरिट’) इस शब्द की साक्षात् मूर्ति ही रहनेवाले सुभाषबाबू हार न मानते हुए अपने ध्येय के साथ अटल रहकर कोशिशों में जुटे रहे। वहीं, सुभाषबाबू ने जिस भरोसे के साथ हमें यहाँ भेजा था, उसे सार्थक करने में हम असफ़ल रहे, यह बात अबिद और उनके सहकर्मियों के मन में चुभ रही थी। उन्होंने उसे बयान करके सुभाषबाबू से मा़फ़ी माँगी। लेकिन इसमें उनकी कोई भी ग़लती नहीं है, इस बात का सुभाषबाबू को एहसास था और इसीलिए उन्होंने प्यार से उन्हें समझाया कि ‘इसमें तुम्हारी या उन युद्धबन्दियों की कोई भी ग़लती नहीं है, बल्कि युद्धबन्दियों से मिला यह ठण्डा प्रतिसाद, पुरखों से चली आ रही ग़रीबी के कारण बनी ग़ुलामी मानसिकता में से, सेना में भर्ती कराते समय उन्हें दी हुई नमकहलाली की कसमों में से और साथ ही अँग्रेज़ सेना अ़फ़सरों द्वारा लगातार किये जा रहे उनके बुद्धिभेद में से उत्पन्न हुआ है। एक बार उनके मन में बुझी पड़ी हुई देशभक्ति की चिंगारी भड़क उठेगी, तब उसपर जमी हुई इस ग़ुलामी मानसिकता की परत पिघलने में देर नहीं लगेगी।’

….और इसी उद्देश्य से उन्होंने वहाँ का निवास काल बढ़ाते हुए फ़िर कोशिशें करने का तय किया। समूह के सामने भाषण करने से बेहतर है कि हर बराक़ में जाकर व्यक्तिगत स्तर पर सम्पर्क किया जाये और वे फ़ौरन ही उन कोशिशों में जुट गये।

रात को बराक़ों में अँग्रेज़ युद्धबन्दियों का भारतीयों का बुद्धिभेद करने का काम ज़ोरों से चल रहा था। दोपहर में जिसका भाषण आपने सुना, वह सुभाषबाबू का हमशकल ही है, इस बात पर उनके द्वारा की जा रही बहस को बर्दाश्त न करते हुए एक भारतीय जवान उठकर खड़ा हो गया और ग़ुस्से से उनपर चिल्लाने लगा कि वह कोई हमशकल नहीं, बल्कि स्वयं सुभाषबाबू ही हैं। मैंने खुद पहले उनका भाषण सुना है। उन्हे क़रीब से देखा है। वे ‘वे ही’ हैं।’

इन शब्दों को सुनते ही आसपास की बराक़ों का माहौल ही बदल गया। सुभाषबाबू के प्रति हर एक के मन में सम्मान की भावना थी। अपने पाशवी बल से भारत को ग़ुलामी की एड़ी के नीचे कुचलना चाहनेवाली अँग्रेज़ हुकूमत के खिला़फ़ सशस्त्र इन्क़िलाब करने की कोशिश सुभाषबाबू अकेले सिपाहसालार की तरह कर रहे हैं और एक हम हैं कि जिन्होंने हमारी मातृभूमि को ग़ुलामी की खाई में धकेल दिया, उनकी ही नौकरी करके उन्हीं के हाथ मज़बूत बना रहे हैं, यह एहसास पहली ही बार उन्हें हो रहा था।

वहीं, शिविर अधिकारी के घर ठहरे हुए सुभाषबाबू बेचैन थे। पहले से ही दिसम्बर की कड़ाके की ठण्ड परेशान कर रही थी। ७ जनवरी से ‘आज़ाद हिन्द रेडिओ’ का प्रसारण शुरू होनेवाला था, उसकी तैयारी का काम निबटाकर सुभाषबाबू यहाँ आये थे। इसी वजह से मन के एक खाने में उससे सम्बन्धित विचारचक्र चल रहा था। साथ ही, अ‍ॅनाबर्ग स्थित युद्धबन्दियों को ‘आज़ाद हिन्द सेना’ के महत्त्व को किस तरह समझाना चाहिए, इस बारे में भी वे सोच रहे थे। फ़िलहाल तो उन्होंने हर बराक़ में जाकर व्यक्तिगत रूप में युद्धबन्दियों के साथ विचारविमर्श करने का तय किया।

सुबह जब उन्होंने अपना काम शुरू किया, तब तक रात को उस भारतीय जवान द्वारा कहे गये – ‘ये सुभाषबाबू ही हैं’ इस सुनिश्चित कथन की ख़बर चारों तऱफ़ फ़ैल चुकी थी। उसका फ़ायदा यक़ीनन ही हुआ और लगभग सभी बरा़कें सुभाषबाबू का स्वागत करने फ़ूलों के और जहाँ फ़ूल न मिले, वहाँ पत्तों के हार लेकर तैयार थीं। वे जहाँ जहाँ जाते थे, वहाँ भारतमाता की, गांधीजी की और उनकी जयकार ही सुनायी देती थी। बुद्धिभेदियों का हुआँ अब कबका ख़त्म हो चुका था।

सुभाषबाबू एक के बाद एक करके बराकों में जाने लगे। उनका स्वागत ‘नेताजी’ के रूप में ही किया जा रहा था। सुभाषबाबू धीरे धीरे उनकी शंकाओं का निरसन कर रहे थे। हमारी भारतमाता पर अत्याचार करनेवाले अँग्रेज़ों की नमकहलाली करने का सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि दरअसल वह नमक हमारे ही देश में तैयार हुआ है यानि कि वह भारतमाता का ही है; अत एव हमारी देश के साथ ही व़फ़ादारी निभानी चाहिए, अँग्रेज़ों के साथ नहीं, यह उन्हें समझा रहे थे। सुभाषबाबू के प्रस्थान करने तक ८५ लोग तैयार हुए। हालाँकि १० हज़ार युद्धबन्दियों की अपेक्षा यह संख्या बहुत ही कम प्रतीत हो रही थी, मग़र फ़िर भी शुरुआत के तौर पर वह यक़ीनन अच्छी ही थी और बाक़ी के लोग भी धीरे धीरे उन्हीं का अनुकरण करनेवाले हैं, इसका सुभाषबाबू को यक़ीन था।

इस प्रकार से अ‍ॅनाबर्ग ‘काबीज़’ करके सुभाषबाबू लौट आये। इन युद्धबन्दियों को फ़्रॅंकेनबर्ग स्थित शिविर में फ़ौजी प्रशिक्षण के लिए भेजने का तय हुआ था। लेकिन किसी भी सेना के पीछे जब उस देश की जनता का भावनिक समर्थन रहता है और उसके होने का सेना को भरोसा रहता है, तब वह सेना देश की ह़िफ़ाज़त करने का अपना काम अधिक उत्साह के साथ करती है, यह सुभाषबाबू जानते थे। अत एव इस उपक्रम में हम अकेले नहीं है, बल्कि आम नागरी भारतीय भी हमारे साथ हैं, यह युद्धबन्दियों के मन पर अंकित करने के लिए सुभाषबाबू ने इन युद्धबन्दियों के साथ ही, बर्लिन में रहनेवाले भारतीयों में से सैनिक़ी प्रशिक्षण लेने के लिए कौन तैयार हैं, यह विचारणा की। वक़्त आने पर इस देशकार्य के लिए अपने उद्योग-व्यवसाय को त्यागकर सेना में भर्ती होने की तैयारी दिखाते हुए कुछ लोग फ़ौरन तैयार हो गये। फ़िर ये लोग और श्‍लिएफ़ेन-उफ़ेर स्थित शिविर के ५ युद्धबन्दी इस तरह लगभग १५ लोगों की पहली टुकड़ी को प्रारंभ में सैनिक़ी प्रशिक्षण के लिए फ़्रॅंकेनबर्ग भेजा गया। २५ दिसम्बर १९४१ को एक सादगीपूर्ण, लेकिन हृद्य समारोह में उन्हें बिदा भी किया गया। उसी दिन सुभाषबाबू ने इस भारतीय मुक्तिसेना का नामकरण अधिकृत रूप में ‘आज़ाद हिन्द सेना’ कर दिया।

पास में किसी भी संसाधन के न होते हुए भी, केवल आदिमाता चण्डिका की अटूट भक्ति, खुदपर रहनेवाला बुलन्द भरोसा और आँखों में, ग़ुलामी की ज़ंजिरों में जकड़ी हुई मातृभूमि को मुक्त करने का एक पवित्र ख्वाब….‘इतने ही’ बल पर अपनी राह चलनेवाले सुभाषबाबू का ख्वाब अब ‘ख्वाब’ न रहते हुए हक़ीक़त का रूप धारण करने लगा था।

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