क्रान्तिगाथा-९१

अँग्रेज़ों के खिलाफ़ भारत की कई आदिम जनजातियों द्वारा किये गये संघर्ष का इतिहास काफ़ी विस्तृत है और बहुत प्रेरणादायी भी है। भले ही अपने जन्मजात अधिकारों पर आँच आने के कारण आदिम जनजातियों के लोग अँग्रेज़ों के खिलाफ़ लड़ने के लिए खड़े हुए, मगर फिर भी उनके संघर्ष का एक पहलु यह भी है की उन्होंने उनकी मातृभूमि को बंदी बनानेवालें अँग्रेज़ों का विरोध किया।

यहाँ पर हमें एक महत्त्वपूर्ण बात ध्यान में रखनी चाहिए की भले ही ये आदिम जनजातियाँ मुख्य जनप्रवाह से दूर थी, मगर उनमें से कईयों को इस बात का पूरा एहसास था की हमारा देश अँग्रेज़ों के कब्ज़े में जा चुका है।

दूसरी अहम बात यह है कि ये आदिम जनजातियाँ आदिम पद्धति से जीवन गुजार रही थी, अर्थात वे किसी भी नागरी या देहाती सुविधाओं और सुधारों जैसी बातों से कोसो दूर थे। इसी कारण उनके पास रहनेवाली साधन-सामग्री भी मूलभूत स्वरूप की थी। तीर-कमान यह उनका हथियार उन्हें उनके पेट भरने की सामग्री प्राप्त करने में मदद करता था, साथ ही उनके जीवन की रक्षा भी करता था। अपने इन्हीं हथियारों की मदद से उन्होंने अँग्रेज़ों के खिलाफ़ मोर्चा बाँधा। अपने तीर-कमान अँग्रेज़ों के आधुनिक हथियारों के आगे टिक सकेंगे या नहीं इसका भय भी उन लोगों ने मन में नहीं रखा।

सन १८३१-३२ में सिंगभूम और छोटा नागपुर में बसनेवाले कोल नामक आदिम जनजाति के लोग संघर्ष करने के लिए अँग्रेज़ों के खिलाफ़ खडे हुए। अन्य स्थानों पर हुए संघर्षों की तरह ही इस संघर्ष को अँग्रेज़ों द्वारा कुचला गया। लेकिन इस कार्य के लिए अँग्रेज़ों को भारत के दूर दराज के इलाकों से अपनी सेना को कोल लोग जहाँ पर बसते थे, वहाँ बुलाना पडा। इस संघर्ष का नेतृत्व इसी जनजाति के बिंदराई और सिंगराई नामक दो लोगों ने किया।

खानदेश प्रांत में बड़े पैमाने पर भील लोग बसा करते थे। खानदेश का विस्तार वर्तमानकालीन गुजरात और महाराष्ट्र में था। इस खानदेश पर सन १८१८ में अँग्रेज़ों ने अपना अमल स्थापित किया। भील लोग भले ही मुख्य जनप्रवाह से दूर जंगलों में, पहाड़ियों और खाईयों में बसते थे, मगर उन लोगों को इस बात का पूरा यकिन था की अँग्रेज़ विदेशी आक्रमणकारी है और इन्हीं अँग्रेज़ों ने अपनी मातृभूमी-भारतभूमी को बंदी बनाया है। फिर इन विदेशी आक्रमणकारियों के खिलाफ़ लड़ने के लिए ये भील लोग सिद्ध हो गये।

बाजीराव पेशवा – द्वितीय इनके अधिकारियों में से एक रहनेवाले त्रिंबकजी के नेतृत्व में भील लोग अँग्रेज़ों के खिलाफ़ खड़े हो गये। अँग्रेज़ों द्वारा हमेशा की तरह ही इस संघर्ष को कुचल देने का रवैय्या अपनाया गया, लेकिन महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अँग्रेज़ों के खिलाफ़ केवल एक बार संघर्ष करने के बाद भील लोग चूप नहीं बैठे, तो उनके द्वारा अँग्रेज़ों को किया जानेवाला विरोध कई बार संघर्ष के रूप में व्यक्त हो गया।

शिकार करके और जंगलों, पहाड़ों में घूमकर खाना इकठ्ठा करनेवाली ये आदिम जनजातियाँ जीवननिर्वाह की इस पद्धति को छोडकर अनुशासन पूर्ण तरीके से खेती करे ऐसा अँग्रेज़ सरकार चाहती थी। अगर किसी को प्रतीत हो की अँग्रेज़ सरकार की इस इच्छा के पीछे आदिम लोगों का भला हो ऐसी सोच थी, तो वह बात सरासर गलत है। क्योंकि यदि ये आदिम जनजातियाँ खेती करती है, तो उस खेती पर लगान वसूल करके अँग्रेज़ अपनी तिजोरी भरना चाहते थे। आदिम जनजातियों को खेती करने की सलाह देने के पीछे अँग्रेज़ों का यही उद्देश था।

सन १८२५ में भील एजन्सी और उसके बाद भील कॅार्पोरेशन की स्थापना कर अँग्रेज़ों ने भील जनजाति को मुख्य जनप्रवाह में लाने की कोशिशें की, लेकिन भील लोगों को ये बातें मंजूर नहीं थी।

भले ही अँग्रेज़ सैनिकों की कितनी भी प्रशिक्षित सेना की टुकडी हो या उसमें स्थानीय यानी भारतीय सैनिक हो, मगर फिर भी आदिम जनजातियों से संघर्ष करना अँग्रेज़ों के लिए काफी कठीन साबित हुआ। केवल एक-दो बार ही नहीं, तो लगभग हमेशा ही।

जब अँग्रेज़ों ने मध्यप्रदेश के भूप्रदेश को सेंट्रल प्रोव्हीन्स यह नया नाम दिया, उस समय यहाँ की भील जनजाति द्वारा संघर्ष पुकारा गया। उनके इस संघर्ष के परिणामस्वरूप ‘बंगाल नेटिव्ह इन्फंन्ट्री’ के ३७ वें रेजिमेंट के ब्रिटिश कॅप्टन-हेन्री बोडेन स्मिथ को मौत के घाट उतारा गया।

भारत के आदिम जनजातियों के ब्रिटिश विरोधी संघर्षों को कुचल देने में भले ही अँग्रेज़ कामयाब हुए हो, मगर कई जगहों पर अँग्रेज़ों को काफ़ी नुकसान सहना पड़ा।

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