६५. ‘नाझी’ संकट

दूसरे विश्वयुद्ध का जनक अडॉल्फ हिटलर

इसवीसन १९३० के दशक में घटित हो रहे इस सारे घटनाक्रम के साथ ही, ज्यूधर्मियों के लिए अत्यधिक अनिष्ट ऐसा संकट खड़ा हो रहा था – सन १९३३ में जर्मनी में हिटलर के नेतृत्व में होनेवाली नाझी पार्टी ने सत्ता हस्तगत की थी!

३० जनवरी १९३३ को हिटलर सत्ता में आने के कुछ ही समय में, जर्मनी में निवास करनेवाले ज्यूधर्मियों को उसकी आँच महसूस होने लगी। ज्यूधर्मीय स्वभावतः ही मेहनती और उद्यमशील होने के कारण कई बार प्रतिकूल परिस्थिति में भी टिके रहते थे। वैसा ही जर्मनीस्थित ज्यूधर्मियों के बारे में भी घटित हो रहा था। पहले विश्‍वयुद्ध के विजेता दोस्तराष्ट्रों ने, हारे हुए जर्मनी पर जो मानहानिजनक शर्तें थोंपी थीं और जर्मनी नज़दीकी भविष्य में पुनः खड़ा ही न हो सकें इसलिए दोस्तराष्ट्रों ने जर्मनी का जो घोर शोषण करना शुरू किया था, उस कारण जर्मन अर्थव्यवस्था रसातल में पहुँच चुकी थी। लेकिन ज्यूधर्मीय दृढ़तापूर्वक टिके हुए थे।

हिटलर को जब यह महसूस हुआ कि जर्मन अर्थव्यवस्था हालाँकि डाँवाडोल हो चुकी है, लेकिन जर्मनीस्थित ज्यूधर्मियों का तो सबकुछ अच्छे से चल रहा है; लेकिन ये ज्यूधर्मीय जर्मनी में रहने के बावजूद भी जर्मनीदेश की अपेक्षा अपने ‘ज्यू’धर्म को अधिक नज़दीकी मानते हैं और इन ज्यूधर्मियों को दुनिया के अन्य देशों में से, यहाँ तक कि दोस्त राष्ट्रों (अ‍ॅलीज़्) में स्थित ज्यूधर्मीय भी लगातार सहायता करते रहते हैं; तब उसके दिल में ज्यूधर्मियों के बारे में ग़ुस्सा उत्पन्न हुआ। अन्य कारण भी थे ही।

कई स्थानों कीं आर्थिक बागड़ोरें ज्यूधर्मियों के ही हाथ में होने के कारण हिटलर ने उन्हें ‘पूँजीवादी’ (‘कॅपिटलिस्ट्स’) यह लेबल चिपकाया। उसीके साथ, पश्‍चिमी जगत् को जिससे अत्यधिक नफ़रत थी, उस कम्युनिझम के तत्कालीन कई नेता ये ज्यूधर्मिय होने के कारण ‘कम्युनिझम यानी कि ज्यूधर्मीय ही’ ऐसा समीकरण हिटलर के दिल में जागने लगा। दरअसल कम्युनिझम कॅपिटलिझम का विरोध करता है। इस कारण – ‘ये दोनों भी ज्यूधर्मीय कैसे हो सकते हैं’ ऐसा प्रश्‍न स्वाभाविक रूप में उत्पन्न होता है, लेकिन वह हिटलर से पूछने हिम्मत उस दौर में किसी के पास भी नहीं थी। हिटलर ने भी अपने इन दो प्रतिपादनों के द्वारा व्यक्त हो रहे विरोधाभास की ओर अनदेखा कर दिया। अर्थात् ‘पूँजीवाद’ (कॅपिटलिझम) और ‘कम्युनिझम’ इन दोनों भी, पूरी तरह एकदूसरी की दुश्मन होनेवालीं विचारधाराओं के लिए यानी ‘मानवजाति पर के परस्परविरोधी संकटों के लिए’ हिटलर ने ज्यूधर्मियों को ही ज़िम्मेदार ठहराया।

यानी कुल मिलाकर पूरी दुनिया में ही जो कुछ भी बुरा घटित हो रहा है, उसका कारण ज्यूधर्मीय ही हैं और ज्यूधर्मिय पूरी दुनिया पर ही कब्ज़ा करने के ़ख्वाब देख रहे हैं, ऐसी धारणा उसके मन में बन गयी।

उसके बाद उसने जर्मन ज्यूधर्मियों को जर्मनी में समाजबाह्य करने के, जर्मन अर्थव्यवस्था में से, जर्मन राजकीय व्यवस्था में से निकाल बाहर करने के बाक़ायदा उपक्रम शुरू किये। ज्यूधर्मियों को धमकाने के और विभिन्न रूप में परेशान करने के वाक़ये धीरे धीरे बढ़ने लगे।
उसके निषेध के रूप में ज्यूधर्मियों ने जर्मन उद्योगधंधों का बहिष्कार करने की घोषणा की। लेकिन उसपर बहुत समय तक अमल न करते हुए, अल्प अवधि में से उसे पीछे लिया गया था।

हिटलर ने सत्ता में आते ही जो ज्यूविरोधी नीति अपनायी, उसमें ज्यू उद्योगधंधों का बहिष्कार यह महत्त्वपूर्ण कदम था।

लेकिन उसका बहाना बनाकर उसके बाद ज्यूधर्मियों के उद्योगधंधों का राष्ट्रीय बहिष्कार करने का क़ानून जर्मनी में जारी किया गया। उसके लिए ऐसी वजह दी गयी थी कि यह केवल ज्यूधर्मियों की उपरोक्त कृति के प्रतिसादस्वरूप है। लेकिन यह क़ानून कुछ खास प्रभावी साबित नहीं हुआ, क्योंकि जर्मन लोगों ने ज्यूधर्मियों के साथ होनेवाले कारोबारी संबंध कभी खुले आम, तो कभी गोपनीय रूप में बरक़रार रखे थे।

उसीके साथ हिटलर ने ज्यूधर्मियों को लक्ष्य बनाते हुए, वंशभेद का पुरस्कार करनेवाले कई स़ख्त क़ानून जारी किये। इनके तहत सर्वप्रथम जर्मन और ज्यूधर्मीय के बीच के विवाहसंबंधों पर पाबंदी लगायी गयी।

दुनिया की कुल जनसंख्या का ही हिटलर ने – ‘उच्च वर्गों के’ और ‘कनिष्ठ वर्गों के’ ऐसा खुद ही वर्गीकरण किया था। ‘उच्च वर्ग के लोग दुनिया पर राज करने के लिए, तो कनिष्ठ वर्ग के लोग ग़ुलामी करने के लिए हैं; लेकिन उनमें से भी कुछ कनिष्ठ वंशों के लोग ज़िन्दा रहने के भी लायक नहीं हैं’ ऐसा उसका आग्रही मत था। ज्यूधर्मीय ये हिटलर के मतानुसार ऐसी कनिष्ठ वंश के थे; वहीं, जर्मन वंश यह उसके मतानुसार उच्च वर्ग का था। हिटलर इस मामले में इतना दुराग्रही था कि ऐसे उच्च (जर्मन) वंश का खून शुद्ध ही होना चाहिए इस धारणा से उसने, जर्मनों में भी आनुवंशिक बीमारियाँ होनेवाले, किसी क़िस्म की स्थायी शारीरिक व्याधि होनेवाले, इस प्रकार के लोग चुनकर उन्हें ‘मारकर नष्ट करने के’ गुट में समाविष्ट किया था।

जगहों-जगहों से निकाल बाहर कर दिये ज्यूधर्मियों के लिए इस तरह की ज्यू बस्तियाँ (ज्यू घेट्टोज्) बनायी गयीं।

ऐसे क्रूरकर्मा हिटलर ने जर्मनी की सत्ता संपादन करने के बाद जर्मन ज्यूधर्मियों पर मानो बिजली ही टूट पड़ी। उस दौर में जर्मनीस्थित ज्यूधर्मीय खौफ़ के माहौल में ही जी रहे थे। कई ज्यूर्मियों ने रात ही रात गुप्त रूप में अन्यत्र स्थलांतरण कर या फिर महीनों तक ख़ुफिया तहखानों में निवास करते हुए, बाहरी दुनिया से संपर्क तोड़कर अपनी जान बचाने की कोशिशें कीं। उनमें से भी कई लोग, कभी अचानक, तो कभी किसी ने विश्‍वासघात किया होने के कारण, जर्मन पुलीस के शिकंजे में आ गये और मारे गये।

आगे चलकर दूसरा विश्‍वयुद्ध शुरू हो जाने के बाद तो, देश के सभी संसाधन युद्धकार्य के लिए ही उपयोग में लाये जा रहे होने के कारण, उसका फ़ायदा उठाकर, किसी भी ज्यूविरोधी कृति के ‘युद्ध की ज़रूरत’ (‘वॉर ईमर्जन्सी’) यह वजह बतायी जा रही थी। किसी के घर पर कब्ज़ा करना है, क्यों – ‘युद्ध की ज़रूरत’; किसी के उद्योगधंधे पर कब्ज़ा करना है, क्यों – ‘युद्ध की ज़रूरत’!

नाझियों की क्रूरता की गवाही देनेवालीं जो कहानियाँ आगे चलकर दुनिया के सामने आयीं, उनमें १३ वर्षीय ज्यू लड़की ऍने फ़्रँक की डायरी यह महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ माना गया।

अधिकांश बार जब ऐसे ज्यूधर्मियों को उनके उनके घर से बाहर निकाला जाता था, तब उन्हें ऐसा बताया जाता था कि उनके लिए ख़ास निर्माण की गयीं बस्तियों (घेट्टोज्) में उन्हें ले जाया जा रहा है। लेकिन कइयों को कॉन्सन्ट्रेशन कँप्स, ज़हरीले गॅस चेंबर्स आदि स्थानों में भेजकर या फिर सीधे गोलियाँ बरसाकर मौत के घाट उतार दिया जाता था। उस दौर में जर्मनी में कितने ज्यूधर्मीय मारे गये, उसके प्रकाशित हुए आँकड़ें भी स्तिमित कर देनेवाले हैं।

इस जानलेवा कालखंड की आगे चलकर जो कहानियाँ प्रकाशित हुईं, वे भी रौंगटें खड़े कर देनेवाली हैं। उनमें से ‘अ‍ॅने फ्रँक’ नामक एक १३ वर्षीय ज्यूधर्मीय लड़की की डायरी दुनिया भर में विख्यात हुई। जर्मन पुलीस के ख़ौफ़ से ऊबकर उसके पिताजी (ऑटो फ्रँक) ने नेदरलँड्सस्थित अ‍ॅम्स्टरडॅम में अपने परिवार को गुप्त रूप में स्थलांतरित किया। आगे चलकर हिटलर ने दूसरे विश्‍वयुद्ध में नेदरलँड्स पर कब्ज़ा कर देने के बाद सन १९४२ में फ्रँक परिवार अज्ञातवास में चला गया। उसके बाद के दो साल उसके परिवार ने, उसके पिताजी की सेक्रेटरी की मदद से एक ईमारत के पीछले हिस्से में होनेवाले एक खुफ़िया कमरे में खुदको बन्द कर लिया था। उनके इस दौर में उन्होंने हररोज़ जो कुछ भी अनुभव किया, उसे अ‍ॅना ने इस डायरी में लिखकर रखा था। दो साल बाद उनका परिवार, किसी ने गद्दारी कर देने के कारण जर्मन पुलीस के हाथ लग गया। कॉन्सन्ट्रेशन कॅम्प में ले जाने के बाद उसके पिताजी को उनके परिवार से अलग कर दिया गया। आगे चलकर सोव्हिएत सेना के सामने जर्मनी ने शरणागति मान लेने के बाद पिताजी की रिहाई हो गयी, लेकिन तब उन्हे यह पता चला कि उनके परिवार की कॉन्सन्ट्रेशन कॅम्प में मृत्यु हुई है। उसके बाद अ‍ॅम्स्टरडॅम लौटने पर अ‍ॅने की डायरी जो उनकी सेक्रेटरी ने जैसे तैसे बचायी थी, वह उसने उनको लौटा दी। उन्होंने अपनी बेटी की यह डायरी ‘द डायरी ऑफ अ यंग गर्ल’ इस नाम से पुस्तक के रूप में प्रकाशित की। उसमें से भी कई बातें दुनिया के सामने आयीं। आगे चलकर इस विषय पर कई सिनेमाज़ भी बनाये गये।

हिटलर ने सत्ता संपादन कर लेने के बाद ज्यूधर्मियों के पीछे लगा हुआ यह बदले का सिलसिला, जर्मनी दूसरे विश्‍वयुद्ध में हार जाने के बाद ही ख़त्म हुआ।(क्रमश:)

– शुलमिथ पेणकर-निगरेकर

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