नेताजी-१६३

रोम में भारतीय युद्धबन्दियों के साथ बातचीत करने की इजाज़त प्राप्त करना, इसके अलावा और कुछ भी सुभाषबाबू के हाथ नहीं लगा। इक्बाल सिदेई में उन्हें जो आशा की किरण नज़र आ रही थी, वह भी व्यर्थ ही साबित हुई। सिदेई सुभाषबाबू की बढ़ाई व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए कर रहा था। उसपर धुन सवार थी भारत के बँटवारे की – पाकिस्तान के निर्माण की; वहीं, सुभाषबाबू अखंड भारत के अलावा अन्य किसी भी विकल्प की कल्पना तक नहीं कर सकते थे। अत एव सुभाषबाबू मेरे किसी ख़ास क़ाम के नहीं हैं, यह उसकी समझ में आ गया। साथ ही, उसने गत कई वर्षों से इटालियन सरकार के विभिन्न शक्तिकेंद्रों में अपनी एक जगह बना ली थी और विदेश मन्त्रालय में तो उसका हररोज़ आनाजाना रहता था। सुभाषबाबू के रोम आने के बाद सरकारदरबार में उनके बढ़ते हुए महत्त्व को देखकर उसके मन में ‘ये कौन कहाँ से आ गये और मेरे बाद यहाँ आकर मुझसे भी आगे बढ़ गये’ यह भावना प्रबल होकर, उसका सुभाषद्वेष पनपने लगा था। उसके साथ हुईं एकाद-दो मुलाक़ातों में ही सुभाषबाबू ने, देशभक्ति से ओतप्रोत भाषण रेडिओ पर से देनेवाले सिदेई के असली चेहरे को, उसके ‘खाने के दाँतों’ को पहचान लिया। अत एव उन्होंने महज़ अपरिहार्यतावश ‘न्यूनतम साझा कार्यक्रम’ (‘कॉमन मिनिमम प्रोग्रॅम’) – यानि अँग्रेज़ों के ख़िला़ङ्ग प्रसारप्रचारकार्य और अक्षराष्ट्रों के कब्ज़े में आ चुकीं ब्रिटीश तथा मित्रराष्ट्रों (अ‍ॅलीज्) की सेनाओं के भारतीय युद्धबंदियों का उपयोग करके उनकी सेना बनाना, यहाँ तक ही सिदेई के साथ ताल्लुक़ात रखे थे।

‘खाने के दाँत और दिखाने के दाँत’ इनके बीच के फर्क़ को स्पष्ट करनेवाली एक और घटना इसी दौरान हुई। हिटलर रशिया पर धावा बोलने का गुप्त कारस्तान रच रहा है, यह हैरातंगेज़ ख़बर सुभाषबाबू को, कोलकाता के जापानी दूतावास में उनके द्वारा बनायी गयी गुप्त संपर्क यंत्रणा के द्वारा, बर्लिन स्थित जापानी दूतावास के ज़रिये प्राप्त हो चुकी थी। उसे सुनते ही सुभाषबाबू को खाई में गिरने जैसा ही महसूस हुआ। यदि ऐसा होता है, तो मेरे सारे मनसुबों पर पानी फेर जायेगा। जर्मनी-रशिया अनाक्रमण समझौता ही उनकी सारी योजना की बुनियाद थी और इस बुनियाद पर ही, रूसी भूमि का उपयोग करके भारतीय सीमा तक युद्ध़कैदियों की फौज लेकर आने की योजना उन्होंने बनायी थी। लेकिन अब सबकुछ बदलनेवाला था।

मग़र दुनिया को जीतनेवाले नेपोलियन को भी जहाँ पीछे हटना पड़ा था, उस कड़ाके की ठण्ड़ के प्रदेश में रूसी मुहिम को अंजाम देना बहुत ही मुश्किल है, इसे हिटलर भली-भाँति जानता था और इसी वजह से उस अवधि तक वह ब्रिटन के साथ समझौता करना चाहता था। समझौते के सन्दर्भ में चर्चिल के साथ बातचीत करने के लिए उसने अपने शुरुआती दौर से बहुत ही विश्‍वसनीय सहकर्मी रहनेवाले रुडॉल्ङ्ग हेस को गुप्त रूप से स्कॉटलंड के रास्ते इंग्लंड भेजा। लेकिन राजनीति में चर्चिल हिटलर से दो कदम आगे था। अब यदि हिटलर के इस समझौते के प्रस्ताव का स्वीकार किया, तो रशिया को निगलने के बाद यह नाझी भस्मासुर हम पर ही अपनी टेढ़ी नज़र डालेगा, यह वह भली-भाँति जानता था। इसी वजह से उसने उस प्रस्ताव को ठुकराने के साथ साथ, हिटलर की टाँगें उसके ही गले में डालने की दृष्टि से, हेस के इंग्लैड़ आने की ख़बर ज़ाहिर कर दी और उसकी तस्वीरें भी प्रसारमाध्यमों द्वारा प्रसारित कर दीं। आता हिटलर पेंच में पड़ गया था और उसने फौरन टोपी घुमाकर – ‘हेस मेरा बहुत ही विश्‍वसनीय सहकर्मी था, लेकिन युद्ध के तनाव के कारण उसका दिमाग़ ङ्गिर गया और मुझसे विश्‍वासघात करके वह दुश्मन से जा मिला’ यह निवेदन प्रकाशित किया।

रेडिओ पर फ्यूरर के उस मानभावी निवेदन को सुनकर सुभाषबाबू मन में बहुत ही दुखी हुए। दरअसल हिटलर ने ही हेस का विश्‍वासघात किया है, ऐसा सुभाषबाबू को लगा। हिटलर शायद राजनीति के ‘नियमों के अनुसार’ सही भी हो सकता है। लेकिन उसने अपने प्रिय दोस्त को रिहा करने की कोशिशें न करते हुए उसे बड़ी आसानी से भँवर में फँसने दिया, इस बात से सुभाषबाबू के मन को ठेंस पहुँची। हिटलर के प्रारंभिक संघर्षकाल में, जब बेक़ारी के कारण उसका मन निराशाग्रस्त हो जाता था, तब जिसके आश्‍वासक शब्दों से उसमें नवचेतना जागृत होती थी, ऐसे उस जानी दोस्त रुडॉल्फ हेस के प्रति हिटलर की यह एहसाऩफरामोशी देखकर सुभाषबाबू के मन में तो हिटलर तथा उसकी आसुरी सत्ताकांक्षी वृत्ति के प्रति घृणा उत्पन्न हुई। पहले डंकर्क में तीन लाख ब्रिटीश सैनिकों को जीवनदान देना, भारतीय स्वतन्त्रता को अक्षराष्ट्रों का समर्थन है यह घोषणा करने में जर्मनी द्वारा टालमटोल किया जाना और अब यह हेस के ज़रिये ब्रिटन भेजा गया समझौते का गुप्त प्रस्ताव….कहीं मैंने ‘ग़लत साथी’ (‘राँग कंपनी’) तो नहीं चुन लिया, यह विचार सुभाषबाबू के मन में फिलहाल बार बार उठ रहा था।

….मग़र चाहे जो भी हो, सुभाषबाबू के लिए – ‘भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के लिए विदेश से सहायता प्राप्त करना’ यह कार्य सर्वोच्च स्थान पर था और उसके लिए कितने भी समीकरणों को तोड़ने तथा नये समीकरणों को जोड़ने के लिए वे तैयार थे और उस समय के युद्धकालीन हालात को देखते हुए, ब्रिटन के ख़िला़ङ्ग भारी-भरकम सहायता मिलने की थोड़ीबहुत आशा बस जर्मनी से ही रखी जा सकती थी। इसी वजह से सभी मानसिक सदमों को पचाकर सुभाषबाबू रोम से पुनः बर्लिन लौट आये।

लेकिन जाते समय व्हिएन्ना होकर एमिली को साथ लेकर वे बर्लिन पहुँचे।

इस कुटिल वीरान राजकीय मरुस्थल में, जिसे ‘अपना’ कहा जा सके ऐसा कोई नहीं होता, इसका एहसास रहने के कारण, इस गर्म-रूखे भागदौड़ के जीवन में अपना हमसाया उन्हें, पहले कभी नहीं जितना आज आवश्यक लगने लगा था।

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