नेताजी- १४९

सुभाषबाबू के दिमाग में से साकार हो रही योजना को सुनते हुए कारोनी को तो वे रशियन राज्यक्रान्ति के प्रणेता रहनेवाले लेनिन के समान ही प्रतीत होने लगे थे। इस प्रचण्ड हिमालय जितने महत्कार्य को दुर्दम्य आत्मविश्‍वास के साथ एकाकी रूप में करने जा रहे इस आदमी को मुझसे जितनी हो सके उतनी सहायता मैं करूँगा, ऐसा कारोनी ने मन ही मन में तय कर लिया और उस विषय में सुभाषबाबू के प्रति अनुकूल राय उसने बाद में रोम स्थित उसके वरिष्ठ अ़फ़सरों को दे भी दी!

सुभाषबाबू के साथ हो रही चर्चा में कारोनी ने, उन्हे बर्लिन ले जाने के विषय में अक्षराष्ट्र तीन मार्गों के बारे में सोच रहे हैं, यह उनसे कहा। एक तो रशिया की सरहद तक उन्हें गुप्त रूप से पहुँचाना और फ़िर रशिया में कदम रखने के बाद सीधे उन्हीं के नाम पर रशियन ट्रान्झिट वीज़ा जारी कर रशियामार्ग से उन्हें बर्लिन तक ले जाना। दूसरा मार्ग यह था कि किसी इटालियन एम्बसी अ़ङ्गसर का ‘कुरियर’ के तौर पर इस्तेमाल करके; यानि उस अ़ङ्गसर के पासपोर्ट पर लगी हुई उसकी ङ्गोटो की जगह सुभाषबाबू की फ़ोटो लगाकर उस अ़ङ्गसर के नाम से ही सुभाषबाबू द्वारा रशिया का प्रवास किया जाना। तीसरा मार्ग यानि ईरान-ईराक-तुर्कस्तान आदि देशों में से प्रवास किया जाना।

इनमें से पहले मार्ग के बारे में कहा जाये, तो रशिया ने जर्मनी के साथ अनाक्रमण का समझौता किया हुआ होने के बावजूद भी रशिया को हिटलर पर कोई ख़ास विश्‍वास नहीं था। अतः रशिया हालाँकि इस विश्‍वयुद्ध में केवल उस अनाक्रमण के समझौते के कारण ब्रिटन के शत्रुपक्ष में खड़ा था, मग़र ङ्गिर भी वह ब्रिटन से खुलेआम पंगा लेने का दुस्साहस नहीं कर सकता था। इसीलिए भारत में ब्रिटीश साम्राज्य के नं. १ शत्रु माने जानेवाले सुभाषबाबू को खुलेआम उन्हीं के नाम से वीज़ा देने के लिए रशिया अनुकूल नहीं था।

वहीं, तीसरा ईरान-ईराक-तुर्कस्तान यह मार्ग रशियामार्ग जितना आसान नहीं था। उस मार्ग में स्थित कई राष्ट्रों में ब्रिटीश एजंट्स बड़ी भारी मात्रा में रहने के कारण सुभाषबाबू की जान को भी खतरा था। अतः सुभाषबाबू इस मार्ग के लिए अनुकूल नहीं थे। रशिया में ब्रिटीश सीक्रेट एजंट्स की एक नहीं चलेगी, इस बात को वे भली-भाँति जानते थे और इसीलिए उन्होंने रशिया मार्ग से जाने की ही ठान ली थी। इसकी दूसरी वजह यह थी कि उनका जर्मनी से भी अधिक रशिया पर भरोसा था। एक तो भौगोलिक दृष्टि से भी रशिया भारत के नज़दीक रहने के कारण, जर्मनी से किसी बड़ी सेना को भूमार्ग से भारत तक ले आने से आसान था, रशिया से उसे भारत की सरहद तक ले आना। इसीलिए वे शुरू से ही रशियाप्रवेश पर ज़ोर दे रहे थे।

साथ ही, या तो ब्रिटीश सरकार की किसी योजना की भनक लगने के कारण या फ़िर किसी अद्भुत अन्तःप्रेरणा के कारण कहिए, सुभाषबाबू ने ईरान-ईराक-तुर्कस्तान मार्ग का चयन नहीं किया और उनकी वह अन्तःप्रेरणा ही सही थी यह बात, बाद में उजागर हुए रहस्यों से ज़ाहिर हुई। आयरिश इतिहाससंशोधनकर्ता और डब्लिन स्थित ट्रिनिटी युनिव्हर्सिटी के प्रो़फ़ेसर युनान ओ’हाल्पिन ने, जब वे दूसरे विश्‍वयुद्ध पर तुर्कस्तान में संशोधन कर रहे थे, तब उनके हाथ लगे कुछ दस्तावेज़ों के द्वारा इस बात को उजागर किया है। दरअसल सुभाषबाबू के काबूल में रहने का पता ब्रिटीश सरकार को, उनकी गुप्तचर यन्त्रणा ने काबूल में गुप्त जानकारी हासिल करने का जो स्रोत तैयार किया था, उसके ज़रिये उसी समय लग चुका था। लेकिन ब्रिटीश हु़कूमत के प्रति कुछ ख़ास ‘हमदर्दी’ न रखनेवाली उस समय की अ़फ़गाण सरकार सुभाषबाबू को पकड़कर अपने हवाले कर ही देगी, इस बात का ब्रिटीश सरकार को यक़ीन नहीं था। इसीलिए यदि ऐसी विनती अ़फ़गाण सरकार को करते हैं, तो सुभाषबाबू अपने कब्ज़े में होना तो दूर ही रहा, उल्टा अ़फ़गाणिस्तान में का़फ़ी मशक्कत करके ‘तैयार किया हुआ’ वह गुप्त जानकारी का स्रोत भी बन्द हो जायेगा, इस डर के कारण ब्रिटीश सरकार ने सुभाषबाबू को, उनके काबूल में रहने तक हाथ नहीं लगाया। ब्रिटीश सरकार के सामने एक अन्य पर्याय भी था और वह था – सुभाषबाबू का सीधे ख़ात्मा कर देना। लेकिन ब्रिटन का ‘मित्र’ न रहनेवाले देश में यदि सुभाषबाबू का धोख़ाधड़ी से ख़ात्मा कर देते, तो वह एक बहुत बड़ा आंतर्राष्ट्रीय ‘इश्यू’ बन जाता, इसलिए उस मार्ग को ब्रिटीश सरकार ने नहीं चुना।

लेकिन इटालियन एम्बसी के अ़फ़सर और रोमस्थित इटाली का विदेश मन्त्रालय इनके बीच चलनेवाले गुप्त सन्देशों का आदानप्रदान करनेवाली यन्त्रणा में छेद करने में ब्रिटीश गुप्तचर क़ामयाब हो चुके थे और उसी के बाद ‘सुभाषबाबू युरोप जाने की योजना बना रहे हैं’ यह गुप्त जानकारी उनके हाथ लगी थी और वह ब्रिटीश सरकार को जैसे इष्टापत्ति ही प्रतीत हुई थी। क्योंकि युरोप में उनकी गतिविधियों पर नज़र रखना काबूल से आसान होगा, ऐसा ‘हिसाब’ ब्रिटीश सरकार ने किया और इसीलिए उस मोरचे पर भी उन्होंने सुभाषबाबू के मार्ग में अड़ंगा नहीं डाला। लेकिन उनका ख़ात्मा कर देने का मार्ग ब्रिटीश सरकार ने खुला रखा था। यदि वे रशिया मार्ग से जाते, तो उनके युरोप पहुँचने तक ब्रिटीश सरकार कुछ भी नहीं कर सकती थी। लेकिन उनके ईरान-ईराक-तुर्कस्तान इस मार्ग से जाने पर इस्तंबूल में उनका ख़ात्मा कर देने की योजना ब्रिटीश सरकार ने बनायी थी और दो ख़ास सीक्रेट एजंट्स (स्पेशल ऑपरेशन्स एक्झीक्युटिव्ह्ज) इस काम के लिए इस्तंबूल में तैनात किये थे तथा उन्हें वैसा ‘ऑर्डर’ भी ७ मार्च १९४१ को दिया गया था। (ओ’हाल्पिन ने सन २००५ में कोलकाता में आयोजित की गयी एक व्याख्यानमाला में बोलते हुए इस जानकारी को उजागर किया था।) हाँ, अब यह बात अलग है कि सुभाषबाबू द्वारा ईरान-ईराक-तुर्कस्तान मार्ग को न अपनाये जाने के कारण उन सीक्रेट एजंटों को हाथ मलते ही रहना पड़ा।

ख़ैर! इन सभी बातों के कारण इन दो मार्गों की अपेक्षा तीसरा – किसी इटालियन ‘कुरियर’ के पासपोर्ट पर उसीके नाम से रशिया में से प्रवास करना, यह मार्ग अक्षराष्ट्रों को कम ख़तरे वाला प्रतीत हो रहा था और इस तीसरे मार्ग पर ही उनके प्रयास शुरू हैं, ऐसा कारोनी ने सुभाषबाबू से कहा। साधारणतः सुभाषबाबू से मिलताजुलता चेहरा रहनेवाले इटालियन ‘कुरियर’की तलाश जारी है, यह जानकारी भी कारोनी ने सुभाषबाबू को दी।

इस प्रकार कारोनी के साथ हुई सुभाषबाबू की वह मीटिंग का़फ़ी हद तक स़फ़ल हुई, कई बातें दोनों के लिए स्पष्ट हो गयीं। जैसा कि पहले ही तय हुआ था, कारोनी ने दूसरे दिन दोपहर चार बजे सुभाषबाबू को इटालियन एम्बसी की गाड़ी से दार-उल-अमन इस स्थान पर पहुँचा दिया। वहाँ पर कारोनी का एक सहायक क्रिशनिनी ने कॅमेरे में सुभाषबाबू के फ़ोटोग्रा़फ़्स ले लिए, जो ‘उस’ पासपोर्ट पर लगाये जानेवाले थे।

अब सुभाषबाबू के रशियाप्रयाण की घड़ी बिलकुल क़रीब आ चुकी थी; कम से कम वैसा प्रतीत तो हो रहा था।

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