नेताजी-११३

त्रिपुरी अधिवेशन ने अब अपने रंग दिखाना शुरू कर दिया था। बीमारी से गलितगात्र अध्यक्ष एक तरफ़; वहीं, उनके विरोध में संकुचित राजनीतिक शतरंज की चालें चलनेवाले १२ माहिर बुज़ुर्ग नेता, सारी की सारी पक्षयन्त्रणा, सभी प्रांतीय मन्त्रिमण्डल (‘कुर्सी छोड़कर काँग्रेस को सड़क पर उतरना चाहिए’ यह सुभाषबाबू द्वारा किया जा रहा आग्रही प्रतिपादन नामंज़ूर रहने के कारण यह वर्ग उनके खिलाफ़ था!), साथ ही सुभाषविरोधकों द्वारा बार बार इस्तेमाल किया जा रहा गाँधीजी का नाम और उनकी महिमा यह सब दूसरी तरफ़, ऐसा यह विषम मुक़ाबला था। सुभाषविरोधकों द्वारा प्रस्तुत किया गया ‘पंतप्रस्ताव’ मेरी राजनीतिक करिअर को ख़तरे में डाल सकता है, यह पूरी तरह जानते हुए भी सुभाषबाबू ने, मूलतः ही ‘अवैध’ रहनेवाले उस प्रस्ताव को दाखिल करने की इजाज़त दे दी। उसके बाद सुभाषसमर्थक और सुभाषविरोधक इनके बीच में हुई ‘तू-तू मैं-मैं’ के कारण उस प्रस्ताव पर चर्चा और निर्णय नहीं हो सका और कामक़ाज अगले दिन तक के लिए मुलतवी कर दिया गया।

दूसरा दिन भी कुछ वैसा ही रंग दिखानेवाला था। लेकिन बीच में जो रात का समय मिल रहा था, उसका उपयोग करते हुए अपने अधिकार में रहनेवाली समूची पक्षयन्त्रणा को कार्यान्वित करने का फ़ैसला सुभाषविरोधकों ने किया। देश के विभिन्न प्रदेशों से आये हुए प्रतिनिधियों के आवास के लिए बनाये गये प्रदेशनिहाय शामियानों में अब रात भी मानो दिन बन चुकी थी और सलाह-मशवरा अपनी चरमसीमा पर पहुँच गया था।

प्रांतीय मन्त्रिमण्डल

सुभाषबाबू की नाज़ूक हालत की भी परवाह न करनेवाले प्रमुख सुभाषविरोधक प्रदेशनिहाय हर शामियाने में जाकर प्रचार कर रहे थे, प्रतिनिधियों को अपने गुट में खींचने के लिए विभिन्न दाँवपेंच लड़ा रहे थे। ‘किसी भी तरह के विधिनिषेध को न माननेवाले बोसबन्धुओं द्वारा प्रतिनिधि पंजीकरण में किये गये घोटाले की फ़ाइलें गाँधीजी को सौंप दी गयी हैं’, ‘वैसे तो जवाहरलालजी के भी गाँधीजी के साथ कई मुद्दों पर मतभेद होते हैं, मग़र इसके बावजूद भी वे कभी गाँधीजी से दामन छुड़ाने के बारे में नहीं सोचते’ इस तरह के विभिन्न ‘तीर’ सुभाषविरोधकों द्वारा चलाये जा रहे थे और जैसे जैसे रात चढ़ती जा रही थी, वैसे वैसे उन शब्दबाणों का शिकार होनेवाले प्रतिनिधियों की संख्या भी बढ़ती जा रही थी। यदि गाँधीजी जितना ही सुभाषबाबू को भी श्रद्धेय माननेवाला कोई प्रतिनिधिगुट ईप्सित निर्णय तक पहुँचने में देर लगाता है, तो सुभाषविरोधक अपने भाते में से हमेशा का ‘ब्रह्मास्त्र’ निकालते थे – ‘यह पंतप्रस्ताव यदि नामंज़ूर कर दिया गया, तो गाँधीजी शायद हमेशा के लिए काँग्रेस को त्यागकर राजनीति से संन्यास ले लेंगे’; और यह ख़ौंफ़ दिखाकर दुविधा में फँसे ‘फेन्ससिटर्स’ को वे अपने गुट में खींच रहे थे, क्योंकि चाहे जो भी हो जाये, लेकिन ‘गाँधीजी के बिना स्वतन्त्रतासंग्राम’ यह कल्पना ही कोई नहीं सह सकता था, बिल्कुल उनके विरोधक भी। सुभाषबाबू की दारोमदार जिन गुटों पर थी, उनमें से भी कइयों को हालाँकि गाँधीवाद तो मंज़ूर नहीं था, मग़र तब भी उनके मन में गाँधीजी के प्रति काफ़ी इ़ज़्ज़त थी। इसी वजह से यह अस्त्र क़ामयाब साबित हो रहा था और दुविधा में फँसे प्रतिनिधि फ़ौरन पंतप्रस्ताव के पक्ष में हो जाते थे। इस तरह एक के बाद एक करके सभी प्रदेशों के प्रतिनिधियों को अपने पक्ष में करते हुए सुभाषविरोधक सन्तोषपूर्वक आगे बढ़ रहे थे।

शामियानों में जगह न मिले हुए अनगिनत आम सदस्य अपने गुट बनाकर खुले मैदान में ही सोये हुए थे। इन सर्वसाधारण सदस्यों को इन सब बातों से कोई लेनादेना नहीं था। उनमें से पहली बार ही आये हुए कई सदस्य स्वतन्त्रतासंग्राम के श्रद्धेय नेताओं की एक झलक पाने के लिए वहाँ आये हुए थे और परसों से ही वे अपने पूज्य नेताओं को जी भरकर देख रहे थे। हालाँकि गाँधीजी इस अधिवेशन में उपस्थित नहीं थे, लेकिन हमेशा की तरह उनके लिए एक कुटि बनायी गयी थी। लोग वहाँ जाकर दर्शन कर ङ्गूलमालाएँ चढ़ा रहे थे।

….और सुभाषबाबू?

वे कल के सम्पूर्ण कामक़ाज के कारण और मुख्य रूप से अधिवेशन में मची अफ़रातफ़री के कारण और भी थककर अपने शिविर में बिस्तर पर लेटे हुए थे। बीच बीच में उन्हें ग्लानि भी आ रही थी। शरदबाबू, माँ-जननी, डॉ. सुनीलचन्द्र और भतीजी इला उनके बिस्तर के पास दिनरात बैठे हुए थे। उन्हें उस समय चल रहे राजनीतिक जंग की हार-जीत की अपेक्षा सुभाषबाबू की सेहत की ज़्यादा फ़िक्र थी। बीच बीच में सुभाषसमर्थक सदस्य आ-जा रहे थे। लेकिन सुभाषबाबू की नाज़ूक हालत को देखकर वहाँ पर किसी भी प्रकार की राजनीतिक चर्चा करने की अनुमति न होने के कारण वे उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछताछ करके वापस लौट रहे थे। बाक़ी के सारे शिविर में एक सन्नाटा-सा छाया हुआ था। काँग्रेस के महत्त्वपूर्ण अधिवेशन का गवाह बनने की खुशी में दो दिन पहले तक झूम उठा नर्मदातट अब मायूस होकर इस सारे घटनाक्रम का मूक गवाह बन चुका था।

वह रात इसी कश्मकश में बीत गयी और दूसरे दिन की पौ ङ्गट गयी। प्रतिनिधि इकट्ठा होने लगे। सुभाषविरोधकों ने अपने अधिकार में स्थित पक्षयन्त्रणा का इस्तेमाल कर कुशल व्यूहरचना द्वारा प्रतिनिधियों के बैठने की व्यवस्था प्रदेशनिहाय न करते हुए अलग अलग गुट अनुसार की थी। प्रतिनिधियों के अलावा अन्य किसी को भी वहाँ दाखिल नहीं होने दिया जा रहा था। चर्चा शुरू हो गयी।

सबसे पहले पण्डित पन्तजी ने प्रस्ताव का पुनरुच्चार करते हुए तोप दाग दी – ‘जिस तरह रशिया ने लेनिन, जर्मनी ने हिटलर और इटली ने मुसोलिनी इस तरह एक ही नेता पर भरोसा रखा, उसी तरह हमें भी सौभाग्यवश प्राप्त हुए गाँधीजी पर भरोसा रखना चाहिए।’ उनके द्वारा गाँधीजी की ऊपरोक्त नेताओं के साथ की गयी तुलना कई सुभाषविरोधकों को भी रास नहीं आयी। लेकिन प्रस्ताव पारित करना अहम ज़रूरी होने के कारण उनकी उस बात पर किसी ने बहस नहीं की।

जवाब में ‘गाँधीजी को हमारा विरोध है ही नहीं, तो फिर क्यों बेवजह उनका नाम बीच में घसीट रहे हैं?’ यह सुभाषसमर्थकों ने कहा और काँग्रेस की घटना के अनुसार अध्यक्ष ही अपनी कार्यकारिणी का चयन कर सकता है, यह दलील दी। लेकिन सुभाषबाबू के स्थान पर विराजमान प्रभारी अध्यक्ष ने सुभाषसमर्थकों की सभी दलीलों को एक के बाद एक ख़ारिज करना शुरू कर दिया। उस अफ़रातफ़री में – ‘इतनी नाज़ूक सेहत होने के बावजूद भी सुभाषबाबू अधिवेशन में निग्रहपूर्वक उपस्थित रहे इस बात की तो कम से कम आपको कद्र करनी चाहिए और इस चर्चा को कुछ दिनों तक तो स्थगित कर देना चाहिए’ इस सुभाषसमर्थकों की माँग को नज़रअन्दाज़ कर दिया गया। काफ़ी देर तक आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल रहा था, कल की तरह ही अव्यवस्था मच गयी थी; मानो जैसे भविष्यकालीन स्वतन्त्र भारत में घटित घटनाओं की झलक ही त्रिपुरी देख रही थी।

प्रस्ताव पर मतदान हुआ और प्रस्ताव पारित हो गया। सुभाषविरोधक जीत के ग़ुरूर में ऐंठ गये; वहीं, त्रिपुरी शोक कर रही थी।

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