स्नायुसंस्था भाग – ०५

 

अब हम हृदय के स्नायुओं का अध्ययन करेंगे। गर्भावस्था के दूसरे माह से जन्म से लेकर मृत्यु तक हृदय निरंतर कार्यरत रहता है। जोर-जोर से हृदय के ‘लब-डब’ की आवाज हमें प्रतीत होती है और कभी-कभी सुनायी भी देती है(बिना किसी भी यंत्र की सहायता से)। लब-ड़ब यह ध्वनि हृदय के एक आकुंचन-प्रसरण के एक आर्वतन का निर्देश करती है। ऐसी यह क्रिया निरंतर शुरु ही रहती है। हमारे शरीर के स्नायु भी क्षमता से ज्यादा काम करने पर थक जाते है, शिथिल हो जाते हैं। परन्तु हृदय के स्नायु बिना थके हुये (fatigue) आजीवन कार्य कैसे कर सकते हैं, यह हम आज समझने वाले हैं।

heart- हृदय के स्नायु

हृदय के स्नायु भी striated स्नायु के रुप में जाने जाते हैं। इनमें भी स्केलेटल स्नायुओं की तरह सारकोमिअर आकुंचन की सूक्ष्म युनिट होती है। आकुंचन कराने वालीं प्रथिने यानी मायोसिन / अॅक्टीन वहीं होती हैं। कार्य के लिये ATP की ही शक्ती उपयोग में लायी जाती है। परन्तु यहाँ पर ही इन दोनों स्नायुओं की सहधर्मीयता भी समाप्त हो जाती है। रचना, कार्य और विकास इन तीनों के बारे में इनमें भिन्नता है। अब हम इस भिन्नता का अध्ययन करेंगे।

रचना की विशेषता :

मायोकार्डीयम, हृदय का आकार और वस्तुमान का प्रमुख भाग होता है। मायोकारडीयम, पूर्ण रूप से स्नायु पेशियों से बना होता है। ये पेशी साधारणत: १०० मिमी लम्बी व १० से १५ मायक्रोमीटर मोटी होती हैं। पेशी के दोनों किनारो पर इसमें से अनेकों शाखायें निकलती हैं और ये शाखाएँ दूसरी स्नायु  पेशियों की शाखाओं के साथ जुड़ती हैं। इन पेशियों में एक ही केन्द्रक होता है। प्रत्येक पेशी में अनगिनत माइटोकॉन्ड्रीया होती हैं। माइटोकॉन्ड्रीया हमारे शरीर की प्रत्येक पेशी में स्थित एक छोटा सा कारखाना है। रक्त के माध्यम से आने वाले अन्नघटक और प्राणवायु के कच्चे माल का उपयोग करके उससे ‘ऊर्जा’ नामक पक्के माल का निर्माण यह कारखाना करता है। अर्थात पेशी के कार्यों को उर्जा की आपूर्ति करने का काम माइटोकॉन्ड्रीया का होता है। बिना थके, बिना रुके, सतत कार्य करनेवाली हृदय की पेशी को उतनी ही सततता के सातह पर्याप्त उर्जा की आपूर्ति करने के लिये यहाँ पर इनकी संख्या ज्यादा होती हैं।

रक्त की हिमोग्लोबिन की तरह ही प्राणवायु से संयोग करने वाली मायोग्लोबिन नामक पिगमेंट स्नायु पेशी में होती है। हृदय की स्नायु पेशी में इनकी मात्रा काफी ज्यादा होती है। साथ ही साथ प्रत्येक स्नायुतंतु के चारो ओर रक्तवहन करने वाली केशनलिकाओं का जाल ज्यादा घना होता है।

कार्य की दृष्टि से भी स्केलेटल स्नायु व हृदय के स्नायुओं में कुछ महत्त्वपूर्ण अंतर हैं। स्केलेटल स्नायु में प्रत्येक स्नायुतंतु की आंकुचन का ओर एक-दूसरे से मिलकर (summation) होकर स्नायु की शक्ती बनती हैं। हृदय के स्नायु में मात्र सर्व स्नायुतंतू एक ही साथ आकुंचित होती हैं।

स्नायु का आकुंचन व प्रसरण, उनमें होने वाले विद्युत प्रवाह पर अवलंबित होता है। इस विद्युत प्रवाह का वहन सभी पेशियों में से होता है (conductance) स्केलेटल स्नायु में जब वे कार्यरत रहते हैं तो उतने समय तक ही विद्युतप्रवाह का वहन चेतातंतु में से स्नायुपेशी की ओर होता रहता है। परन्तु हृदय में कार्य सतत शुरु रहता ही रहता है। इसके लिये विद्युतप्रवाह का वहन सतत होना आवश्यक होता है। विद्युतप्रवाह का वहन करनेवाले कुछ वैशिष्ट्यपूर्ण पेशीसमूह हृदय में होते हैं। अब हम उसके बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे।

किसी भी बाहरी सहायता के बिना, सतत आकुंचन व प्रसरण करते रहना हृदय के स्नायुओं की विशेषता है। इसके लिये लगने वाले इलेक्ट्रीकल इपंल्स हृदय की पेशी में ही बनते हैं तथा इनका वहन पूरे हृदय में होता है। यदि हृदय का कोई भी भाग काटकर अलग कर दें अथवा एक स्नायुपेशी (मायोसाईट) अलग निकाल दें तो भी वे स्वयं ही इलेक्ट्रीक इंपल्स बन सकती हैं।

सोडिअम अणु की स्नायुपेशी के अंदर व बाहर होनेवाले प्रवाह पर यह अवलंबित होता है। हृदय के एक विशिष्ट भाग की पेशी की एक विशिष्ट रिदम (rhythm) ये इलेक्ट्रीक इंपल्स तैयार करती हैं। इन पेशियों को हृदय का पेसमेकर्स कहा जाता है। यहाँ पर निर्माण हुए विद्युत प्रवाह को संपूर्ण हृदय की पेशियों तक पहुँचाने का काम कुछ विशिष्ट तंतु करते हैं। इसके लिये हृदय में कुल तीन प्रकार की पेशियां होती हैं-

१) (p-cells) अथवा पेसमेकर पेशी

२) ट्राझिशनल पेशी

३) परकिंजे तंतु

हृदय का जो सायनोएट्रियल जोड़ नामक हिस्सा होता है, वहाँ पर ये ‘पी’ पेशी अथवा पेसमेकर्स पेशी होती हैं। (इससे पहले हमने यह देखा है कि हृदय के स्नायु की प्रत्येक पेशी इलेक्ट्रीक इंपल्स बना सकती है। सायनोअॅट्रियल पेशी में यह इंपल्स बना सकती हैं। सायनोअॅट्रीयल पेशी में इन इंपल्सों के बनने की गति सब हो ज्यादा होती है। (rapid rhythm) इसीलिये वहीं इंपल्स पूरे हृदय में फ़ैल जाता है। पेसमेकर पेशी में बना हुआ विद्युतप्रवाह, सर्वप्रथम हृदय के ऊपरी भागों के जिन्हें एट्रिया कहते हैं, स्नायुओं में फैलाता है। बाद में यह प्रवाह ए. व्हि. अथवा एट्रिओ-व्हेट्रिक्युलर जोड़ में पहुँचता है। यहाँ से यह प्रवाह हृदय के निचले हिस्सों, जिन्हें व्हेंट्रिकल्स कहत हैं की, स्नायुओं में पहुँचता है। यह एट्रिया की तुलना में ४० मिलीसेकेड़ विलम्ब से पहुँचता है। यह विलम्ब (delay) हृदय के कार्य की दृष्टि से, महत्त्वपूर्ण होता है। इस विलम्ब के कारण व्हेट्रिकल्स का आकुंचन शुरु होने से पहले एट्रिया में से सारा रक्त व्हेंट्रिकल्स में पहुँच जाता हैं।

ए. व्ही. जोड़ के आगे ट्राझिशनल पेशी का गठ्ठा होता है। इसे bundle of his कहते हैं। सर्वप्रथम यहाँ पर विद्युतप्रवाह आता है और फिर परकिंजे तंतु के माध्यम से संपूर्ण व्हेंट्रिकल्स के स्नायुओं में फैलता है। इस पेशी में विद्युत प्रवाह का वहन अत्यंत वेग यानी २-३ मीटर्स प्रति सेकंड के वेग से होता है। वहीं आगे चलकर पेशीयों में यही वेग कम (०.६ मी./ सेकं ड़) हो जाता है। फलस्वरूप हृदय से रक्त मुख्य रक्तवाहनियों में पहुंचना आसान हो जाता है।

सायनोएट्रिअल नोड़ – यह लंबवर्तुलाकार होता है। इसकी लम्बाई १० से २० मिमी. तक होती है। इसके मध्यभाग पर एक बड़ी शुद्ध रक्तवाहिनी होती है तथा उसके चारों ओर ‘p’ पेशी होती हैं। मध्यभाग से दूर जाते-जाते ‘p’ पेशी की संख्या कम होती जाती है। इस पेशी के मध्य भाग में केन्द्रक होता है। परन्तु पेशी का शेष भाग रिक्त अथवा खाली होता है। क्योंकि पेशी के अन्य घटक ग्लायकोजेन अत्यंत अल्प होती ह और मायोफाइब्रिल्स भी काफीकम होती है।

अॅट्रिओेव्हेंट्रिक्युलर नोड़ अथवा ए.व्ही.नोड़ :

इसकी रचना भी उपरोक्त वर्णन के अनुसार ही होती है। परन्तु इसमें ट्रान्झिशनल पेशियों की संख्या ज्यादा होती है। ये दोनों जोड्स के बीच में पेशी-पेशी के संपर्क व जोड़ में ‘p’ और ट्राझिशनल पेशी का स्नायुपेशी के साथ संपर्क अत्यल्प होता है।

परकिंजे तंतु :

यह तंतु अर्थात एक-एक पेशी को जोड़कर बनी रेखा होती है। इस पेशी की मोटाई (३० मा.मी.) लम्बाई (२० मा.मी.)की तुलना में ज्यादा होती है। पेशी में माइटोकॉन्ड्रीय भरपूर होते हैं और ग्लायकोजेन और अॅसिटाईलकोलिन एस्टरेज का प्रमाण भरपूर होता है।

हृदय के चेतातंतु :

हृदय के आंकुचन प्रसरण का रिदम उसकी पेशी से ही निर्माण होता है, फिर  भी चेतासंस्था का असर उस पर होता है। हृदय को ऑटोनोमिक चेतासंस्था से सिंपथेटिक व पॅरासिंपथेटिक चेतातंतुओं की आपूर्ति होती है। इससे हम यह समझ सकते हैं कि हमारे हृदय की धड़कनों पर किसी का भी नियंत्रण नहीं हैं। इन चेतातंतुओं के कार्यो की आपूर्ति होती है। इससे हम यह समझ सकते हैं कि हमारे हृदय की धड़कनों पर किसी का भी नियंत्रण नहीं हैं। इन चेतातंतुओं के कार्यों की भी एक विशेषता है।

सिंपथेटिक चेतातंतु में, बायीं ओर के चेतातंतु सिर्फ व्हेंट्रिकल्स का आकुंचन अथवा आकुंचन की शक्ती बढ़ाते हैं। हृदय की धड़कन पर उसका कुछ भी असर नहीं होता। वहीं पर दाहिनी ओर के तंतु धड़कन और आकुंचन दोनों पर असर करते हैं। पॅरासिंपथेटिक चेतातंतू भी इसी तरह कार्य करते हैं। इन्हें वेगस् नर्व्ह कहते हैं। दाहिनी वेगस् नर्व्ह सायनोएट्रिअल नोड़ पर कार्य करके हृदय की धड़कन कम करती है तथा बायी, वेगस् नर्व्ह ए.व्हि.नोड़ से होने वाले विद्युत वहन को कम करके धड़कन की संख्या कम करती है।

हृदय के स्नायुओं को होनेवाली रक्त की आपूर्ति :

ये पेशी प्रत्येक दिन के चौबीसों घंटे तक निरंतर कार्यरत रहती है। अत: इन्हें उर्जा की निरंतर आपूर्ति होना आवश्यक होता है। इस आपूर्ति के लिये काफीमात्रा में प्राणवायु की आवश्यकता होती हैं। इसे साध्य करने के लिये उतनी ही ज्यादा मात्रा में रक्त की आपूर्ति हृदय को की जाती है। प्रत्येक मिनट में होनेवाली रक्त की आपूर्ति को उस पेशी का परफ्युजन रेट कहा जाता है। हृदय की पेशी में यह रेट ०.५ मिली / मिनीट / ग्रँम पेशी होता है। जो लिव्हर की तुलना में पॉच्युना व स्केलेटल स्नायु की तुलना में १५ गुना अधिक होता है। यहाँ पर ऐसी ही रचना होती है कि जिससे प्रत्येक स्नायुपेशी के बिल्कुल पास से रक्तवाहिनी गुजरे। हृदय के बांयी ओर की व्हेंट्रिकल सबसे ज्यादा कार्य करती होती है।

हृदय में इलेक्ट्रिकल इंपल्स बनाने वाली व उसका वहन करनेवाली पेशी, अन्य मायोकार्डिअम की पेशियों की तुलना में भिन्न होती हैं। यह भिन्नता गर्भ के कुछ शुरुवाती दिनों में ही निश्चित हो जाती है।

स्केलेटल स्नायु के विकास के दौरान तैयार होने वाली कुछ पेशियाँ (सॅटेलाइट पेशियाँ) स्नायु के पूर्ण विकास के बाद भी स्नायु में बड़ी संख्या में पायी जाती है। दुर्घटना में अथवा बीमारी में स्नायुपेशी के नष्ट  होने पर नयी स्नायुपेशी का पुनर्निर्माण (regeneration) करने का काम से सॅटेलाइट पेशियां करती हैं। हृदय के स्नायुओं में ये सॅटेलाइट पेशियां ही नहीं होती हैं। जिसके कारण यदि किसी वजह से (ischemia) अथवा रक्त की आपूर्ति कम हो जाने से) हृदय की पेशियाँ नष्ट हो जायें तो उनकी जगह नयी पेशियाँ नहीं बनती। जख्म का निशान सदैव हृदय के स्नायु पर रहता है। यदि हृदय के किसी भाग की रक्त की आपूर्ति काफीसमय तक और काफीमात्रा में खंडित हो जायें तो वहाँ की पेशियाँ प्राणवायु के अभाव से नष्ट हो जाती हैं। इस समय शरीर के जो लक्षण दिखायी देते हैं उन्हें ही हम हार्ट अॅटॅक (दिल का दौरा) कहते हैं। वैद्यकीय परिभाषा में इसे मायोकार्डिअल इन्ङ्गार्क्ट (myocardial infarct) कहते हैं।

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