क्रान्तिगाथा-५०

भारतमाता के कई सुपुत्र जो शिक्षा(एज्युकेशन) प्राप्त करने के लिए या नौकरी-व्यवसाय के हेतु भारत के बाहर अन्य देशों में गये हुए थे, वे भारत की स्वतंत्रता के लिए लगातार कोशिशें कर रहे थे, कई योजनाएँ बना रहे थे और उन योजनाओं को अंजाम भी दे रहे थे।

सरदार सोहनसिंह भाकना, गदर पार्टी के संस्थापक थे। अमृतसर के पास रहनेवाले एक गांव में जनवरी १८७० में उनका जन्म हुआ। उन्होंने वहीं पर स्कूली शिक्षा प्राप्त की। सन १९०० के आसपास पंजाब में तेज़ रफ्तार से शुरू हुए स्वतन्त्रता के प्रयासों में सोहनसिंह भी शामिल थे। व्यवसाय करने के लिए वे फरवरी १९०९ में अमरिका गये।

वहाँ पर जाने के बाद भी सरदार सोहनसिंह के मन में सन १९०० में ही बोया गया स्वतन्त्रता प्राप्ति का बीज उन्हें शांतिपूर्वक बैठने नहीं दे रहा था। उसी समय उन्होंने लाला हरदयाल और अन्य देशभक्तों के साथ ‘गदर पार्टी’ की स्थापना में अहम भूमिका निभायी। वे जब भारत लौट रहे थे, उस समय ‘गदर कॉन्स्पिरसी’ में शामिल हुए प्रमुख क्रांतीवीर होने के कारण उन्हें कलकत्ता (वर्तमान समय का नाम कोलकाता) में १९१४ में गिरफ्तार किया गया। उनपर मुकदमा दायर किया गया और उन्हें फाँसी की सजा सुनायी गयी। लेकिन आगे चलकर इस सजा के बजाय उन्हें कालेपानी की यानी आजीवन कारावास की सजा देकर अंदमान भेजा गया। आखिरकार १९३० के जुलाई में उनकी कारावास में से मुक्तता की गयी।

कारागार से मुक्तता होने के बाद भी वे भारत की स्वतन्त्रता के लिए की जा रही कोशिशों में क्रियाशील रहे। आखिर सन १९६८ में उनका देहान्त हो गया।

‘गदर पार्टी’ केवल वैचारिक क्रांती पर जोर नहीं दे रही थी; बल्कि अँग्रेज़ों से लड़ने के लिए उन्होंने शस्त्र-अस्त्रों का भी इस्तेमाल किया। इतनाही नहीं तो बम बनाने का ज्ञान भी ‘गदर पार्टी’ के सदस्यों को था। इन सदस्यों में से एक महत्त्वपूर्ण नाम था, विष्णू गणेश पिंगळे.

सन १८८८ में तळेगांव में उनका जन्म हुआ। बचपन में ही उन पर मातृभूमिभक्ति के संस्कार होने के कारण उन्हें उसी बात का निदिध्यास था। १९०७ में उनकी मुलाकात बम बनाने का प्रशिक्षण प्राप्त किये एक व्यक्ति के साथ हुई। विष्णू गणेश पिंगळे के बाहू स्फुरित हो रहे थे। वे उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए अमरिका गये। १९११ में अमरिका जाने के बाद ‘गदर पार्टी’ के सदस्यों से उनकी मुलाकात हुई और वे ‘गदर पार्टी’ के सदस्य बन गये।

‘गदर पार्टी’ ने भारत में स्थित ब्रिटिश सेना में क्रान्ति करवाने की जो योजना बनायी थी, उसमें विष्णू गणेश पिंगळे की अहम भूमिका थी। उन्होंने भारतभर में कई स्थानों पर स्थित अँग्रेज़ों की सेना के भारतीय सैनिकों को अँग्रेज़ों के ख़िलाफ खड़े रहने के लिए प्रेरित किया। इसके परिणामस्वरूप कई जगहों के भारतीय सैनिक अँग्रेज़ों के खिलाफ खड़े होने के लिए सिद्ध हो गये। लेकिन दुर्भाग्यवश अँग्रेज़ सरकार को इसकी भनक लग गयी और यह योजना सङ्गल नहीं हो पायी।

अन्य क्रान्तिवीरों के साथ विष्णू गणेश पिंगळे को गिरफ्तार किया गया। विष्णू गणेश पिंगळे को फाँसी की सजा सुनायी गयी और उस सजा को नवम्बर १९१५ में लाहोर के सेंट्रल जेल में अंजाम दिया गया। क्रान्तियज्ञ को निरन्तर जारी रखने के लिए और एक भारतीय युवक ने हँसते हँसते फाँसी के फंदे पर चढकर भारतमाता के लिए समर्पण किया।

भारतमाता के ऐसे कई सुपुत्रों को अँग्रेज़ सरकार ने फाँसी दे दी, उनका अस्तित्व ही नष्ट कर दिया। उनमें से कई तो युवावस्था में ही थे। लेकिन भारतमाता के कुछ सुपुत्र ऐसे भी थे, जिन्होंने अपनी मातृभूमि को स्वतंत्र होते हुए देखा। ऐसा ही एक व्यक्तित्व था, डॉ. पांडुरंग सदाशिव खानखोजे।

गदर पार्टी के प्रमुख आधारस्तभों में से एक। नवंबर १८८४ में वर्धा में उनका जन्म हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा वर्धा में ही पूरी होकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए वे नागपूर गये। डॉ. खानखोजे लोकमान्य टिळक के विचारों से प्रभावित हुए थे। २०वीं सदी के पहले दशक में वे अमरिका गये और १९११ में वहाँ के एक युनिव्हर्सिटी में से उन्होंने ‘कृषि’ विषय में डिग्री हासील की। अन्य देशभक्तों की सहायता से उन्होंने १९०८ में पोर्टलँड में ‘इंडियन इंडिपेन्डन्स लीग’ की स्थापना की। उसके बाद गदर पार्टी के सदस्यों के साथ उनकी मुलाकात हो गयी और वे गदर पार्टी के आधारस्तंभों में से एक बन गये। भारत में स्थित अँग्रेज़ सरकार के खिलाफ़ क्रान्ति करने की योजना में भी वे शामिल थे। उन्होंने अँग्रेज़ सेना में स्थित भारतीय सैनिकों में सरकारविरोधी पत्रिकाओं को बाँटना आदि काम भी किये।

इसके पश्‍चात् भारत के स्वतन्त्रता प्राप्ती के प्रयासों में उन्होंने विभिन्न देशों में वास्तव्य भी किया। उनके इस कार्य के परिणामस्वरूप अँग्रेज़ सरकार ने उनके भारत लौटने पर पाबँदी लगायी। सन १९२० के आसपास मेक्सिको में जाकर उन्होंने कृषिविषय में अध्यापन और कार्य भी किया। भारत स्वतन्त्र होने के बाद वे पत्नी के साथ भारत लौटे और आखिर जनवरी १९६७ में उनका देहान्त हो गया।

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