क्रान्तिगाथा-९२

अँग्रेज़ों की सेना, उन्हें दिया जानेवाला प्रशिक्षण, उनके शस्त्र-अस्त्र, उनके पास उपलब्ध साधन-सुविधाएँ इनकी अगर आदिम जनजातियों के पास रहनेवाली इन्हीं बातों के साथ तुलना की जाये, तो यकिनन ही ये संघर्ष समान बलवालों में नहीं हुए थे। लेकिन फिर भी कई स्थानों पर अँग्रेज़ों को धूल चटाने में और कुछ समय के लिए ही सही उन्हें पीछे हटाने में आदिम जनजातियों के लोग कामयाब हुए थे।

दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अँग्रेज़ सेना के पास प्रशिक्षित नेतृत्व थें, वहीं आदिम जनजातियों को हर बार कोई नेतृत्व प्राप्त हुआ ही था, ऐसी बात नहीं थी, इसका अर्थ यह है कि कई बार आदिम जनजातियों के लोग नेतृत्व के बिना भी एक संघटित जनशक्ति के रूप में अँग्रेज़ों के खिलाफ़ खड़े हुए थे और यकिनन ही यह बात प्रशंसनीय है।

१८३९ में खंपती लोगों ने अँग्रेज़ों के अ‍ॅडम व्हाइट नामक गव्हर्नमेंट एजंट को मौत के घाट उतार दिया और ८० अँग्रेज़ों का खात्मा किया।

बस्तरस्थित गोंड जनजाति के लोगों ने उनकी जमीन पर कब्जा करने की कोशिश करनेवाले ब्रिटिश आर्मी कॅप्टन और उसकी सेना पर धावा बोल दीया। भारत में ईशान्य में स्थित लुशाई लोगों ने ब्रिटिशों के अधिकार में रहनेवाले आराकान और सिल्हट प्रदेशों पर हमला किया और अँग्रेज़ों को पराजित करने में वे कामयाब हुए।

लुशाई लोगों ने १८६० में अँग्रेज़ों के कब्ज़े में रहनेवाले त्रिपुरा पर हमला कर १८६ अँग्रेज़ों का खात्मा किया। इसके बाद लुशाई लोगों का अँग्रेज़ों के खिलाफ़ यह संघर्ष खत्म नहीं हुआ, बल्कि बार बार वे अँग्रेज़ों से संघर्ष करते ही रहे।

भारत की मुख्य भूमि से कुछ ही दूरी पर बसे अंदमान-निकोबार द्विपों पर कई आदिम जनजातियाँ बसती थी। उनमें से ही एक सेंटिनेलीस जनजाति के लोगों ने अँग्रेज़ों की सेनापर हमला किया।

आदिम जनजातियों द्वारा अँग्रेज़ों के खिलाफ़ किये गये संघर्षों में से एक महत्त्वपूर्ण घटना है- नागा जनजातिद्वारा अँग्रेज़ों के खिलाफ़ किया गया संघर्ष और इस समय नागा लोगों का नेतृत्व उसी जनजाति में जन्मी एक युवतीद्वारा किया गया।

नागा लोगोंद्वारा अँग्रे़ज़ों के खिलाफ़ किये गये संघर्ष का नेतृत्व हाईदेओ और जदुनांग नामक दो लोग कर रहे थे। दुर्भाग्यवश अँग्रेज़ों ने उन्हें पकड लिया और खुले आम उन्हें फाँसी दी गयी।

अब नागा जनजातिद्वारा अँग्रेज़ों के खिलाफ़ पुकारा गया संघर्ष थम जायेगा, ऐसे आसार दिखायी दे रहे थे कि उतने में महज १६ साल की एक युवति जो नागा जनजाति में ही जन्मी थी, वह इस संघर्ष का नेतृत्व करने के लिए आगे आ गयी।

गुईदालो/गाईदिनलीउ यह उसका नाम था। जनवरी १९१५ में जन्मी इस युवति ने एक मिशनरी स्कूल में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की थी। अँग्रेज़ मिशनरी भारत के दूरदराज के इलाके में पहुँच चुके थे, वहाँ पर विभिन्न उपायों का अवलंबन करते हुए उन्होंने धर्मप्रचार और प्रसार करना शुरू किया था। उसी का एक हिस्सा था, भारत के बच्चों को यानी की दूरदराज के गाँवों में स्थित बच्चों को शिक्षा देना।

नागा लोगों पर अँग्रेज़ों द्वारा बिठाया गये टॅक्स को वे न चुकाये, यह इस ब्रिटिश विरोध का अहम मुद्दा था। हाईदेओ और जदुनांग के शहीद हो जाने के बाद नागा लोगों में जागृति करने का काम गुईदालो ने किया।

अँग्रेज़ उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे लग गये। अँग्रेज़ों की गिरफ्त को टालने के लिए वह एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी, एक गाँव से दूसरे गाँव जाती रही। जहाँ जाती थी वहाँ पर अँग्रेज़ों के खिलाफ़ जनजागृति करती थी।

लेकिन स्थानिय लोगों में से ही किसी ने गद्दारी की और अँग्रेज़ उसे पकडने में कामयाब हुए, ऐसा बताया जाता है। १९३२ में उसे पकड़ा गया। उसपर मुकदमा चलाया और इल्जाम रखा गया कि उसने अँग्रेज़ों को मारने के लिए नागा लोगों को उकसाया।

अँग्रेज़ों ने उस पर लगे इल्जामों को सिद्ध करते हुए उसे आजीवन कारावास की सजा दी। इस सजा के दौरान अँग्रेज़ों ने उसके साथ अमानुषतापूर्ण व्यवहार किया। उसे एक जेल से दूसरी जेल ले जाते हुए कई मील पैदल ले जाया गया और यह केवल एक बार नहीं तो कई बार किया गया।

आखिरकार १९४५ में उसे जेल से रिहा किया गया।

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