क्रान्तिगाथा-५८

‘हिंदु-जर्मन कॉन्स्पिरसी’ के अंतर्गत बनायी गयी योजनाएँ भले ही प्रत्यक्ष रूप में सफल न भी हो पायी हों, लेकिन इन योजनाओं में दिये गये योगदान के कारण समूचे भारत के क्रांतिवीर और देशभक्त यक़ीनन ही बहुत तेज़ी से अपने कामों में जुट गये।

इन योजनाओं को सफल बनाने के लिए भारतीय क्रांतिवीर ठेंठ जर्मनी जाकर वहाँ जर्मन अधिकारियों से मुलाक़ात भी कर आये थे। इतना ही नहीं, बल्कि जर्मनी से भारत शस्त्र-अस्त्र भी भेजे जानेवाले थे। और उन शस्त्र-अस्त्रों को बोट से भारत के पूर्वीय किनारे पर लाये जाने की योजना भी बनायी गयी थी। इन शस्त्र-अस्त्रों की सहायता से ही अँग्रेज़ सरकार को शह दिया जानेवाला था। वैसे देखा जाये तो यह बड़े साहस का ही काम था।

‘युगान्तर’ के जतीन्द्रनाथ के बारे में कहें तो भारत के बाहरी देशों के क्रांतिवीरों और भारत में रहनेवाले अन्य क्रांतिवीरों तथा ‘युगान्तर’ के सदस्यों की मदद से अब उनका कार्य तेज़ हो गया था। उनका कार्य कइयों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन रहा था। इससे अपनी मातृभमि के लिए कुछ करने के लिए युवा पिढ़ी बहुत बड़े प्रमाण में सक्रिय हो गयी थी। इस वजह से जतीन्द्रनाथजी को ग़िरफ़्तार करना यह अँग्रेज़ सरकार का लक्ष्य बन गया था। फिर अँग्रेज़ सरकार से पीछा छुड़ाने के लिए जतीन्द्रनाथजी को किसी सुरक्षित जगह पनाह ले लेनी चाहिए, ऐसा सुझाव उनके सहकर्मियों ने दिया। साथ ही उनतक संदेश पहुँचाने-लाने के लिए एक बिझनेस हाऊस की स्थापना भी की गयी।

क्रान्तिगाथा, इतिहास, ग़िरफ्तार, मुक़दमे, क़ानून, भारत, अँग्रेज़सन १९०९ में बंगाल स्थित क्रांतिकारियों के द्वारा बनायी गयी एक अन्य योजना ‘ख्रिसमस प्लॉट’ इस नाम से विख्यात हुई। ख्रिसमस के त्योहार के दिन बंगाल के गव्हर्नर के घर आयोजित किये जानेवाले नृत्य के कार्यक्रम में प्रमुख अँग्रेज़ अफसर तो अवश्य उपस्थित होंगे, इसमें कोई भी संदेह नहीं था। टुकडी के भारतीय सैनिक उस पूरे बॉलरूम को ही उडा देनेवाले थे। लेकिन इस योजना को अंजाम तक पहुँचाने में सफलता नहीं मिल सकी। मग़र इससे हार न मानकर १९१५ में फिर एक बार ‘ख्रिसमस डे प्लॉट’ की योजना बनायी गयी।

जतीन्द्रनाथ की गतिविधियों को देखते हुए अँग्रेज़ सरकार उन्हें पकडना चाहती थी, इसमें कोई संदेह नहीं है। फिर अँग्रेज़ सरकार की ग़िरफ़्त में आने से उन्हें बचाने की दिशा में उनके सहकर्मियों ने कोशिशें करनी शुरू कर दीं। क्योंकि जतीन्द्रनाथ युगान्तर के केवल ‘हाथ’ नहीं थे, बल्कि वे युगान्तर का ‘सिर’ थे, यानी योजना बनाकर कृति करनेवाले थे। इसलिए हमारे इस ‘सिर’ को किसी भी प्रकार का कोई ख़तरा उत्पन्न नहीं होना चाहिए, ऐसी जतीन्द्रनाथ के सहकर्मियों की इच्छा थी।

आखिर अपने सहकर्मियों के आग्रह के कारण वे सुरक्षित स्थल पर रवाना हो गये। लेकिन अँग्रेज़ों को इस स्थान के बारे में पता चल जाने की ख़बर मिलते ही जतीन्द्रनाथ को वह स्थान छोड़ने का संदेश भेजा गया। लेकिन दुर्भाग्यवश उन्हें वह स्थान छोड़ने में देर हो गयी और अँग्रेज़ अपने मनसूबे में सफल हो गये।

अँग्रेज़ जतीन्द्रनाथ और उनके सहकर्मियों का सुराग ढूँढते हुए निकले। अँग्रेज़ों ने उन सभी क्रांतिवीरों को पकड़ने के लिए कई योजनाएँ बनायी थीं, साथ ही इसके लिए कड़े इंतज़ाम भी किये थे। अपने सहकर्मियों के साथ जंगलों और पर्वतों को पीछे छोड़ते हुए जतीन्द्रनाथ आखिर बालासोर पहुँच गये। लेकिन ओरिसा के बालासोर में जतीन्द्रनाथ के अपने सहकर्मियों के साथ होने की खबर अँग्रेज़ों को मिल गयी। वहाँ की पुलिस भी पुन: सक्रिय हो गयी। और इन सभी क्रांतिवीरों को ढूँढ निकालने के लिए उन्होंने अपनी पुरानी तरक़ीब का फिर एक बार इस्तेमाल किया। जो ग्रामवासी इन क्रांतिवीरों का अता पता बतायेगा, उसे इनाम देने की घोषणा अँग्रेज़ों के द्वारा की गयी। अँग्रेज़ों की इस घोषणा के कारण अब क्रांतिवीरों के लिए उस स्थान को त्यागना आवश्यक बन गया था।

फिर एक बार जंगलों में से, कीचड़ में से, बारिश में से सफर शुरू हो गया। एक पर्वत के नीचे आकर सब रुक गये। यहीं पर अँग्रेज़ों से उनकी भिडंत हुई और घमासान लडाई शुरू हो गयी। उस समय जतीन्द्रनाथ के साथ जो सहकर्मी थे, उनका कहना था कि जतीन्द्रनाथ उन्हें वहीं पर छोड़कर दूसरी जगह चले जायें और अँग्रेज़ों के हाथ न आयें। लेकिन ऐसे व़क्त अपने सहकर्मियों को छोड़कर जाने से जतीन्द्रनाथ ने इनकार कर दिया।

इन क्रांतिवीरों के पास केवल पिस्तौलें थी और वे पाँच लोग थे। वहीं अँग्रेज़ पुलिस और सेना हथियारों से लैस थी। अब इनकी भिडंत हुई थी। फिर क्या होगा? फिर भी क्रांतिवीर अँग्रेज़ों की सेना से जूझते रहे। क्योंकि उनकी लड़ाई तो अपनी ‘साँस’ के लिए ही चल रही थी; जी हाँ, अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता ही उनकी साँस थी।

आख़िर अँग्रेज़ों के शस्त्रों का बल भारी साबित हुआ। इस लड़ाई में क्रांतिवीर ज़ख़्मी होने लगे। दर असल दोनों तरफ़ के लोग इसमें घायल हुए थे। जतीन्द्रनाथ भी इस लड़ाई में घायल हो गये। उन्हें अस्पताल में दाखिल किया गया। और आखिर १० सितम्बर १९१५ को उनका देहान्त हो गया।

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में जिन्होंने बलिदान किया उस हर एक के लिए भारतीयों की आँखों में आँसू थे। लेकिन एक आँख के आँसू हुतात्माओं के बलिदान के दुःख के थे, वहीं दूसरी आँख के आँसू उनके बलिदान के प्रति रहनेवाले गर्व के थे।

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