क्रान्तिगाथा-९५

जिन्हें पकडने के लिए अँग्रेज़ जी जान से कोशिशें कर रहे थे और इतनी कोशिशों के बाद भी जो अँग्रेज़ों की गिरफ्त में नहीं आये थे, भारतमाता के वे शूरवीर सपूत- बिरसा मुण्डा आखिरकार अँग्रेज़ों की गिरफ्त में आ गये और ज़ाहिर है की…..

अँग्रेज़ों ने बिरसा मुण्डा को जेल में भेज दिया और आखिरकार ९ जून १९०० के दिन बिरसा मुण्डा ने रांची के जेल में ही आखिरी साँस ली। अँग्रेज़ सरकार द्वारा यह घोषणा की गयी कि बिरसा मुण्डा का जेल में कॉलरा की वजह से देहान्त हो गया। लेकिन बताया जाता है कि ऐसे कोई भी चिह्न दिखायी नहीं दे रहे थे, जो बिरसा मुण्डा की मृत्यु कॉलरा से हुई इस अँग्रेज़ों के विधान की पुष्टी करे।

अधिकांश प्रांतों में आदिम जनजातियों द्वारा अँग्रेज़ों के खिलाफ किये गये संघर्षों को कुचल देने में भले ही अँग्रेज़ कामयाब हुए हो, मगर कई प्रांतों में कुछ अल्प समय के लिए ही सही अँग्रेज़ों का पराजय हुआ था।

आदिम जनजातियों की स्थिति और अँग्रेज़ों की स्थिति इसकी अगर तुलना की जाये, तो हम यह कह सकते है कि अँग्रेज़ों के खिलाफ इन आदिम जनजातियों को प्राप्त हुए ये अल्पकालीन और अल्पजीवी विजय भी बहुत महत्त्वपूर्ण थे।

भारत में स्थित विभिन्न आदिम जनजातियों के अँग्रेज़ विरोधी संघर्ष कभी कामयाब हुए तो कभी असफल साबित हुए। भारत के अन्य लोगों के विरोध को कुचलने में जिस तरह अँग्रेज़ कामयाब हुए थे, उसी तरह इन आदिम जनजातियों के विरोध को भी कुचलने में कामयाब हुए और इन आदिम जनजातियों पर भी अँग्रेज़ों के तकलीफदेह कानून लागू हो गये।

भारत में अँग्रेज़ों की सत्ता स्थापित होकर बहुत बड़ा समय गुजर चुका था। लेकिन हमारी सरकार जिस प्रकार शासन कर रही है, उसमें किसी बदलावों की जरूरत है क्या? इस सवाल का जवाब ढूँढने के लिए अँग्रेज़ सरकार ने सात ब्रिटिश सांसद सदस्यों को इस काम के लिए भारत भेज दिया।

भारत की शासनव्यवस्था में सुधार/बदलाव लाने की जरूरत हैं क्या, इसे जानने के लिए या उसका जायजा लेने के लिए इंग्लैड में रहनेवाले और ब्रिटन की संसद में कार्य करनेवाले सात सांसद सदस्यों को भेजा जाना यह आपने आप में ही कितना बड़ा विरोधाभास है।

और अहम बात यह है कि यह सरकार जिन भारतीयों पर शासन कर रही थी, उन भारतीयों की राय तो पूछी ही नहीं गयी, यह दूसरा बड़ा विरोधाभास।

अर्थात् अँग्रेज़ सरकार से इस बात की अपेक्षा रखना ही गलत था कि वे भारतीयों की राय को कोई अहमियत दे।

तो इस प्रकार भारत की शासनव्यवस्था में सुधार या बदलावों की आवश्यकता को जाँचने के लिए जो सात सदस्यों का दल/कमिशन भेजा गया था, वह स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में ‘सायमन कमिशन’ के नाम से जाना जाता है।

यहाँ पर एक महत्त्वपूर्ण बात पर गौर करना जरूरी है कि भारतविषयक यानी कि भारत की शासनव्यवस्था के बारे में कोई भी रवैय्या, नियम, कानून ये हमेशा ही ब्रिटन के संसद में और वहाँ के सांसद सदस्यों द्वारा ही बनाये गये थे।

१९१९ में ‘गव्हर्नमेंट ऑफ इंडिया अ‍ॅक्ट १९१९’ का निर्माण किया गया। इस अ‍ॅक्ट के अनुसार भारत की शासनव्यवस्था में कुछ बदलाव/सुधार किये गये थे। इस अ‍ॅक्ट के तहत भारत में द्विदल शासनव्यवस्था (डायार्ची) लागू की गयी। इसी १९१९ साल के अ‍ॅक्ट में जिसे ‘माँटेंग्यू-चेम्सफर्ड रिपोर्ट’ भी कहा जाता है, उस में यह सुझाव दिया गया था कि १० सालों के बाद भारतीय शासनव्यवस्था में हुई प्रगति को जाँचने के लिए एक कमिशन नियुक्त किया जाये

और ‘सायमन कमिशन’ की नियुक्ति यह उसी का हिस्सा था।

इसमें पहले की तरह इस बार भी इस कमिशन में एक भी भारतीय सदस्य को सम्मिलित नहीं किया गया था। यहीं बात सभी भारतीयों को फिर एक बार खटक रहीं थी और इस बार भारतीयों को केवल इस बात का एहसास हुआ और उन्हें यह बात खटक कर वहीं पर रुकी नहीं, तो भारतीयों द्वारा उस पर प्रतिक्रिया भी दी गयी।

भारतीयों ने समूचे सायमन कमिशन के विरोध में सूर छेड दिये। सायमन कमिशन का भारत में स्वागत भारतीयों द्वारा किये गये विरोध से ही हुआ।

दिसंबर १९२७ में मद्रास में इंडियन नॅशनल काँग्रेस की मिटींग हुई। इस मिटींग में सायमन कमिशन का बहिष्कार करने का फैसला लिया गया। अन्य छोटे-बड़े पक्षोंद्वारा भी यही फैसला लिया गया। इस कारण पूरे भारत में ‘सायमन कमिशन’ को केवल विरोध ही नहीं; बल्कि, बहिष्कार का भी सामना करना पडा।

इस कमिशन को उसकी अध्यक्षता करनेवाले सर जॉन सायमन के नाम से ‘सायमन कमिशन’ इस नाम से जाना गया।

३ फरवरी १९२८ इस दिन सायमन कमिशन का यानी उसके सात सदस्यों का मुंबई में आगमन हुआ।

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