क्रान्तिगाथा-८२

‘झंड़ा सत्याग्रह’ यानी ‘फ्लॅग मार्च’ यह अँग्रेज़ों का विरोध करने की एक अनोखी कोशिश थी। १९२३ में नागपुर और जबलपुर में प्रमुख रूप से एवं सेंट्रल प्रोव्हिन्स में कुछ स्थानों पर इस झंड़ा सत्याग्रह का आयोजन किया गया था।

झंड़ा सत्याग्रहियों के द्वारा फिर जगह जगह भारत का ध्वज लहराने की कोशिशें की गयी। यहाँ तक की कुछ सरकारी इमारतों पर भी भारतीय ध्वज लहराने की कोशिशें की गयीं। आगे चलकर भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम ने इस तरह के अनेक क्षण अनुभव किये। इस में भारतीयों का समूह किसी पुलीस चौकी पर या सरकारी कामकाज़ की इमारत में जाता था और उन्हीं में से कोई एक भारतीय युवक या भारतीय युवती युनियन जॅक को हटाकर वहाँ भारत का ध्वज लहराने का काम करते थे। इस तरह की घटनाओं के बीज शायद इस झंडा सत्याग्रह में थे।

इस तरह युनियन जॅक को हटाकर भारत का झंडा जब लहराया जाता था, तब उस घटना को देखनेवाले भारतीयों का सीना गर्व से तन जाता था। लेकिन इस में शामिल भारतीयों को कभी अँग्रेज़ों के लाठी चार्ज का, कभी कारावास का या कभी एक के बाद एक करके इन दोनों बातों का सामना करना पड़ता था। कुछ घटनाओं में तो अँग्रेज़ इस तरह भारतीय ध्वज लहरानेवालों पर ठेंठ गोली चलाकर उनकी जान ले लेते थे, यह भी स्वतन्त्रतासंग्राम के इतिहास में दर्ज किया गया है। मग़र इतना सबकुछ होने के बावजूद भी भारतीय कभी भी टस से मस नहीं हुए।

नागपुर, जबलपुर के साथ साथ भारत के अन्य प्रान्तों में भी झंड़ा सत्याग्रह की ज्वाला फैलने लगी। इन सत्याग्रहियों की माँग बस इतनी ही थी कि उन्हें अपने देश का ध्वज लहराने दिया जाना चाहिए और ज़ाहिर है कि अँग्रेज़ों को यह मंज़ूर नहीं था। इस झंड़ा सत्याग्रह को उस दौर में भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के अनेक अग्रणी व्यक्तित्वों का समर्थन मिला था। आगे चलकर १९३८ में कर्नाटक के म्हैसूर में भी इसी तरह के झंड़ा सत्याग्रह का आयोजन किया गया था।

इस तरह विभिन्न प्रकार के अँग्रेज़ विरोधी आंदोलनों में सम्मिलित रहनेवाले भारतीयों के लिए सर्वोच्च खुशी का पल तब आया, जब १४ अगस्त १९४७ की मध्यरात्रि को यानी १५ अगस्त १९४७ को युनियन जॅक की जगह भारत का तिरंगा लहराया।

दक्षिण भारत में अँग्रेज़ों ने बहुत पहले ही यानी १७वीं सदी की शुरुआत में ही अपनी जड़ें मज़बूत करना शुरू किया था। ‘ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी’ यह नाम धारण करके व्यापारीयों का मुखौटा पहनकर अँग्रेज़ों ने भारत के दक्षिणी तट पर कदम रखा। प्रारंभिक समय में यहाँ के स्थानीय राजाओं से व्यापार करने की, वखार बनाने की अनुमति प्राप्त करके अँग्रेज़ों ने अपने कदम यहाँ पर जमा लिये। कुछ जगहों पर वखारें शुरू भी कर दीं। मग़र दक्षिण में अँग्रेज़ों ने अपना शिकंजा कसना शुरू किया था, मद्रास (वर्तमान समय का चेन्नई) में बसाये अपने उपनिवेश से।

अँग्रेज़ों का इरादा हमारी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लेने का हो सकता है इसकी भनक तक शुरुआती समय में यहाँ के राजाओं को नहीं लगी थी। वहीं दक्षिणी भारत में बढ़ रहे फ्रान्सिसियों के प्रभाव के कारण अँग्रेज़ों ने अपनी सेना बनायी और यहीं पर उनका कपटकारस्तान भारतीयों की समझ में आने लगा। कर्नाटक के राजाओं ने भी अँग्रेज़ों को विरोध करना शुरू किया।

१८वीं सदी के मध्य में पोळेगारों ने अँग्रेज़ों को पूरी ताकत लगाकर विरोध करना शुरू किया। १८वीं सदी के अन्त तक म्हैसूर राज्य का अँग्रेज़ों के खिलाफ संघर्ष चल रहा था। इन सब बातों का एकत्रित परिणाम यह था कि आख़िर भारत के दक्षिण के राज्यों पर अँग्रेज़ों ने कब्ज़ा कर लिया। इनमें से कुछ राजाओं को अपना राज्य गँवाना पड़ा, वहीं कुछ शासकों ने अँग्रेज़ों की हुकूमत को मानकर उनके अधिकार में नामधारी बनकर रहना पसंद कर लिया।

१९वीं सदी की शुरुआत में ही ‘वेल्लोर’ के सैनिकों ने अँग्रेज़ों के खिलाफ जंग छेड़ दी। दुर्भाग्यवश यह कोशिश सफल नहीं हो सकी। सौ के आसपास सैनिकों को अँग्रेज़ों ने सज़ा ए मौत सुनायी।

उस व़क़्त अँग्रेज़ों ने धीरे धीरे यहाँ पर धर्मप्रचार एवं प्रसार करना भी शुरू कर दिया था। उनकी इस नीति का बढ़ता हुआ स्वरूप देखकर भारतीयों ने उनका विरोध करना शुरू कर दिया। इन कोशिशों का एक हिस्सा था – स्वदेशी शिक्षा संस्थाओं की स्थापना करना। साथ ही जनता में अँग्रेज़ों के कपटकारस्तानों के बारे में जागृति करने के उद्देश्य से समाचारपत्र भी प्रकाशित किये जाने लगे। कुछ संगठनों की स्थापना भी प्रत्यक्ष कृति करने के हेतु से की गयी।

इंडियन नॅशनल काँग्रेस की स्थापना के समय मुंबई में हुई सभा में मद्रास प्रेसिडन्सी के २२ लोग उपस्थित थे।

सुब्रह्मण्य भारती ने ‘इंडिया’ और ‘स्वदेशमित्रन्’ इन जैसे समाचार पत्रों के माध्यम से अँग्रेज़ों के खिलाफ कलम चलाना शुरू कर दिया। व्ही.ओ.चिदम्बरम् पिल्लै ने भारत की पहली शिपिंग कंपनी की शुरुआत की। व्ही.व्ही.एस्.अय्यर, जो विनायक दामोदर सावरकर के संपर्क में आये, वे इंडिया हाऊस से जुड गये और हिन्दु जर्मन कॉन्स्पिरसी में सम्मिलित हुए। उन्हीं के एक सहकर्मी वंचीनाथन ने त्रिचनापल्ली के डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर – जनरल अ‍ॅश को मौत के घाट उतार दिया। पहले विश्‍वयुद्ध के समय दक्षिणी भारत में अँग्रेज़ों को किये जा रहे विरोध ने तीव्र स्वरूप धारण कर लिया।

जालियाँवाला बाग़ हत्याकाण्ड के बाद दक्षिणी भारत के कई उच्चविद्याविभूषित एवं विख्यात व्यक्तियों ने अँग्रेज़ों के द्वारा उन्हें प्रदान किये गये पद/उपाधियाँ अँग्रेज़ों को लौटा दीं। ज़ाहिर है कि यह कृति जालियाँवाला बाग़ में घटित घटना का तथा अँग्रेज़ों का निषेध करने के लिए की गयी थी।

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