नेताजी-११५

कुछ दिन जमदोबा में विश्राम करने के बाद सुभाषबाबू २१ अप्रैल १९३९ को कोलकाता लौटे। अब उनकी सेहत में का़फ़ी सुधार हो चुका था। त्रिपुरी में पारित पंत-प्रस्ताव के कारण निर्माण हुआ वाद कम होने के आसार नज़र नहीं आ रहे थे। अतः इस उलझन को सुलझाने के लिए सुभाषबाबू ने २९ अप्रैल को कोलकाता के वेलिंग्टन स्क्वेअर में काँग्रेस महासमिति की विशेष बैठक का आयोजन किया था। इस बैठक के नतीजे पर पूरे देश का ध्यान लगा हुआ था।

२९ अप्रैल १९३९। बंगाल का, ख़ासकर कोलकाता का माहौल सुबह से ही गरम था। अपने प्रिय सपूत पर प्रतिशोध की वृत्ति से अन्याय किया जा रहा है, ऐसी भावना कोलकाता की जनता के मन में दृढ़ हुई थी। देशबन्धु के बाद यदि किसीने बंगाल को भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम में अव्वल स्थान पर बिठा दिया था, तो वह सुभाषबाबू ने ही। बंगाल के युवकों ने बड़ी तादात में स्कूल-कॉलेजों का त्याग कर गाँधीजी के असहकार आन्दोलन में हिस्सा लिया था, वह सुभाषबाबू के कहने पर ही! पहले कभी घर से भी बाहर न निकलनेवालीं बंगाल की बहू-बेटियाँ, गाँधीजी द्वारा समय समय पर शुरू किये गये असहकार आन्दोलनों में सड़कों पर उतर आयीं थीं और हम पुरुषों से रत्ती भर भी कम नहीं है, यह जताते हुए पुलीस की लाठियाँ खाकर उन्होंने खून बहाया था, वह केवल सुभाषबाबू के कहने पर ही! उन्हीं की बात ने, जीवन का संध्या काल नज़दीक आये हुए बंगाल के बड़ों-बूढ़ों के खून में नवचेतना जागृत कर वे भी असहकार आन्दोलन में शरीक़ हुए थे। भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम ने जब अहिंसात्मक मार्ग को अपनाया था, तब बंगाल के क्रान्तिकारियों का महत्त्व थोड़ा कम होता गया। ऐसे समय उन्हें समझा-बूझाकर अहिंसात्मक आन्दोलन के राजमार्ग पर सुभाषबाबू की दूरदृष्टि ही ले आयी थी। साथ ही, तत्कालीन नीति में इस क्रान्तिकारी मार्ग को ही त्याज्य क़रार दिया हुआ होने के कारण, इस मार्ग पर चलकर जेल जा चुके क्रान्तिकारियों के परिवारजनों की आह सुननेवाला भी कोई नहीं था और उनपर भूखा मरने की नौबत आ चुकी थी। ऐसे में, कोलकाता के महापौर के नाते सुभाषबाबू ने ऐसे जेल जा चुके क्रान्तिकारियों के परिवारजनों को नौकरी दिलाने का जो अभियान महापालिका में चलाया था, उसी कारण ये परिवारजन सड़क पर आते आते बच गये थे….

….और इन सब कारणों से ही सुभाषबाबू बंगाल के सभी जातिधर्मों के आबालवृद्धों में समान रूप से प्रिय थे। अपनी ज़िन्दगी के २० बेहतरीन साल सुभाषबाबू ने अपनी बिग़ड़ती हुई सेहत की परवाह न करते हुए, कई बार नसीब हुए महाकष्टदायी बंदीवास की परवाह न करते हुए तन-मन-धन से भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम में खर्च किये थे। इसलिए जब डेढ़ साल पहले उन्हें हरिपुरा काँग्रेस अधिवेशन के अध्यक्षपद का सरताज पहनाया गया था, तब देर से ही सही, लेकिन उनके असीम त्याग पर ग़ौर तो किया गया, ऐसी ही सारे बंगालवासियों की भावना हो चुकी थी। उसी में, हरिपुरा अधिवेशन के अध्यक्ष के तौर पर सुभाषबाबू ने अपने प्रागतिक भाषण द्वारा आन्दोलन को नयी दिशा देने के प्रयास करने के बाद तो वे बंगाल की जनता की आँखों का तारा ही बन गये थे। उस पार्श्‍वभूमि पर त्रिपुरी अधिवेशन के अध्यक्षपद के लिए उन्हें जो लड़ाई लड़नी पड़ी और उसे जीतकर भी उन्हें जिस मानहानि का सामना करना पड़ा, उन सबके कारण, सुभाषबाबू पर अन्याय किया जा रहा है ऐसी भावना मन में जागृत होकर बंगालनिवासी सन्तप्त हो चुके थे।

इसी कारण महासमिति की बैठक के दिन सुबह से ही कोलकाता का माहौल गरम था। सुभाषबाबू बैठकस्थल तक पहुँचे, तब कार्यकर्ताओं ने तो उन्हें घेर ही लिया। चारों ओर से उनके जयकार की घोषणाएँ गूँज रही थीं।

समिति की बैठक शुरू हो गयी। अध्यक्षस्थान पर सरोजिनीदेवी नायडू थीं। उपस्थितों के मन में किसी अनामिक आशंका ने घर कर लिया था। जब सुभाषबाबू भाषण करने उठे, तो मण्ड़प में सन्नाटा छा गया। सुभाषबाबू ने अपना भाषण शुरू कर दिया। उस में सर्वप्रथम उन्होंने उस बैठक की पार्श्‍वभूमि विशद की। त्रिपुरी अधिवेशन अध्यक्षपद के लिए मूलतः चुनाव लेने की ज़रूरत ही क्यों आ पड़ी, इस बात से लेकर त्रिपुरी अधिवेशन में पारित पंत-प्रस्ताव और उसके बाद हुई गतिविधियों से उन्होंने उपस्थितों को अवगत कराया। पंत-प्रस्ताव से सहमत न होते हुए भी, केवल जनतान्त्रिक मूल्यों के प्रति मन में सम्मान की भावना होने के कारण, काँग्रेस प्रतिनिधियों द्वारा बहुमत से पारित किये हुए पंत-प्रस्ताव की इ़ज़्ज़त कर उसके मुताबिक चलने के लिए भी मैं तैयार था, यह भी उन्होंने स्पष्ट किया।

लेकिन उसके बाद कार्यकारिणी का चयन करते हुए सुभाषविरोधकों द्वारा जो टालमटोल की गयी, उसकी याद दिलाकर, ऐसे हालातों में मैं केवल एक नामधारी अध्यक्ष के रूप में काम करना नहीं चाहता, यह कहकर उन्होंने अपना इस्ती़फ़ा देने की घोषणा की।

इस घोषणा के बाद मण्ड़प का माहौल ही बदल गया। सुभाषबाबू के जयकार की तथा वे अपना इस्ती़फ़ा वापस ले लें, इस आशय की घोषणाएँ शुरू हो गयीं। सब जगह अ़फ़रात़फ़री का माहौल छा गया। ख़ास कर सुभाषविरोधकों की अड़ियल तथा प्रतिशोधपूर्ण वृत्ति के कारण ही सुभाषबाबू को यह दिन देखना पड़ा, इस आशय की घोषणाएँ शुरू हुईं। यह गरम माहौल ठण्ड़ा होने के आसार नज़र न आते हुए देखकर, जवाहरलालजी ने स्वयं अपने हाथ में माईक लेकर सुभाषबाबू को इस्ती़फ़ा वापस लेने के लिए विनती की। लेकिन काँग्रेस की घटना के मुताबिक़ अपनी कार्यकारिणी का चयन करने का अधिकार अध्यक्ष का ही होने के बावजूद, ऐसी छोटी छोटी बातों के लिए भी यदि अध्यक्ष के मत को नकारा जायेगा, तो अपनी बुद्धि को गिरवी रखके केवल नामधारी अध्यक्ष होने में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है, ऐसा कहकर सुभाषबाबू ने अपने निर्णय पर अटल रहने का संकेत दिया।

यह सुनते ही फ़ीर एक बार अभूतपूर्व अ़फ़रात़फ़री मच गयी। हालात को बेक़ाबू होते हुए देखकर सरोजिनीदेवी ने, अब इसपर कल ही चर्चा होगी, यह कहते हुए उस दिन का कामकाज़ स्थगित कर दिया।

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