नेताजी- १५५

पिछली द़फ़ा जब सुभाषबाबू बर्लिन आये थे, उस समय का बर्लिन और इस समय का बर्लिन इनके वातावरण में भी फ़र्क़ था। उस समय का, जीवन का आनन्द मनमुक्त रूप से लेनेवाले बर्लिन की जगह अब युद्ध की छाया से ग्रस्त और त्रस्त बर्लिन ने ले ली थी। अब सुभाषबाबू जहाँ भी देखते, उन्हें हिटलर के २०-२० फ़ीट के कटआऊट्स ही नज़र आ जाते थे। कटआऊट्स में दिखनेवाले हिटलर के चेहरे पर का ग़ुरूर और सामनेवाले का अन्वेषण करनेवालीं उसकी नीली आँखें छिपाये नहीं छिपती थीं। बर्लिन तो अब जैसे एक मिलिटरी कॅम्प में ही बदल गया था।

जहाँ देखें वहाँ फ़ौजी गाड़ियाँ ही नज़र आती थीं। कभीकभार बीच में ही कर्णभेदी आवाज़ में सायरन बजाती हुईं फ़ौजी गाड़ियों के बीचोंबीच से हिटलर की गाड़ी चली जाती थी। हिटलर ने अपने प्रभावी वक्तृत्व से पराजयित जर्मनी में देशभक्ति की चेतना जागृत की थी यह बात जितनी सच थी, उतनी ही यह भी बात सच थी कि उसने अपनी इन करतूतों द्वारा जर्मन लोगों के मन में भी ख़ौंफ़ पैदा किया था। दूर से ही हिटलर की गाड़ियों की सायरन सुनाई देने पर लोगों में भागदौड़ मच जाती थी और थोड़ी ही देर में रास्तें सुनसान पड़ जाते थे। महज़ शक़ के बलबूते पर भी किसी के भी घर में घुसकर बिना तहकिक़ात के किसी को भी गिऱफ़्तार करने के अधिकार हिटलर ने जर्मन सैनिक़ों को प्रदान किये थे; साथ ही जर्मन युवकों के लिए फ़ौजभर्ती अनिवार्य थी। युवाओं को ढूँढ़ निकालने के लिए जर्मन सैनिक़ किसी के भी घर में रात-देररात खुलेआम घुसते थे। इसलिए दूर से ही जब जर्मन सैनिक़ों के जूतों की आवाज़ सुनायी देने लगती थी, तब बन्द घर में रहनेवाले लोग भी डर के मारे अपने बालबच्चों को सीने से लगाते हुए, एक-दूसरे से लिपटते हुए साँस थामकर जान मुठ्ठी में लिये बैठ जाते थे और जैसे ही दरवाज़े पर से वह जूतों की आवाज़ आगे चली जाती थी, उनकी जान में जान आती थी। इतना ख़ौंफ़ यदि स्वयं जर्मन लोगों के मन में हिटलर अनुशासन की आड़ लेकर पैदा कर सकता था, तो हिटलर द्वारा कब्ज़ा कर लिए राष्ट्रों के नागरिकों के मन में कितना डर पैदा होता हुआ रहेगा, इसकी तो महज़ कल्पना ही हम कर सकते हैं!

सुभाषबाबू को हिटलर के इस चेहरे के बारे में पता नहीं था यह बात नहीं थी। जर्मनी में कदम रखने के बाद तो उस चेहरे के काले रंग उनकी समझ में आने लगे थे। दूसरी एक और बात जो उनकी योजना के ख़िला़फ़ जा सकती थी, वह यह थी कि पिछली द़फ़ा जब वे जर्मनी आये थे, तो हिटलर ने उन्हें मिलने से भी इनकार किया था; साथ ही जर्मनी स्थित और भी कई घटक – उदाहरण के तौर पर, जर्मन विदेश मन्त्रालय के अधिकारियों को सुभाषबाबू के ध्येय के बारे में कतई दिलचस्पी न रहना, सर्वशक्तिवान् अँग्रेज़ी हुकूमत के साथ अकेले टक्कर लेने चले सुभाषबाबू के प्रति कुत्सितता की भावना रहना आदि – ये दरअसल कुछ ख़ास आशादायी नहीं थे। वहीं, इटली के सर्वेसर्वा मुसोलिनी ने तो उनकी योजना में दिलचस्पी दिखाकर उन्हें हर संभव सहायता करने की तैयारी भी दर्शायी थी।

ऐसा सब होते हुए भी सुभाषबाबू जर्मनी के लिए ही क्यों आग्रही थे? इसका जवाब उनकी ‘प्रॅक्टिकल’ सोच में है। हालाँकि मुसोलिनी ने उन्हें मदद करने की तैयारी दर्शायी थी, मग़र फ़िर भी उस समय के ताकतवर ब्रिटिश साम्राज्य से टक्कर लेने के लिए इटली की ताकत पर्याप्त नहीं थी और तुल्यबल रशिया उन्हें चार हाथ दूर ही रख रहा था। वहीं, यहाँ पर हिटलर ने जर्मनी की फ़ौजी ताकत को भारी मात्रा में बढ़ाया था। इसलिए सर्वशक्तिवान् अँग्रे़ज़ी सत्ता का फ़ॉंसी का फ़ॅंदा अपनी मातृभूमि के गले से उतार फ़ेंकने के लिए सुभाषबाबू के लिए ‘हिटलर’ यह एक ही पर्याय उपलब्ध था। इसीलिए वे व्यक्तिगत मानसम्मान की, वैसे ही अपनी विनति को हिटलर से क्या प्रतिसाद मिलेगा उसकी और उसी के साथ हिटलर के इस सत्ताकांक्षी चेहरे की परवाह न करते हुए सहायता माँगने हिटलर के पास गये। उन्हें हिटलर की नाझी विचारधारा में कतई दिलचस्पी नहीं थी और उसे उनका समर्थन भी नहीं था। लेकिन चाहे जो भी हो, हिटलर था उनकी भारतमाता को ग़ुलामी की ज़ंजिरों में जकड़कर रखनेवाले अँग्रेज़ों का दुश्मन और उसे इससे मुक्त करने के अपने ध्येय को साध्य करना यह बात उनके लिए अन्य किसी भी बात से ज़्यादा अहमियत रखती थी।

लेकिन हिटलर तो दूर ही रहा; ‘ओरलेन्दो मेझोता’ ही ‘सुभाषबाबू’ हैं, इस बात की जानकारी रखनेवाले, हिटलर के सर्वोच्च दायरे के, चन्द गिनेचुने लोगों का प्रतिसाद भी विशेष आशादायी नहीं था। यहाँ पर्वत को धड़क-धड़क कर ही मुझे अपनी राह खोद निकालनी होगी, यह बात सुभाषबाबू की समझ में आयी थी। क्या पता, शायद खाली हाथ भी लौटना पड़ता! इसलिए उन्होंने फ़िलहाल अपनी असली पहचान ज़ाहिर न करते हुए ‘ओरलेन्दो मेझोता’ बन रहने का ही तय किया। लेकिन इस दूसरे विश्‍वयुद्ध के गर्भ में ही ब्रिटीश साम्राज्य की धज़्जियाँ उड़ने की शुरुआत छिपी हुई है, इस बात को अच्छी तरह जाननेवाले सुभाषबाबू ने; शुरू में हिटलर केवल ‘ब्रिटीश साम्राज्य से आज़ाद होने की भारतीयों की माँग को हम समर्थन देते हैं’ इतना ही घोषित करें, इतनी ही छोटी उम्मीद रखी थी। यदि उतना भी संभाव हो जाता, तो ‘ब्रिटीश साम्राज्य का मुकुटमणि’ (‘द ज्युएल इन द क्राऊन ऑङ्ग द ब्रिटीश एम्पायर’) ऐसा भारत का हमेशा घमण्ड़ के साथ उल्लेख करनेवाला ब्रिटीश साम्राज्य जड़ से हिल जायेगा, इस बात को वे खूब अच्छी तरह जानते थे।

हालाँकि इस सर्वोच्च वर्तुल के बहुतांश लोगों ने सुभाषबाबू की ध्येयपूर्ति के प्रयासों का मज़ाक उड़ाकर उन्हें ठण्ड़ा प्रतिसाद दिया था, मग़र फ़िर भी जागतिक इतिहास का अध्ययन करनेवाले और जागतिक गतिविधियों की जानकारी रखनेवाले, जर्मन विदेश मन्त्रालय के कुछ लोग सुभाषबाबू की क़ाबिलियत जानते थे। विलियम केपलर ये उन्हीं में से एक थे। ये केमिकल इंजिनियर थे और कोयले से कृत्रिम रूप से रबर का निर्माण करने में उन्हें क़ामयाबी मिली थी। उनके संशोधन से जर्मनी को बहुत लाभ होता हुआ रहने के कारण वे हिटलर की ख़ास मर्ज़ी उनपर थी।

उन्हीं के कहने पर सुभाषबाबू ने जर्मन सरकार से उनकी क्या अपेक्षाएँ हैं, इसके बारे में एक १४-पन्नोंवाला निवेदन उन्हें दिया। उसे पढ़कर, इस मनुष्य को अपने ध्येय का कितना ध्यास लग चुका था, यह सा़फ़ सा़फ़ ज़ाहिर हो रहा था। हर बात का बारीक़ी से त़फ़सील के साथ सर्वंकष अध्ययन करने के बाद ही उन्होंने उसे उस निवेदन में प्रस्तुत किया था। सचमुच, सुभाषबाबू तो मानो जितेजागते एकसदस्यीय सरकार ही थे!

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