नेताजी-११०

१० मार्च १९३९ को जबलपुर ज़िले में त्रिपुरी अधिवेशन सम्पन्न होने जा रहा था। सुभाषबाबू की अजीबोंग़रीब बीमारी के विलक्षण लक्षणों के चर्चे अख़बारों में हो रहे थे। अधिवेशन के अध्यक्ष ही अधिवेशन में उपस्थित रहेंगे या नहीं, इस बारे में चर्चाएँ हो रही थीं।

आख़िर सुभाषबाबू की मूल इन्क़िलाबी प्रवृत्ति ने सिर उठाया और डॉक्टरों की सलाह को न मानते हुए, १०५ डिग्री के बुख़ार में शक्तिहीन विकल स्थिति में, बेडरिड़न सुभाषबाबू ५ मार्च को त्रिपुरी जाने के लिए रवाना हुए! उनके साथ माँ-जननी, बन्धु शरदबाबू, डॉ. सुनीलचन्द्र तथा भतीजी इला ये भी थे। अपने प्रिय रंगाकाकाबाबू की उस हालत को देखकर इला की आँखों से बह रहे आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे।

१० मार्च! अधिवेशन का पहला दिन! जबलपुर स्टेशन पर त्रिपुरी अधिवेशन की स्वागत समिति बँडबाजे के साथ सुभाषबाबू की राह देख रही थी। कोलकाता से ठेंठ गाड़ी न होने के कारण अध्यक्ष मुंबई होकर आने की ख़बर उन्हें मिल चुकी थी। लेकिन क्या वे यक़ीनन आ रहे हैं, इसका अँदाज़ा किसी को नहीं था। स्वागत के लिए हालाँकि भीड़ तो काफ़ी इकट्ठा हुई थी, लेकिन कुल मिलाकर माहौल बेजान ही था। पीछले वर्ष हरिपुरा में हुए स्वागत के विपरित दृश्य यहाँ दिखायी दे रहा था।

अजीबोंग़रीब बीमारी

इतने में मेल आ गयी। तिरंगे ध्वजों द्वारा सजाये गये डिब्बे में से डॉ. सुनील प्लॅटफॅर्म पर उतर गये, लेकिन अध्यक्ष नहीं उतरे। तब फूलमालाएँ, गुलदस्तें हाथ में लेकर स्वागत समिति के सदस्य डिब्बे में घुस गये और भीतरी दृश्य को देखकर भौंचक्का रह गये। स़फेद खादी के कपड़ों में बीमारी की बुरी हालत से ग्रस्त सुभाषबाबू को बर्थ पर लेटा हुआ देखना बहुत ही कष्टप्रद था। सुभाषबाबू की बीमारी की ख़बरें, डॉक्टरों का निवेदन हालाँकि अख़बारों में नियमित रूप से प्रकाशित किया जा रहा था, मग़र तब भी सुभाषविरोधक उसपर रत्ती भर भी यक़ीन करने के लिए तैयार नहीं थे। उनके नज़रिये से सुभाषबाबू ‘राजकीय बुख़ार’ से पीड़ित थे। इसीलिए जाँच-पड़ताल के उद्देश्य से स्वागत समिति के साथ एक डॉक्टर को भी नियुक्त किया गया था! डॉक्टर साहब ने जब जाँच की, तब पता चला कि सुभाषबाबू को १०४ डिग्री बुख़ार था।

उसी समय स्ट्रेचर और अ‍ॅम्ब्युलन्स मँगवाये गये और उनके ज़रिये अध्यक्ष को अधिवेशन स्थल तक ले जाया गया। अध्यक्ष को इस तरह स्ट्रेचर पर लेटाकर अ‍ॅम्ब्युलन्स की ओर ले जाते हुए देखकर उपस्थित समूह का कलेजा काँप उठा। जयकार के नारे देने की हिम्मत तक कोई जुटा न सका और बँडबाजे ने भी उसी तरह मौन धारण कर लिया था!
….और इस तरह आत्मीयता का अभाव सुभाषबाबू को वहाँ पग पग पर महसूस हो रहा था। हालाँकि सुभाषबाबू को खाने में परहेज़ रखना अनिवार्य था, लेकिन एक व्यक्ति के लिए अलग से इस तरह की सुविधा प्रदान करना मुमक़िन नहीं होगा, ऐसा स्वागत समिति द्वारा बताया गया।

सुभाषबाबू को स्वागत समिति द्वारा स्वयं इस हालत में देखने तथा स्थानीय डॉक्टरों द्वारा जाँच किये जाने के बावजूद भी सुभाषविरोधकों के दिल को तसल्ली नहीं मिल रही थी। उन्होंने अधिवेशन में उपस्थित मुंबई इलाक़े के स्वास्थ्यमन्त्री एवं मशहूर डॉक्टर गिल्डर द्वारा सुभाषबाबू की पुनः जाँच करवायी। उनकी भी रिपोर्ट यही थी – तबियत काफ़ी नाज़ुक स्थिति में! साथ ही उन्हें जल्द से जल्द बड़े अस्पताल में ले जाना ज़रूरी है, यह परामर्श भी डॉक्टरों ने दिया।

आख़िर जवाहरलालजी से रहा नहीं गया और सुभाषबाबू से मिलकर ‘अब तो अपनी ज़िद छोड़कर अस्पताल में भर्ती हो जाइए’ यह सलाह उन्हें दी। लेकिन सुभाषबाबू ने, यह मुमक़िन नहीं है, ऐसा साफ़ साफ़ कहा। त्रिपुरी में से भले ही मेरा शव बाहर निकले, तो कोई हर्ज़ नहीं है, लेकिन अधिवेशन में मैं अवश्य उपस्थित रहूँगा ही, यह उन्होंने निर्धारपूर्वक जवाहरलालजी से कहा।

सुभाषविरोधक कई कारणों से उनसे नाराज़ थे। किसी को लग रहा था कि वे गाँधीजी को चुनौती दे रहे हैं, तो किसी को और कुछ। लेकिन एक वर्ग एक अलग ही कारणवश उनसे ख़फ़ था। सन १९३५ के चुनाव जीतकर काँग्रेस ने कई इलाक़ों में सत्ता प्राप्त की। लेकिन सत्ता का स्वीकार करने से काँग्रेस की वीरवृत्ति का र्‍हास हो रहा है, यह सुभाषबाबू की राय होने के कारण, काँग्रेस को सत्ता को त्यागकर सड़क पर उतरना चाहिए ऐसा उनका आग्रह था। साथ ही, ये चुनाव हुए थे, रियासतों को छोड़कर बाक़ी के भारतवर्ष में। अत एव ये चुनाव, महज़ एक आगे बढ़ाया गया कदम, इससे ज़्यादा कोई मायने नहीं रखते थे। तत्कालीन भारतीय रियासतदारों को फ़ुसलाकर अँग्रेज़ों ने कुटिलतापूर्वक ग़ैररियासती भारत और रियासती भारत इनके एकत्रित संघराज्य (फेडरेशन) के प्रस्ताव का गाजर दिखाकर ख़याली पुलाव पकाने में रिझा दिया था। लेकिन छः सौ से अधिक छोटी-बड़ी रियासतों के समावेश से बना ढ़ीलाढ़ाला संघराज्य भला कहाँ तक टिक सकता है, इसका एहसास रहने के कारण सुभाषबाबू इस संघराज्य के प्रस्ताव का विरोध कर रहे थे; वहीं, एक एक पड़ाव को पार कर प्राप्त होनेवाले स्वराज्य के समर्थक रहनेवाले सुभाषविरोधक, संघराज्य के प्रस्ताव को स्वीकार करने के पक्ष में होने के कारण उनका सुभाषविरोध चरमसीमा तक पहुँच चुका था। संघराज्य के प्रस्ताव को ठुकराना सत्ता का त्याग करने जैसा था। इसीलिए हालाँकि सुभाषविरोधक समूह के अग्रणी नेता सत्ता के लालची नहीं थे, मग़र तब भी चुनाव के बाद विभिन्न इलाक़ों के प्रधानमन्त्री बने नेता और उनके साथ कुर्सी पर बैठे अन्य ग़ौण दर्ज़े के नेता सुभाषबाबू की इस भूमिका से नाराज़ थे। (लेकिन ऐसा होने के बावजूद, आगे चलकर भारत को आज़ादी मिलने के बाद, सुभाषबाबू को जिस तरह के ढ़ीलेढ़ाले संघराज्य का ख़तरा मँड़राता हुआ पहले से दिखायी दे रहा था, उसका खतरे का सामना करने की नौबत जब आयी, तब भारत सरकार ने गृहमन्त्री सरदार वल्लभभाई पटेल की देखरेख में सभी रियासतों का भारत में विलीनीकरण कराके इस चिन्ता से हमेशा के लिए छुटकारा पा लिया, यह बात ग़ौर करने लायक है। ख़ैर!)

तो इस तरह शतरंज के मोहरों की चाल चलते हुए ही त्रिपुरी अधिवेशन की शुरुआत हुई।

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