क्रान्तिगाथा-७९

काकोरी योजना में फाँसी दिया गया और एक तेजस्वी क्रान्तिकारी व्यक्तित्व था-रोशनसिंह का। उत्तर प्रदेश के नबादा नाम के एक छोटे से गाँव में जनवरी १८९२ में इनका जन्म हुआ। असहकार आन्दोलन के दौरान कार्यकारी रहनेवाले रोशनसिंह को बरेली में पुलीस पर हुई गोलीबारी के मामले में सज़ा सुनायी गयी। इस सज़ा के दौरान अँग्रेज़ों के अमानुष अत्याचार उन्होंने करीब से देखें।

यहाँ से बाहर निकलने के बाद आर्य समाज से उनका परिचय हुआ। यहीं से आगे चलकर वे एच.आर.ए. में कार्यकारी हो गये। एच.आर.ए. के कार्य के लिए आवश्यक रहनेवाली धनराशी इकठ्ठा करने के लिए काकोरी योजना निर्धारित की गयी, ऐसा कहा जाता है।

काकोरी योजना में सम्मिलित रहने का आरोप रखकर रोशनसिंह को गिऱफ़्तार करके फाँसी की सज़ा सुनायी गयी। कहा जाता है कि रोशनसिंह का इस योजना में सहभाग नहीं था, लेकिन इससे पहले घटित इसी प्रकार की किसी घटना में सम्मिलित होने की आशंका के कारण अँग्रेज़ों ने उन्हें इस मुकदमे में आरोपी बना दिया और उन्हें फाँसी दी गयी।

एच.आर.ए. की स्थापना में अहम भूमिका निभानेवाले शचीन्द्रनाथ संन्याल, इससे पहले भी भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम में सम्मिलित थे। इससे पहले वे रासबिहारी बोस के निकटवर्ती थे। गदर कॉन्स्पिरसी में भी उनका प्रमुख योगदान था। गदर कॉन्स्पिरसी के बारे में अँग्रेज़ों को पता चल जाने के बाद कुछ समय के लिए वे भूमिगत हो गये।

उन्होंने ‘रिव्हॉल्यूशनरी’ नाम का समाचार पत्र शुरू करके भारतीयों को जागृत करने का कार्य किया। १९१२ में लॉर्ड हार्डिंग पर बम फेंकने की जो नाकाम कोशिश हुई, उसमें भी ये सम्मिलित थे ऐसा कहा जाता है। १९२४ में उन्होंने हिंदुस्तान रिपब्लिक आर्मी की स्थापना की। अनेक क्रान्तिकारियों को पनाह देने और उन्हें समर्थ बनाने का महत्त्वपूर्ण कार्य शचीन्द्रनाथजी ने किया। उनके खानदान के कई सदस्य भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में क्रान्तिकारी मार्ग से लड़ रहे थे।

काकोरी योजना में दोषी करार देकर अँग्रेज़ सरकार ने उन्हें उम्रकैद की सज़ा सुनाकर अंदमान भेज दिया। इस कारावास के दौरान उन्होंने ‘बंदीजीवन’ नाम की किताब लिखी। यह किताब क्रान्तिकारियों की अगली पीढ़ियों के लिए मानों एक प्रमाणग्रन्थ ही था। कुछ समय बाद सरकार ने अंदमान से उन्हें रिहा कर दिया। फिर से उन्होंने अँग्रेज़ों के खिलाफ क्रान्तिकार्य करना शुरू कर दिया। अँग्रेज़ों ने उन्हें पुन: जेल में डालकर उनके पुश्तैनी घर पर कब्ज़ा कर लिया। शचीन्द्रनाथजी के मामले में हुआ यूँ था कि अँग्रेज़ सरकार ने उन्हें दो बार अंदमान की जेल में सज़ा भुगतने के लिए भेज दिया। आख़िर गोरखपुर की जेल में १९४२ में बीमारी से उनका देहान्त हो गया।

यदुगोपाल मुखर्जी का नाम भी एच.आर.ए. के साथ संस्थापक के रूप में जुड़ा था। ‘युगान्तर’ के कार्य के साथ वे मज़बूती से जुड़े हुए थे, दर असल बाघा जतीन के बाद युगान्तर की अगुआई इन्हीं के कंधों पर आयी थी। पश्‍चिम बंगाल में १८८६ में जन्मे यदुगोपालजी १९०५ में ‘अनुशीलन’ के माध्यम से कार्य करने लगे। १९२१ में उन्हें डॉक्टर की परीक्षा देने की विशेष अनुमति मिली थी और १९२२ में नेत्रदीपक सफलता के साथ वे डॉक्टर बन गये।

एच.आर.ए. की स्थापना के कुछ समय बाद अँग्रेज़ों ने डॉ. यदुगोपालजी को ग़िऱफ़्तार करके चार साल की सज़ा सुनायी। एच.आर.ए. की स्थापना होने से पहले उन्होंने अनुशीलन और युगान्तर के माध्यम से बहुत बड़ा कार्य किया था और तभी उनकी मुलाक़ात बाघा जतिन से हुई थी।

१९२७ में जेल से रिहा होने के बाद उन्होंने अपना वैद्यकीय ज्ञान उपयोग में लाकर उस क्षेत्र में भी नेत्रदीपक कार्य किया। टी.बी. की ट्रीटमेंट के क्षेत्र में उनका नाम सम्मान के साथ लिया जाता है। युगान्तर और अनुशीलन के क्रान्तिकारियों को मिलाकर उन्होंने ‘कर्मी संघ’ नाम के एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापन की। लेकिन इस संगठन का आयुर्मान बहुत कम था। १९४२ में ‘चले जाओ’ आंदोलन में शामिल रहने पर उन्हें गिऱफ़्तार करके दो साल की सज़ा सुनायी गयी। सबसे अहम बात यह थी कि भारत की स्वतन्त्रता के पल को उन्होंने देखा और उसे अनुभव भी किया। १९७६ में उनका देहान्त हो गया।

अपने पास रहनेवाली एकाद चीज़ कभी देश की स्वतन्त्रता संग्राम में किसी काम आ सकती है, इस बात से तो कई लोग तब बेखबर ही थे।

एच.आर.ए. के सदस्यों में से एक थे प्रेमकृष्ण खन्ना। बहुत ही अमीर खानदान में इनका जन्म हुआ। शाहजहानपुर में एक बड़ी हवेली में वे रह रहे थे। वे रेल से संबंधित कॉन्ट्रॅक्ट का व्यवसाय करते थे। लेकिन इस तरह के व्यवसाय में उस समय चोर-डकैतों का बहुत डर रहता था। इस वजह से प्रेमकृष्ण खन्नाजी ने स्वसुरक्षा के लिए पिस्तौल का परवाना (लाइसन्स) प्राप्त कर लिया था।

आगे चलकर रामप्रसाद बिस्मिल से प्रेमकृष्णजी का परिचय हुआ और इसी माध्यम से एच.आर.ए. में उनका प्रवेश हुआ। स्कूली जीवन में सिलॅबस में रहनेवाली किताबों की अपेक्षा अलग अलग देशों में हुई क्रान्ति का इतिहास पढ़ना प्रेमकृष्णजी को बहुत ही पसंद था।

काकोरी योजना में उपयोग में लाया गया पिस्तौल उन्हीं के लायसन्स पर होने का आरोप उनपर रखा गया। दर असल काकोरी योजना में पिस्तौल एवं कारतूस खरीदने के लिए उन्हीं के लायसन्स का उपयोग किया गया था। ज़ाहिर है कि उन्हें पाँच साल की सज़ा सुनायी गयी। उन्होंने १९९३ में शाहजहानपुर में आख़िरी साँस ली।

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