क्रान्तिगाथा – ५

एनफील्ड राइफलों में इस्तेमाल किये गये कारतूसों से ऐसा कुछ हो सकता है, यह ब्रिटिश ईस्ट इंडीया कंपनी ने सपने में भी सोचा नहीं था। इन कारतूसों को लगायी जा रही थी गाय और सूअर की चरबी। गाय को हिन्दू पवित्र मानते है और मुस्लिमों के लिए सूअर निषिद्ध है।

Blowing_Mutinous_Sepoys.jpg
Photo Courtesy: wikimedia.org

फिर उनकी चरबी लगाये गयें कारतूसों को मुँह से खोलना यह तो….. इन सब बातों के परिणामस्वरूप ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में सैनिक के रूप में काम करनेवालें भारतीयों के धार्मिक भावनाओं को तो ठेंस पहुँची ही, साथ ही उनके मन में अँग्रेज़ों के प्रति बहुत गुस्सा और असंतोष उमड़ पड़ा। सब से अहम बात यह थी कि इन कारतूसों को कहीं विदेश में नहीं बनाया जाता था, बल्कि अँग्रेज़ भारत में ही इन कारतूसों का निर्माण करते थे और ‘डमडम’ में इन कारतूसों को बनाने का कारखाना भी शुरू हो चुका था।

और भारतीय सैनिकों के मन के क्रोध और असंतोष ने एक अलग ही रूप धारण कर लिया और इसी प्रक्रिया में देश के लिए शहीद होनेवाले पहले भारतीय क्रान्तिवीर सीना तानकर ज़ाहिर रूप से अँग्रेज़ों के खिलाफ खड़े हो गये।

२९ मार्च १८५७ की दोपहर। बराकपुर यह पश्‍चिम बंगाल स्थित, अँग्रेज़ों की फ़ौज का एक थाना था। अँग्रेज़ों द्वारा प्रशासकीय सुविधा की दृष्टि से निर्माण किये गये बंगाल प्रेसिडन्सी का यह थाना था। इस बंगाल प्रेसिडन्सी के फ़ौज की संख्या काफी बड़ी थी। इसमें आसपास के इला़के के लोगों को सैनिकों के रूप में भरती किया गया था।

तो २९ मार्च की उस दोपहर में इस बंगाल नेटिव्ह इन्फनट्री की ३४ वीं टुकड़ी का एक युवा सैनिक परेड़ ग्राऊंड पर अपनी बंदूक लेकर खड़ा हो गया। उसकी इस कृति के पीछे एक ही वजह थी, मातृभूमि के प्रति रहनेवाला प्रेम और उसका उद्देश्य था मातृभमि को ग़ुलामी से मुक्त करना। वह युवा सैनिक अपने बान्धवों को इन खूँखार अँग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिए आवाहन कर रहा था और उसकी बंदूक ने पहला निशाना साधा। उनकी पलटन (प्लटून) कमांडर रहनेवाले लेफ्टनंट बॉ के घोड़े के पैर पर उसकी गोली लगी और घोड़े के साथ घुड़सवार भी ज़मीन पर गिर गया। उस अफसर द्वारा कुछ किये जाने से पहले ही उस सैनिक ने उसपर वार किया, लेकिन अब का यह वार तलवार से किया गया था।

ग़ुलामी की ज़ंजीरों में जकड़ी हुई मातृभूमि की बेड़ियों पर पहला प्रहार करनेवाला यह युवक था – ‘मंगल पांडे’। १९ जुलाई १८२७ को उत्तर प्रदेश के नागवा नाम के गाँव में जन्मे मंगल पांडे अपनी उम्र के बाईसवें वर्ष में यानी १८४९ में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में सैनिक के रूप में भरती हुए थे।

लेफ्टनंट बॉ की सहायता करने दौड़ा मेजर ह्यूसन और उसके अन्य सैनिकों को मंगल पांडे को ग़िरफ्तार करने का हुक़्म दे दिया। लेकिन अपने देशवासी भाई की इस बहादुरी को देखनेवाले सैनिकों ने उस हुक़्म की तामील करने से साफ़ साफ़ इनकार कर दिया। उस ब्रिटिश अफसर को भी मंगल पांडे ने धराशायी कर दिया।

परेड़ ग्राऊंड़ पर हो रही इस घटना की ख़बर तेज़ी से कमांडिंग ऑफिसर तक पहुँच गयी। वह भी बड़ी तेज़ी से घटनास्थल पर दाख़िल हो गया। इस घटना को सुनकर वह ग़ुस्से से खौल उठा था। ग़ुलाम बनाये गये भारतीयों का खून कभी इस तरह से खौल सकता है इस बात की उसने कभी कल्पना तक नहीं की थी।

घटनास्थल पर दाखिल होते ही उसने सब से पहले अपने अधिकार का उपयोग किया यानी मंगल पांडे को ग़िरफ्तार करने का हुक़्म अन्य सैनिकों को दिया और वह भी हाथ में पिस्तौल लिये ही। जो भी सैनिक उसके हुक़्म की तामील नहीं करेगा, वह उसकी गोली का शिकार हो जायेगा ऐसी जान लेने की धमकी भी उसने दी।

एक आम भारतीय फौजी, बहुत बड़ी हुकूमत रहनेवाली अँग्रेज़ी सल्तनत के खिलाफ खड़ा रहता है, यह बात ही उसे हिला देनेवाली थी।
आखिर मंगल पांडे को गिरफ्तार करने में उसे क़ामयाबी मिली। लेकिन इस ज़ुल्मी हुकूमत के हाथों से ग़िरफ्तार होने से मरना बेहतर है यह सोचकर मंगल पांडे ने स्वयं ही स्वयं पर वार कर लिये और वे ज़ख्मी हो गये।

हफ़्ते भर में ही मामले की तफ्तीश की गयी और उसमें उन्हें दोषी क़रार दिया गया। मंगल पांडे ने गुनाह क्या किया था, ‘तो अपनी मातृभूमि को आज़ाद करने के लिए शस्त्र उठाया था और उसे ग़ुलामी की खाई में धकेल देनेवालों पर वार किया था’। दोषी को सज़ा देना यह तो अँग्रेज़ सरकार का फर्ज ही था! इसलिए मंगल पांडे को फाँसी की सज़ा सुनायी गयी।

और ८ अप्रैल को इस सज़ा की तामील भी की गयी। देश की आज़ादी के लिए मंगल पांडे सीना तानकर शहीद हो गये। उनके तुरन्त बाद उन्हें ग़िरफ्तार करने से इनकार करनेवालें जमादार ईश्‍वरी प्रसाद को भी फाँसी दी गयी।

स्वतन्त्रता-यज्ञ में पहली आहुति अर्पण की गयी। शहादत की इस चिंगारी ने स्वतन्त्रता-यज्ञ की ज्वालाओं को प्रखर करना शुरू कर दिया।
इससे पहले अँग्रेज़ों के खिलाफ भारतीय सैनिक भड़क उठे थे, लेकिन उस असंतोष को कुचलने में अँग्रेज़ क़ामयाब हुए थे।

३४वीं बंगाल नेटिव्ह इन्फनट्री के सैनिक रहनेवालें मंगल पांडे के इस इन्क़िलाब की सज़ा बाकी के सैनिकों को भी सामुदायिक रूप से दी गयी। उनसे उनके शस्त्र छीनकर उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया। १९वीं टुकड़ी के सैनिक भी कुछ इस तरह का विद्रोह करनेवाले है इस बात की भनक लगते ही यह सामुदायिक सज़ा उन्हें भी दी गयी।

कहा जाता है कि प्लासी की जंग के बाद एक भविष्यवाणी की गयी थी, जिसके अनुसार प्लासी की जंग के १०० वर्ष बाद ज़ुल्मी अँग्रेज़ों की हुकूमत का अन्त होनेवाला था।

घटना का आरंभ नहीं, बल्कि शुभारंभ हो चुका था और भविष्य के उदर में था – एक बहुत बड़ा इतिहास – क्रान्ति का – विद्रोह का – परिवर्तन का!

Leave a Reply

Your email address will not be published.