नेताजी-११७

काँग्रेस कार्यकारिणी चयन के अधिकारसन्दर्भ में हुए विवाद के बाद सुभाषबाबू ने काँग्रेस अध्यक्षपद से इस्तीफ़ा देकर काँग्रेस के अन्तर्गत ही ‘फॉरवर्ड ब्लॉक’ पक्ष की स्थापना की। उस पक्ष के प्रचार के काम में वे जुट गये। उस पक्ष को तथा कुल मिलाकर सुभाषबाबू की विचारधारा को मिल रही क़ामयाबी को देखकर सुभाषविरोधकों के होश उड़ गये। फिर काँग्रेस कार्यकारिणी ने प्रस्ताव पारित करके ‘कोई भी व्यक्ति अथवा गुट प्रान्तीय काँग्रेस की पूर्व अनुमति के बिना किसी भी आन्दोलन एवं सत्याग्रह में हिस्सा नहीं ले सकता’, ऐसा नियम बना दिया। तब ‘यह व्यक्तिस्वतन्त्रता का संकोच करना है’ इस भूमिका से सुभाषबाबू ने ९ जुलाई १९३९ इस दिवस को ‘निषेध दिन’ के रूप में मनाने की घोषणा की। उसे मिली क़ामयाबी से और भी बेचैन होकर सुभाषविरोधकों ने उसपर विचारविमर्श करने के लिए १ अगस्त को काँग्रेस कार्यकारिणी की बैठक बुलायी।

उस समय सुभाषबाबू बंगाल प्रांतीय काँग्रेस के अध्यक्षपद पर भी विराजमान थे। ‘पक्ष अनुशासन को भंग करके’ उनके द्वारा स्वतन्त्र रूप से चलाये जा रहे इस उपक्रम के कारण बेचैन होकर काँग्रेस कार्यकारिणी ने उन्हें बंगाल प्रान्तीय काँग्रेस के अध्यक्षपद से बड़तरफ़ (पदच्युत) कर दिया और तीन साल तक वे पक्ष में किसी भी पद का स्वीकार नहीं कर सकते, ऐसा प्रस्ताव भी पारित किया। दरअसल सुभाषबाबू को कभी भी किसी भी पद की लालसा नहीं थी और काँग्रेस पर तो वे जान छिड़कते थे। बिलकुल नये पक्ष की स्थापना करते हुए भी काँग्रेस से जुदा होने का विचार तक उनके मन में नहीं आया था; बल्कि नये पक्ष की सदस्यता के लिए बुनियादी पात्रता ही ‘काँग्रेस का सदस्य रहना’ यह थी।

इस तरह लगभग बीस वर्ष तक….अपने जीवन के महत्त्वपूर्ण बीस वर्ष जिस पक्ष के लिए सुभाषबाबू ने खूनपसीना एक किया था, अब वे उसके केवल प्राथमिक सदस्य रह गये थे। बैठक में उपस्थित जवाहरलालजी का मन अपने भूतपूर्व सहकर्मी के साथ हुई इस नाइन्साफ़ी से व्यथित हो गया था। इस प्रस्ताव के समय गाँधीजी भी उपस्थित थे और यह प्रस्ताव उन्हीं के परामर्श के अनुसार सभा के सामने प्रस्तुत किया गया था। गाँधीजी भी अपने उसूलों के साथ पक्के थे। काँग्रेस कई गुटों में न बटते हुए ख़ालिस रूप में रहनी चाहिए, यह हमेशा ही उनका आग्रह रहा था। तत्त्व एवं अनुशासन के पालन की भावना के सामने सुभाषबाबू के प्रति रहनेवाला उनका प्यार भी बेअसर हो गया था। लेकिन उनकी आँखों की उदासी उपस्थितों में से सिर्फ़ सरदार पटेल ही पढ़ सके और गाँधीजी के दुखी रहने के कारण सरदार पटेल को भी उस प्रस्ताव से खुशी नहीं हुई।

अब सुभाषबाबू को अपने विचारों को प्रसारित करने के लिए सारा देश खुला था। उन्होंने भी इसे इष्ट-आपत्ति मानकर देशभर में सभाएँ लेना शुरू कर दिया। अपने ध्येय तथा नीति को सुव्यवस्थित रूप से लोगों तक पहुँचाने के लिए उन्होंने ५ अगस्त को ‘फॉरवर्ड’ यह साप्ताहिक शुरू कर दिया। उसके ज़रिये उन्होंने संभाव्य द्वितीय विश्‍वयुद्ध के अनुषंग में भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के बारे में रहनेवाली अपनी भूमिका स्पष्ट कर दी। तब तक सुभाषविरोधकों ने उनकी प्रतिमा मलीन करने की मुहिम ही छेड़ दी थी। वे सुभाषबाबू को ‘मौक़ापरस्त’ कहते थे। सुभाषबाबू भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन को विदेशों से सहायता प्राप्त करने के लिए जिन कई राष्ट्रनेताओं से मिले थे, उनमें से एक थे इटाली के तानाशाह मुसोलिनी। मुसोलिनी से मुलाक़ात कर चुके सुभाषबाबू को सुभाषविरोधक ‘फॅसिस्ट’ कहकर उपहासित करने की कोशिश करते थे। लेकिन अपने ‘फॉरवर्ड’ इस साप्ताहिक के ज़रिये सुभाषबाबू ने उन्हें ‘मौक़ापरस्त’, ‘फॅसिस्ट’ कहनेवालों की कड़ी आलोचना की थी।

आन्तर्राष्ट्रीय हालात से सुभाषबाबू किस तरह भली-भाँति वाक़िब हैं, यह जल्द ही सबकी समझ में आ गया। गत वर्ष हिटलर के साथ म्युनिक समझौता करके हालाँकि इंग्लैंड़ ने एक कदम पीछे ले भी लिया हो, लेकिन वह युद्ध की तैयारियाँ करने के लिए इंग्लैंड़ द्वारा लिया गया पैंतरा था, यह सुभाषबाबू भली-भाँति जानते थे और र्‍हाईनलँड, ऑस्ट्रिया और उसके बाद झेकोस्लोवाकिया निगल चुका हिटलर यदि एक कदम भी आगे बढ़ाता है, तो उसका मुँहतोड़ जवाब देने की बात ब्रिटिश मन्त्रिमण्ड़ल की ख़ु़फिया बैठक में तय किया गया था, यह भी सुभाषबाबू को जगह जगह ‘प्लांट’ किये गये हितैषियों द्वारा ज्ञात हो चुका था। एक बार यदि युद्ध छिड़ जाये, तो उस युद्ध के साथ भारत का कोई लेना देना न रहते हुए भी ब्रिटन भारत की ही शक्ति एवं संसाधनों को इस युद्ध के लिए जौंक की तरह चूस लेगा यह ज़ाहिर बात थी। इसीलिए ब्रिटन के युद्ध में व्यस्त होते ही ‘लोहा ग़रम है, मार दो हथौड़ा’ इस न्याय से उस अवसर का लाभ उठाकर अँग्रेज़ों को भारत को आज़ाद करने पर मजबूर करने जैसे हालात आन्दोलनों के रूप में निर्माण किये जायें, यह सुभाषबाबू का इरादा था।

देशभर में सुभाषबाबू की सभाओं का दौर चल रहा था, जिसमें ३ सितम्बर को चेन्नई के मरिना बीच पर २ लाख के विशाल जनसागर के समक्ष उनकी सभा हुई। इतनी विराट सभा उस सागर ने इससे पहले कभी भी देखी नहीं थी। अब जल्द ही विश्‍वयुद्ध की चिंगारी भड़क उठेगी और हमें उसका लाभ उठाना चाहिए, यह सुभाषबाबू दृढ़तापूर्वक लोगों से कह रहे थे। इसी दौरान एक कार्यकर्ता दौड़ते हुए मंच पर आ गया और उसने एक सायंवृत्तपत्र की कापी सुभाषबाबू के हाथ में थमा दी।

सुभाषबाबू ने हेडलाईन पढ़ी और वे उत्तेजित हो गये – ‘इंग्लैंड़ की जर्मनी के विरुद्ध युद्ध करने की घोषणा!’

गत ३-४ वर्षों से सुभाषबाबू जिस खतरे से आगाह कर रहे थे, वह अब दुनिया के सिर पर मँड़रा रहा था। हिटलर की सेना ने १ सितम्बर को ही पोलंड तक कूच किया था। अत एव पूर्वयोजना के अनुसार इंग्लैंड़ ने जर्मनी के ख़िलाफ़ जंग का ऐलान कर दिया था और भारत का इस युद्ध के साथ किसी भी प्रकार का ताल्लुक़ न होते हुए भी, भारत के तत्कालीन व्हाईसरॉय लॉर्ड लिनलिथगो ने इस कदर एक अध्यादेश के द्वारा ‘जर्मनी के साथ भारत का युद्ध’ घोषित कर भारत को विश्‍वयुद्ध की खाई में धकेल दिया, मानो जैसे भारत यह उसकी अपनी निजी जागीर ही हो।

सुभाषबाबू ने सभा में उस हेडलाईन को पढ़ा और संघर्ष के लिए तैयार रहिए, यह भी कहा। अन्तिम संघर्ष क़रीब आ रहा है, इसका एहसास उन्हें हो रहा था। साथ ही, हाल ही में उनके साथ हुए घटनाक्रम के बाद ‘अब मेरा काम यहाँ नहीं, बल्कि कहीं और है’ यह अनामिक भावना बीच बीच में उनके मन को छूने लगी थी।

Leave a Reply

Your email address will not be published.