क्रान्ति गाथा -३

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उस समय भारत में कई छोटें-बड़े राज्य थे। इन राज्यों पर राज करने वालें कुछ राजाओं में आपसी मित्रता थी तो कुछ राजाओं की आपस में शत्रुता थी। व्यापारी अँग्रेज़ों का उनमें से कुछ ने स्वागत किया, वहीं कुछ राजा उनके प्रवेश के पीछे के हेतु को समझ नहीं सके। यहीं के लोगों को अपनी फ़ौज में शामिल कर लेने वालें अँग्रेज़ों की भूख अब बढ़ने लगी थी। अब बड़े इला़के को वे निगलना चाहते थे।

दक्षिणी भारत में था म्हैसूर का राज्य। वैसे तो फ्रान्सिसी, डच और पुर्तगाली दक्षिणी भारत के किनारों पर आ पहुँचे थे और अपने व्यापारी केन्द्र कार्यान्वित करके कुछ इलाक़ों पर उन्होंने कब्ज़ा भी कर लिया था। सत्ताविस्तार की महत्त्वाकांक्षा जिनके सिर पर सवार हो चुकी थी उन अँग्रेज़ों ने अब अपना रूख कर लिया, म्हैसूर राज्य की तरफ़। उस समय म्हैसूर पर हैदर अली राज कर रहे थे। तब शुरुआत हुई म्हैसूर के संघर्ष की और अँग्रेज़ों की जंगख़ोरी की। एक-दो नहीं, बल्कि कुल चार बार म्हैसूर राज्य और अँग्रेज़ों के बीच जंग छिड़ी थी और इनमें से अधिकतर युद्ध एक साल से भी अधिक समय तक चले थे। बदक़िस्मती की बात यह थी कि उस समय के भारत के ही कुछ राज्यों ने इसमें अँग्रेज़ों की सहायता की थी। सन १९६७ में म्हैसूर-अँग्रेज़ों के बीच सत्तासंघर्ष की शुरुआत हुई। उसके बाद फिर १७८०, १७८९ में अगले दो युद्ध हुए और १७९९ में आखिरी युद्ध लड़ा गया।

इन चारों युद्धों के परिणाम थे, किसी एक पक्ष का पलड़ा भारी होना, फिर युद्ध रोकने के लिए समझौता और जितनेवालों का कुछ इलाक़ों पर कब्ज़ा। हैदर अली के बेटे टिपु सुलतान जब म्हैसूर के शासक बने, तब भी अँग्रेज़ों के साथ म्हैसूर का संघर्ष चल ही रहा था। सन १७९९ में हुई आखिरी यानी चौथी जंग में अँग्रेज़ भारत में दक्षिण में रहनेवाली इस भूमि पर कब्ज़ा करने में क़ामयाब हो गये। लेकिन कैसे? तो अँग्रेज़ों ने यहाँ पर वोडेयर राजवंश को शासक के रूप में नियुक्त कर दिया और अप्रत्यक्ष रूप में यहाँ पर शासन किया। नवनियुक्त राजा के परामर्शदाता के रूप में अँग्रेज़ों ने अपने एक अफ़सर को भी यहाँ पर नियुक्त कर दिया और म्हैसूर अब एक ‘रियासत’ बन गया।

म्हैसूर के खिलाफ़ जंग लड़ते हुए अँग्रेज़ों की नज़र पड़ोस ही के मराठों के राज्य पर भी थी। कुछ समय तक मराठों में और उनमें अच्छे संबंध रहे थे। लेकिन सत्ता और स्वामित्व का संघर्ष तो दोस्ती को भी चुनौती देनेवाला साबित होता है। जिन मराठों की जीत और क़ामयाबी का परचम अटक तक लहराया था, उनका राज्य महाराष्ट्र प्रदेश के साथ साथ मध्य भारत के कुछ इलाक़ो में भी था। लेकिन हर जगह अलग अलग शासक राज कर रहे थे। अँग्रेज़ों ने पहला युद्ध छेड़ दिया, पुणे में से राज्य करने वाले पेशवा के खिलाफ़। साल था सन १७७५, यानी म्हैसूर युद्ध के कुछ ही साल बाद। उस वक़्त पेशवा राज्य में अन्त:कलह चरमसीमा पर था और राज्य की भलाई से व्यक्तिगत सम्मान-अपमान और स्वार्थ को अहम माना जाने लगा था। अँग्रेज़ और मराठों के बीच दूसरा युद्ध हुआ १८०३ में। इस युद्ध में पेशवा के साथ साथ अन्य मराठा शासक शिंदे, होळकर, भोसले आदि भी शामिल हुए थे।

मराठा-अँग्रेज़ों के बीच हुआ तीसरा युद्ध यह भारत के इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना मानी जाती है। इस दौरान हुए दो युद्धों में समझौतें, युद्ध के बाद के सुलहनामें भी हुए थे। लेकिन सन १८१७ में शुरू हुए और सन १८१८ में समाप्त हुए मराठा-अँग्रेज़ों के बीच के इस तीसरे युद्ध के कारण भारत के इतिहास में एक बहुत बड़ा मोड़ आ गया। ऐसा हुआ क्या था इस युद्ध में? इतिहास के अनुसार इस युद्ध के कारण पेशवा के साथ साथ भारत के अन्य प्रदेशों में रहनेवाली मराठों की सत्ता का अस्त हो गया। इनमें से कुछ इलाक़ों पर अँग्रेज़ों ने अपना शासन स्थापित कर दिया, तो कुछ जगह राजाओं को नियुक्त करके वहाँ पर अप्रत्यक्ष रूप से अपना नियन्त्रण स्थापित कर दिया। सारांश, कई रियासतें अब भारत में निर्माण हो चुकी थीं और इसके बाद अब अँग्रेज़ ‘भारत के शासक’ के रूप में जाने जानेवाले थे।

यहाँ के इला़के अब अँग्रेज़ों की प्रोव्हिन्स और प्रेसिडन्सी के अन्तर्गत आनेवाले थे। वैसे तो सतरहवीं सदी में ही अँग्रेज़ इस दिशा में कदम उठा चुके थे। उस समय के कलकत्ता और मद्रास में वख़ार और क़िला बनाकर उनपर उन्होंने कब्ज़ा कर ही लिया था। मुंबई के द्वीप तो अँग्रेज़ों को मुफ़्त में उपहार के रूप में मिल चुके थे। पुर्तगाली राजकन्या के इंग्लैड़ के राजा के साथ हुए विवाह में इन द्वीपों को दहेज के रूप में अँग्रेज़ों को दिया गया था।

फिर अँग्रेज़ों ने अपने कब्ज़े में आये हुए इलाक़ों को इन प्रोव्हिन्स और प्रेसिडन्सी से जोड़ना शुरू कर दिया। रियासतों में तरह तरह की उपाधियाँ देकर जिन राजा-महाराजाओं को अँग्रेज़ों ने नियुक्त किया था, उन्हें तो अँग्रेज़ों ने वैसे ही रखा। लेकिन परास्त हुए राजाओं के साथ उन्होंने क्या किया? उन राजाओं को अँग्रेज़ों ने उनकी जन्मभूमि से कोसों दूर भेज दिया और उन्हें साल की पेंशन देना शुरू कर दिया। इसी के तहत पेशवा को अँग्रेज़ों ने कानपुर के पास बिठूर भेज दिया।

अब अँग्रेज़-शासित भारत में झाँसी, अयोध्या, नागपुर, सातारा, संबलपुर, ओर्च्छा, जितने नाम लें उतने कमही हैं इतनी रियासतें बन चुकी थीं।

फिर पंजाब इला़के में सिखों के साथ अँग्रेज़ों का युद्ध शुरू हुआ, सन १८४५ से लेकर १८४९ के दौरान दो बार जंग हुई; लेकिन यह दौर खत्म हुआ अँग्रेज़ों का इस इला़के पर का प्रभुत्व सिद्ध करके ही।

अब सारे भारत को अँग्रेज़ निगल चुके थे। लेकिन यहाँ की जनता का क्या? जहाँ शासक ही परास्त हो गये, वहाँ जनता के हाथ में असहाय रूप से देखने के अलावा और था भी क्या? लेकिन वर्तमान काल में जी रहे ये सभी भारतवासी भविष्यकाल की आशा मन में लिये वक़्त की बदलती करवटों को देख रहे थे।

क्रान्तिगाथा

भाग १, भाग २, भाग ४

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