६९. १९३९ की ज्यू-अरब लंडन परिषद ब्रिटीश सरकार की श्‍वेतपत्रिका

१९३९ की इस लंडन कॉन्फरन्स में अरबों ने ज्यूधर्मियों के साथ बैठने से इन्कार किया होने के कारण, दोनों का बैठने का प्रबन्ध अलग अलग दालनों में किया गया था।

ब्रिटीश सरकार द्वारा गठन की गयीं ‘पील कमिशन’ एवं ‘वुडहेड कमिशन’ इन दोनों शाही खोजसमितियों ने प्रयास करने के बावजूद भी, अरब और ज्यूधर्मीय इनके बीच पॅलेस्टाईन में शुरू हुआ प्रतिरोध मिटने का नाम ही नहीं ले रहा था। दोनो समितियों के अहवाल अरबों ने और ज्यूधर्मियों ने अलग अलग कारणों के लिए ठुकरा दिये थे। दोनों पक्ष अपनी अपनी भूमिका से अंशमात्र भी पीछे हटने का नाम न लेते होने के कारण बड़ी ही उलझन खड़ी हो गयी थी।

आख़िरकार पॅलेस्टाईन की इस उलझन का निर्णायक हल निकालने के लिए ब्रिटीश सरकार ने दोनों पक्षों को लंडन में आयोजित चर्चापरिषद का आमंत्रण दिया। दिनांक ७ फ़रवरी १९३९ से लंडन स्थित ‘सेंट जेम्स पॅलेस’ में इस परिषद की शुरुआत की।

लेकिन दोनों पक्षों में समझौता कराने की दृष्टि से बुलायी गयी इस परिषद में भी – ‘ज्यूधर्मीय रहनेवाले दालान में हम नहीं बैठेंगे’ ऐसी चरमसीमा की भूमिका अरबों द्वारा अपनायी जाने के कारण, दोनों पक्षों के प्रतिनिधियों की बैठने की व्यवस्था अलग अलग दालानों में की गयी थी। यहाँ तक कि परिषद के शुभारंभ का कार्यक्रम भी सवा घण्टे के फ़र्क़ से दो बार किया गया – एक बार अरबों की उपस्थिति में, एक बार ज्यूधर्मियों की उपस्थिति में!

उस समय गिरफ़्तारी के डर से भागकर दूसरे देश में पनाह लिया हुआ, जेरुसलेम का ग्रँड मुफ्ती अमीन अल-हुसैनी इसने हमेशा खुलेआम ही ब्रिटीशविरोधी भूमिका अपनायी होने के कारण, उसे परिषद में अरबों की ओर से उपस्थित रहने की अनुमति ब्रिटिशों ने नकारी थी। लेकिन उसके बदले, सेशेल्स में जेल में रखे अरबों के पाँच नेताओं को इस परिषद में उपस्थित रहने की अनुमति दी गयी थी।

लेकिन तेज़ी से बदल रही, युद्ध की दिशा में बदतर होती जा रही आंतर्राष्ट्रीय परिस्थिति को देखते हुए, अरबों को दुखानेवाला कोई भी निर्णय ब्रिटीश लेनेवाले नहीं थे। इस कारण, ज्यूधर्मियों का समाधान हो सकें ऐसा कोई भी निर्णय इस परिषद में होने की संभावना दिनबदिन कम होती जा रही थी।

अरबों के मुद्दों में – पॅलेस्टाईन प्रान्त को आज़ादी बहाल करना, उस पॅलेस्टाईन प्रान्त में ज्यूधर्मियों के ‘नॅशनल होम’ का निर्माण न करना, अन्य प्रान्तों से पॅलेस्टाईन प्रान्त में होनेवाले ज्यूधर्मियों के स्थलांतरण पर पूरी तरह पाबंदी लगायी जाना और उसके अनुसार, ब्रिटीश मँडेट को यथोचित विकल्प साबित हो सके ऐसा समझौता अरबों के साथ किया जाना ये प्रमुख मुद्दे थे।

मुख्य रूप में, पॅलेस्टाईन को स्वतंत्र अरब राज्य बनाने के अरबों के मनसूबे जिस मूल सन १९१८-१९ के पत्र-व्यवहार पर आधारित थे, उसमें होनेवाले संदिग्ध शब्दप्रयोगों का वास्तविक अर्थ लगाकर, उसकी सत्यासत्यता की जाँच करने का काम इस परिषद में सर्वप्रथम हाथ में लिया गया। (‘मॅकमोहन कॉरस्पॉन्डन्स’ नाम से जाना जानेवाला, ब्रिटीश और मक्का का पूर्व शरीफ हुसेन बिन अली इनके बीच का यह पत्र-व्यवहार था, जिसमें – ‘पॅलेस्टाईन में ऑटोमन्स के खिलाफ़ बग़ावत करने के बदले अरबों को आज़ादी प्रदान करेंगे’ ऐसा आश्‍वासन ब्रिटिशों ने अरबों ने दिया था, ऐसा अरबों का कहना था।)

जेरुसलेम के पूर्व ग्रँड मुफ़्ती अल्-हुसैनी के कॉन्फरन्स में सहभागी होने पर ब्रिटिशों द्वारा पाबंदी लगायी जाने के कारण, उसके बदले सेशेल्स में जेल में रखे ५ अरब नेताओं को कॉन्फरन्स में उपस्थित रहने की अनुमति दी गयी थी।

झायॉनिस्ट, नॉन-झायॉनिस्ट, ऑर्थोडॉक्स ऐसी सभी विचारधाराओं के ज्यूधर्मियों का प्रतिनिधित्व करनेवाले ‘ज्युईश एजन्सी’ के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व कैम वाईझमन कर रहे थे; लेकिन इन चर्चाओं पर असली प्रभाव पड़ा, वह डेव्हिड बेन-गुरियन का!

वाईझमन सर्वमान्य ऐसा हल निकालने के पक्ष में थे; वहीं – ‘कोई भी अन्याय्य प्रस्ताव यदि ज्यूधर्मियों पर थोंपे गये, तो सर्वमान्य हल कैसे निकलेगा’ ऐसी बेन-गुरियन की दृढ़ भूमिका थी। उसीके साथ – ‘अब ज्यूधर्मियों का स्थलांतरण किसी भी हालत में नहीं रुकेगा’ ऐसा बेन-गुरियन ने स्पष्ट किया। उसीके साथ, ब्रिटीश मँडेट पॅलेस्टाईन का पहला उच्चायुक्त हर्बर्ट सॅम्युएल, जो ज्यूधर्मीय होने के बावजूद भी उसने ज्यूधर्मियों के विरोध में ही दरअसल काम किया था, उसकी ज्युईश प्रतिनिधिमंडल में हो रही नियुक्ति को रद करवा लेने में बेन-गुरियन क़ामयाब हुए थे।

ज्यूधर्मियों के मुद्दों में – ज्यूधर्मियों की गिनती पॅलेस्टाईन प्रान्त में ‘अल्पसंख्यांक’ वर्ग में न की जाये और प्रान्त के किसी भी भाग में ज्यूधर्मीय ‘अल्पसंख्यांक’ साबित होंगे ऐसा विभाजन न किया जाये; इसपर निर्णायक हल निकाला जाने तक ब्रिटीश मँडेट क़ायम रखा जायें; जब तक इस भूमि की ज्यूधर्मियों को समा लेने की क्षमता है, तब तक ज्युईश स्थलांतरण पर किसी भी प्रकार की पाबंदी न लगाय जाये; पॅलेस्टाईन प्रान्त का विकास जल्द हो इसलिए यहाँ के निवेश में वृद्धि की जाये; ये प्रमुख मुद्दे थे।

‘पील कमिशन’ द्वारा सूचित किया हुआ पॅलेस्टाईन के विभाजन का हल हालाँकि ज्यूधर्मियों को तत्त्वतः मान्य था, फिर भी उस विभाजन के फिलहाल सूचित किये जानेवाले ‘व्हर्जन्स’, ये ज्यूधर्मियों के लिए अन्याय्य होने के कारण वे हमें मान्य नहीं हैं, ऐसी स्पष्टोक्ति बेन-गुरियन ने की।

अरबों के ‘पॅलेस्टाईन को स्वतंत्र अरब राज्य’ बनाने के मनसूबे ब्रिटीश अधिकारी हेन्री मॅकमाहोन और मक्का के शरीफ हुसैन इनके बीच के पत्र-व्यवहार के कथित विवरण पर रचे गये थे।

दोनों तरफ़ के प्रतिनिधियों के मत कुल ५५ बैठकों में दर्ज़ किये गये। लेकिन जैसे जैसे दिन गुज़र रहे थे, वैसे वैसे इन्साफ़ मिलने की ज्यूधर्मियों की उम्मीद मुरझायी जाने लगी थी। बेन-गुरियन ने तो – ‘पॅलेस्टाईन प्रान्त में ज्यूधर्मियों का ‘नॅशनल होम’ बनाने की योजना ख़ारिज कर देने की और ज्यूधर्मियों को हिंसक मनोवृत्ति होनेवाले ‘गँग लीडर्स’ के हाथों में सुपूर्द करने की साज़िश यहाँ बन रही है’ इस आशय का टेलिग्राम जेरुसलेम भेजा, जिसे वहाँ के ‘डावर’ इस स्थानिक वृत्तपत्र ने प्रकाशित किया था। आखरी कुछ दिनों में तो ज्यूधर्मियों ने, चर्चा की बैठकों को छोड़कर, परिषद के अन्य सभी औपचारिक समारोहों का बहिष्कार करने की शुरुआत की थी।

इस प्रकार यह ‘लंडन परिषद’ १७ मार्च १९३९ को, बिना किसी सकारात्मक अंजाम तक पहुँचते हुए, समाप्त हुई।

यह अरब-ज्यू लंडन परिषद असफल हो जाने के बाद ब्रिटीश सरकार ने श्वेतपत्रिका जारी की।

ब्रिटीश उपनिवेशसचिव माल्कम मॅकडोनाल्ड ने – दोनों पक्षों में सुलह कराने में यह परिषद नाक़ाम साबित हुई यह स्पष्ट हो जाने पर, पहले सूचित कियेनुसार ब्रिटीश सरकार की इस मामले में होनेवाली रूपरेखा इकतरफ़ा ही घोषित करना शुरू किया, जिसे आगे चलकर एकत्रित रूप में ब्रिटीश सरकार ने इस संदर्भ में प्रकाशित की हुई श्‍वेतपत्रिका में (‘ब्रिटीश व्हाईट पेपर ऑफ १९३९’) प्रस्तुत किया गया।

इस श्‍वेतपत्रिका में – पॅलेस्टाईन का विभाजन न करते हुए, उसके अंतर्गत ही अगले दस सालों में स्वायत्त ‘ज्युईश नॅशनल होम’ स्थापित करने के बारे में टिप्पणी की गयी थी। ‘अब तक पॅलेस्टाईन प्रान्त केज्यूधर्मियों की संख्या लगभग साढ़ेचार लाख से ऊपर पहुँची होने के कारण, ‘बेलफोर डिक्लरेशन’ में ज्यूधर्मियों को क़बूल किये हुए ‘ज्युईश नॅशनल होम’ की पूर्तता लगभग हुई ही है। इस कारण, अगले दस सालों में पॅलेस्टाईन को आज़ादी प्रदान कर, ब्रिटिशों की देखरेख में धीरे धीरे सत्ता संयुक्त रूप में अरब-ज्यूधर्मीय दोनों के पास हस्तांतरित की जायेगी और दस साल बाद सिंहावलोकन कर, तत्कालीन हालातों के अनुसार फैसले किये जायेंगे। इस दौरान प्रशासन को वरिष्ठ ओहदों पर धीरे धीरे अरब एवं ज्यूधर्मियों को अवसर दिया जायेगा’ ऐसा इस श्‍वेतपत्रिका में कहा गया था। लेकिन पॅलेस्टाईन में स्थलांतरित होनेवाले ज्यूधर्मियों की संख्या पर निर्बंध (‘अगले पाँच सालों में केवल ७५ हज़ार’ इसके जैसे) सुझाये गये थे। उसके बाद के ज्युईश स्थलांतरण का निर्णय अरबों की अनुमति पर निर्भर होगा, ऐसा भी इस श्‍वेतपत्रिका में बताया गया था। उसीके साथ, ज्यूधर्मीय पॅलेस्टाईन में कौनसी और कितनी ज़मीन ख़रीद सकते हैं, उसपर भी पाबंदियाँ लगायीं गयीं थीं।

ब्रिटीश सरकार की इस इकतरफ़ा श्‍वेतपत्रिका पर अरबों की और ज्यूधर्मियों की प्रतिक्रिया कैसी थी?(क्रमश:)

– शुलमिथ पेणकर-निगरेकर

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