क्रान्तिगाथा-९०

पराक्रम और बुद्धि की चतुरता के साथ जाँबाज राम्पा लोगों के साथ लडनेवाले अल्लुरि सीताराम राजु को पकडने के बाद भविष्य में क्या होनेवाला है, यह भारतीय बिना बताये ही समझ गये।

चिंतापल्लि के जंगल से अल्लुरि सीताराम राजु को गिरफ्तार किया गया। अँग्रेज़ों ने उन्हें बहुत तकलीफे देना शुरू कर दिया। आखिर एक नदी के किनारे पर एक पेड़ से उन्हें बाँधा गया और उन पर गोली चलायी गयी। यह घटना मई १९२४ में हुई। भारतमाता के और एक सपूत ने उसे दास्यमुक्त करने के लिए अपना बलिदान दिया।

अल्लुरि सीताराम को तकलीफें देकर गोली मारनेवाले भारतीय अफसर को अँग्रेज़ों ने ‘रावबहादूर’ इस उपाधि से सम्मानित किया।

अल्लुरि सीताराम राजु ‘मान्यम् विरुदु’ इस नाम से विख्यात हुए। मान्यम् विरुदु का अर्थ ‘जंगलों का नायक’ यह बताया जाता है।

इस शहीद का अँग्रेज़ों को कहना था कि ‘तुम लोग मुझे मार डालोगे यानी कि मेरे शरीर को हजारों बार नष्ट करोगे, तब भी मैं फिरसे इसी भूमि पर यानी भारत में जन्म लूँगा। इस भारतभूमि को तुम्हारे दास्य से मुक्त करने के लिए और तुम्हारा अंत देखने के लिए।’

भारत यह अँग्रेज़ों की दृष्टि से एक सोने की खदान थी। क्योंकि इस देश में हर एक प्रदेश के अनुसार विविधता और प्राकृतिक संपदा की विपुलता थी। प्राचीन समय से यह देश अपनी संपन्नता के लिए विख्यात था। यह सब देखने के बाद अँग्रेज़ों को यकिन था की उनकी तिजोरी इस देश में निरंतर भरती रहनेवाली है और वैसेही हुआ। भारत पर अपना अमल स्थापित करने के बाद अँग्रेज़ों की तिजोरी में केवल धन-संपदाही नहीं तो मूल्यवान हिरे, जवाहरात भी भरते गये।

भारत के राजा-महाराजाओं के पास रहनेवाली संपत्ति, भारत में स्थित जंगल और कृषी यानी इस देश में की जानेवाली खेती ये अँग्रेज़ों की तिजोरी को भरनेवाले प्रमुख घटक साबित हुए थे। लेकिन अँग्रेज़ों की भूख बहुत ही बड़ी थी। अपनी भूख को मिटाने के लिए अँग्रेज़ों ने अत्यधिक दुर्गम पहा़ड़ों और जंगलों में अपनी प्राथमिक जरुरतों को पूरा करते हुए जिंदगी बितानेवाले आदिम जनजातियों को भी अपना लक्ष्य बनाया।

जंगल और पहाड़ जो इन आदिम जनजातियों के जीवन का आधार थे, उस पर अपना अधिकार स्थापित करते हुए अँग्रेज़ों ने इन आदिम जनजातियों का जीवन-आधारही नष्ट किया।

कलकत्ता, मद्रास, मुंबई, युनायटेड प्रोव्हीन्स ऐसे मुख्य प्रांत जो अँग्रेज़ों द्वारा उनके प्रशासन हेतु निर्माण किये गये थे, उन प्रांतों में तो अँग्रेज़ों की क्रूरता का प्रदर्शन जारी ही था, इतनाही नहीं तो भारत के ईशान्य की ओर स्थित प्रदेशों तक भी अँग्रेज़ पहुँच चुके थे।

भारत में ईशान्य में स्थित प्रदेश में कई आदिम जनजातियाँ बस रही थी।

अँग्रेज़ों के ब्रह्मदेश (बर्मा) के साथ हुए प्रथम अँग्लो-बर्मा वॉर के बाद अँग्रेज़ों ने ब्रह्मपुत्र नदी की घाटी को सिल्हेट के साथ जोडने के लिए रास्ता बनाने का तय किया था। वह रास्ता जिस इलाके से गुजरता था, वहाँ पर जयंतिया और गारो जनजाति के लोग बस रहे थे।

अँग्रेज़ों की दृष्टिसे इस रास्ते का बनकर पूरा होना, यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात थी। क्योंकि इस रास्ते के बन जाने से उनके सेना की आवाजाही आसान होनेवाली थी। लेकिन इससे जयंतिया और गारो जनजाति की स्वतंत्रता पर पाबंदी आनेवाली थी। लेकिन इससे अँग्रेज़ों का इस प्रदेश में प्रवेश और उन्हें इस प्रदेश में गतिविधियाँ करना ये बातें काफी आसान होनेवाली थी।

विज्ञान में की गयी खोजों की प्रगति के आधार पर किसी प्रदेश में घुसकर वहाँ पर अपना अमल स्थापित करने का हुनर अँग्रेज़ों ने काफी अच्छे तरीके से विकसित किया हुआ था।

जयंतिया और गारो जनजाति के लोगों ने अँग्रेज़ों के इस निर्णय को और कृति को विरोध करना आरंभ किया।

इस संघर्ष की शुरुआत जयंतिया जनजाति के लोगों द्वारा की गयी। सन १८२७ में जयंतिया लोगों ने रास्ते का निर्माण कार्य बंद करने के प्रयास

किये।
जयंतिया लोगों के पड़ोसी गारो लोग भी अँग्रेज़ों की इस कृति के कारण क्रोधित हुए और अँग्रेज़ों के खिलाफ खडे हो गये।

इस घटना से क्रोधित हुए अँग्रेज़ों द्वारा जयंतिया और गारो लोगों के कई गाँव पूरे के पूरे जला दिये गये। जयंतिया लोगों को नेतृत्व कर रहे कियांग नांगबाह को अँग्रेज़ों ने गिरफ्तार कर लिया और सभी लोगों के सामने उसे फाँसी दी गयी।

१८६० में अँग्रेज़ों ने जयंतिया और गारो लोगों से हाऊस टॅक्स और इन्कम टॅक्स लेने की शुरुआत की।

गारों लोगों का नेतृत्व कर रहे तोगन सेंगमा नाम के देशभक्त का तो अँग्रेज़ों ने अस्तित्वही मिटा दिया।

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