क्रान्तिगाथा-७८

काकोरी योजना में रामप्रसाद बिस्मिल के साथ सम्मिलित रहनेवाले अशफ़ाक उल्ला खान को अँग्रेज़ सरकार ने जब इस योजना में शामिल होने का आरोप रखकर फाँसी दी, तब उनकी उम्र थी महज़ २७ साल।

रामप्रसाद बिस्मिल के व्यक्तित्व का बहुत बड़ा प्रभाव अशफ़ाक उल्ला खान के जीवन पर था और हक़ीकत में इन दोनों की आपस में काफ़ी गहरी दोस्ती थी।

२२ अक्तूबर १९०० को शाहजहाँपुर में जन्मे अशफ़ाक उल्ला खान के घर के अनेक सदस्य पुलीस, फ़ौज और प्रशासकीय सेवा में थे। अशफ़ाक उल्ला खान के बड़े भाई और रामप्रसाद बिस्मिल स्कूल में एक ही कक्षा में थे। अपने भाई से रामप्रसाद बिस्मिल के भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में रहनेवाले सहभाग के बारे में एवं कार्य के बारे में अशफ़ाक उल्ला खान को जानकारी मिलती रहती थी। इसलिए जब भी उनकी मुलाक़ात होती थी, उस हर मुलाक़ात में उनके बीच का दोस्ती का रिश्ता गहरा होता जा रहा था। दोनों को जोड़नेवाली कई समान कड़ियाँ थी-उनका अपनी मातृभूमि के प्रति रहनेवाला प्रेम, उसे आज़ाद करने की लगन और कविता।

अशफ़ाक उल्ला खान ने उर्दू, हिन्दी और अँग्रेज़ी में भी रचनाएँ की ऐसा कहा जाता है। कविमन के इस क्रान्तिकारी ने उस ज़माने में कविसंमेलनों में बहुत ही बेहतरीन कविताएँ पेश की थी, ऐसा इतिहास से ज्ञात होता है।

लेकिन कविमन के इस क्रान्तिकारी के मन में देशप्रेम ओतप्रोत भरा हुआ था और देश को ग़ुलाम बनानेवाले अँग्रेज़ों के प्रति क्रोध भरा हुआ था और इसी वजह से उन्होंने प्रवेश किया, एच.आर.ए. यानी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन असोसिएशन इस क्रान्तिकारी संगठन में।

काकोरी योजना में रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में अशफ़ाक उल्ला खान भी सम्मिलित हुए। लखनौ से पहले आनेवाले काकोरी नाम के स्टेशन के पास सहारनपुर से लखनौ जा रही ८ डाऊन पॅसेंजर ट्रेन की चेन खींचकर ट्रेन रोकी गयी और उसमें रहनेवाले सरकारी खज़ाने पर क्रान्तिकारियों ने कब्ज़ा कर लिया। उसके बाद अशफ़ाक उल्ला खान पहले बनारस और बाद में बिहार चले गये। बिहार में उन्होंने एक इंजिनिअरिंग कंपनी में दस महीनों तक काम भी किया। मक़सद यही था कि अँग्रेज़ों की गिऱफ़्त में आने से बचना। इसी दौरान लाला हरदयालजी से मिलने के लिए विदेश जाने की तैयारी भी अशफ़ाक उल्ला खान ने कर ली थी। इसके लिए वे दिल्ली गये और वहाँ अपने एक दोस्त से इस काम के लिए सहायता ली। लेकिन वह दोस्त दग़ाबाज़ निकला, उसने अशफ़ाक उल्ला खान का अतापता अँग्रेज़ों को बता दिया और फिर उन्हें ग़िऱफ़्तार कर दिया गया।

जब वे जेल में थे, तब एक पुलीस सुपरिटेंडंट ने उन्हें उनेक कार्य से परावृत्त करने की कोशिश की। इसी कारस्तान के एक हिस्से के रूप में उसने रामप्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक उल्ला खान के बीच फूट डालने की कोशिशें की। लेकिन उसकी कोशिशें नाकाम साबित हुई।

आख़िर १९ दिसंबर १९२७ को फैज़ाबाद जेल में अशफ़ाक उल्ला खान को फाँसी दी गयी।

अँग्रेज़ों ने अनेक क्रान्तिकारियों को फाँसी दी। ये क्रान्तिकारी फाँसी के तख्त तक अविचलता से कदम बढ़ाते थे। वह फाँसी का फंदा नहीं है, वह तो मेरी मातृभूमि के प्यार की माला है यह मानकर ही उसे गले में पहन लेते थे और ये सब महज़ कही सुनायी बातें नहीं हैं, बल्कि इन सब घटनाओं के चष्मदीद गवाह रहनेवालों के द्वारा खुद बतायी गयी हक़ीकत है। फाँसी की सज़ा सुनायी जाने के पल से लेकर प्रत्यक्ष रूप से फाँसी का फंदा गले में पहन लेने तक हमेशा ही क्रान्तिकारी अविचल एवं धैर्ययुक्त चित्त से रहते थे और यह ताकत उन्हें मिली थी, उनकी अपनी मातृभूमि के प्रति रहनेवाले प्यार से।

काकोरी योजना के अन्तगर्त फाँसी की सज़ा सुनाये गये अन्य दो में से एक नाम था, राजेन्द्रनाथ लाहिरी का। १९०१ में बंगाल के पबना जिले में जन्में राजेन्द्रनाथ का खानदान अमीर था। बंगाल और बनारस में बहुत बड़ी ज़मीन पर जिनकी मालकियत थी, ऐसे उनके पिता क्षितीश मोहन लाहिरी ये भी अँग्रेज़ों के खिलाफ अनेक क्रान्तिकारी कृतियाँ करनेवाले थे।

एच.आर.ए. की स्थापना होने के बाद बंगाल में दक्षिणेश्‍वर में बम बनाने का कारखाना शुरू हुआ। इसमें राजेन्द्रनाथ लाहिरी का अहम योगदान था और दक्षिणेश्‍वर बम केस के सिलसिले में अँग्रेज़ उन्हें खोज रहे थे। लेकिन तब तक राजेन्द्रनाथ उत्तर प्रदेश में आकर कार्यकारी हो चुके थे।
काकोरी योजना में शामिल होने का इल्ज़ाम रखकर उन्हें गिरफ्तार किया गया। लेकिन गिऱफ़्तारी के बाद पहले दक्षिणेश्‍वर बम काण्ड का मुकदमा चलाकर १० साल की सज़ा सुनायी गयी और फिर काकोरी योजना केस में उनपर आरोप रखकर उन्हें फाँसी की सज़ा सुनायी गयी। १७ दिसंबर १९२७ को यानी दर असल निर्धारित दिन से दो दिन पहले ही उन्हें फाँसी दी गयी।

अनेक क्रान्तिकारियों ने फाँसी के तख्तपर कदम रखने से पहले अपने परिजनों को जो आख़िरी खत लिखे थे, उनमें उन्होंने कहा था कि परिजन उनकी मृत्यु के कारण शोक न करें, बल्कि इस पर गर्व करें क्योंकि उनकी मृत्यु उनकी मातृभूमि को गुलामी से आज़ाद करने के लिए हुई थी।

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