क्रान्तिगाथा- २०

अगस्त के अन्त में दिल्ली से पास रहनेवाले नज़फ़गढ़ में मिली जीत से अँग्रेज़ों का मनोबल का़फ़ी बढ़ गया था; वहीं इतने दिनों से अँग्रेज़मुक्त दिल्ली में रहनेवाली क्रान्तिकारियों की सेना को लगा हुआ यह पहला बड़ा झटका था। क्योंकि इस जंग में नीमच से आये हुए क्रान्तिकारी शहीद हो गये थे।

अब दिल्ली को सुरक्षित रखना यह क्रान्तिकारियों की अहम ज़िम्मेदारी बन गयी थी क्योंकि अँग्रेज़ों के पास फ़ौ़ज के साथ साथ अब शस्त्र-अस्त्र भी बड़े पैमाने पर भेजे जा रहे थे। सितंबर के पहले ही हफ़्ते में अँग्रेज़ शस्त्र-अस्त्रों से लैस हो गये और अब बड़ी संख्या में फ़ौजी भी उनके पास थे। इसका मतलब यह था कि अब वे किसी भी वक़्त दिल्ली पर कब्ज़ा करने के लिए हमला कर सकते थे। वहीं भारतीय सेना अब भी का़फ़ी बिखरी हुई सी थी।

अब संख्या और शस्त्रबल से लैस अँग्रेज़ों ने अपने सैनिकी अनुशासन के अनुसार कदम उठाने शुरू कर दिये। दिल्ली की सीमा पर अँग्रेज़ों ने फ़ौ़ज लाकर रख दी।

दिन था १४ सितंबर १८५७ का। १३ सितंबर १८५७ की रात को ही सारी अँग्रेज़ फ़ौ़ज ने मोरचा सँभाल लिया था। अब वह स़िर्फ़ ‘आक्रमण’ के आदेश का इन्तज़ार कर रही थी। दिल्ली शहर की चहार दीवारी में ही शहर में दाखिल होने के प्रवेशद्वार थे। अब १४ सितंबर के सूर्योदय से पहले ही दिल्ली पर कब्ज़ा करने के लिए हमला करने का अँग्रेज़ सेना अधिकारियों ने तय कर लिया।

निकोल्सन

अँग्रेज़ों ने अपनी फ़ौ़ज के जो विभाग किये थे, उनमें से ३ विभाग निकोल्सन की अगुआई में उत्तरी दिशा की चहार दीवारी के बाहर इकट्ठा हो गये। चौथा विभाग क़ाबूल दरवाजे की तरफ़ से तब ही हमला करनेवाला था, जब दिल्ली शहर में घुस चुकी अँग्रेज़ फ़ौ़ज इस काबूल गेट को खोल देनेवाली थी। १३ और १४ सितंबर से पहले भी अँग्रेज़ और क्रन्तिकारियों के बीच छोटी बड़ी भिड़ंत हो ही रही थी और इस लड़ाई में चहारदीवारी का कुछ हिस्सा, पुल आदि को अँग्रेज़ ध्वस्त करने की कोशिशों में जुट गये थे। वहीं दिल्ली स्थित क्रान्तिवीर बीच की कालावधि में अँग्रेज़ों द्वारा ध्वस्त की गयी रचनाओं की यथासंभव मरम्मत कर रहे थे।

१४ सितंबर को जंग छिड़ गयी। अँग्रेज़ दिल्ली शहर की चहारदीवारी पर हमला करते हुए दिल्ली शहर में दाखिल होने की तैयारी कर रहे थे और उनके इस हमले का भीतर से क्रान्तिकारी मुँहतोड़ जवाब दे रहे थे। इसी दौरान चहारदीवारी की उत्तर दिशा में रहनेवाला कश्मीर दरवाज़ा अँग्रेज़ सेना ने सुरंग से उड़ा दिया। अब भीतर का दिल्ली शहर अँग्रेज़ सेना को सा़फ़ सा़फ़ दिखायी दे रहा था और ढहे हुए कश्मीर दरवाज़े में से अँग्रेज़ों की सेना आख़िर दिल्ली में घुस गयी।

घमासान जंग छिड़ गयी। दोनों सेनाएँ जी जान से आपस में लड़ रही थी। जंग में खूनखराबा तो होता ही है। इस घमासान में दोनों पक्षों के कुछ सैनिक शहीद हो रहे थे, कई सैनिक ज़ख्मी हो गये थे। दिल्ली शहर की चहारदीवारी के भीतर दिल्ली के नागरिक भी थे।

क़ाबूल गेट के बाहर घात में बैठी हुई अँग्रेज़ फ़ौ़ज और क्रान्तिकारियों के बीच अब घमासान जंग छिड़ गयी। दिल्ली शहर की महत्त्वपूर्ण जगहों पर कब्ज़ा करने के लिए अँग्रेज़ फ़ौ़ज आगे बढ़ रही थी। उन्हें रोकने का काम क्रान्तिकारी अपने शस्त्रों के साथ पूरी ताकत लगाकर कर रहे थे। इस पूरे घमासान में, जिस निकोल्सन के आने से अँग्रेज़ों का मनोबल बढ़ गया था, वह निकोल्सन बहुत ज़्यादा घायल हो गया था।

दुर्भाग्यपूर्ण बात यह थी कि अँग्रेज़ों की फ़ौ़ज में से कई नेटिव्ह अपने ही भाईयों के खिलाफ़ डँटकर लड़ रहे थे। दिल्ली शहर मानों रणभूमि बन गया था।

१४ सितंबर १८५७ का सूर्य डूब गया। दिल्ली पर हुए हमले का पहला दिन पूरा हो गया। तब तक दिल्ली शहर के कुछ हिस्से पर कब्ज़ा करने में अँग्रेज़ क़ामयाब गये थे और अँग्रेज़ फ़ौ़ज अब वहाँ पर डेरा डाले थी। दिन के अन्त तक दोनों तऱफ़ की सेना का का़फ़ी नुकसान हुआ था। मग़र जंग अब भी खत्म कहाँ हुई थी? जिस हिस्से पर अँग्रेज़ों ने अब भी कब्ज़ा नहीं किया था, वहाँ पर उनसे जूझने के लिए क्रान्तिकारी तैयार थे ही!

१५ सितंबर के सूर्योदय के साथ युद्ध पुन: शुरू हो गया। तोपें, बंदूक की गोलियाँ और तलवारें चलने लगीं। मग़र पहले दिन दिल्ली का एक चौथाई हिस्सा ही दुश्मन के कब्ज़े में आया हुआ था।

१५ सितंबर से शुरू हुई यह जंग २० सितंबर तक चली। लेकिन दुर्भाग्यवश हर नये उगते दिन के साथ दुश्मन को यानी अँग्रेज़ों को क़ामयाबी मिल रही थी। धीरे धीरे अँग्रेज़ दिल्ली को निगल रहे थे। कई क्रान्तिकारी अब भी जान की बाज़ी लगाकर लड़ रहे थे। लेकिन अब उनके ‘राजा’ ने अपना क़िला छोड़कर अन्य जगह पनाह ले ली थी। बख्त खान और उनकी सेना अब भी विजय की धुँधली आशा मन में लिये दुश्मन से जूझ रही थी।

२० सितंबर १८५७ का दिन दिल्ली के लिए बहुत ही दुखदायी खबर लेकर आया था। क्योंकि इसी दिन दिल्ली पर फ़िर एक बार अँग्रेज़ों ने कब्ज़ा कर लिया था।

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