क्रान्तिगाथा-१५

मेरठ के भारतीय सैनिक जिस वक़्त अँग्रेज़ों के खिलाफ़ खड़े हो गये, उसके बाद अन्य जगहों के अँग्रेज़ों ने, खास कर सेना अफ़सर रहनेवाले अँग्रेज़ों ने अधिकतर इलाक़ों में वहाँ पर रहनेवाले अँग्रेज़ों की सुरक्षा व्यवस्था का इंतज़ाम करना शुरू कर दिया था।

५ जून को जब कानपुर स्थित भारतीय सैनिकों ने अँग्रेज़ों के खिलाफ़ जंग छेड़ दी, तब अँग्रेज़ों ने उनके लिये बनाये हुए आश्रयस्थान में पनाह ले ली। मग़र कुछ ही दिनों में उनकी हालत खराब हो गयी। उत्तरी भारत का तेज़ गरमियों का मौसम, भारतीय सैनिकों द्वारा घेरा जाना, खान-पान के साधनों की क़िल्लत! ऐसे में कहा जाता है कि यहाँ पर पनाह लिये हुए कई अँग्रेज़ इस तेज़ गरमी को बरदाश्त ही नहीं कर सके। दोनों तरफ़ से आक्रमण हो ही रहा था। अब तक भारतीय सैनिकों का पलड़ा का़फ़ी भारी हो गया था और कानपुर के अँग्रेज़ मुश्किल में पड गये थे, यहाँ तक कि भारतीय सैनिकों द्वारा डाले गये घेरे में से एक भी अँग्रेज़ बाहर निकलकर कानपुर से भाग नहीं सकता था। जैसे जैसे दिन बीत रहे थे, वैसे वैसे अँग्रेज़ों की मुश्किलें बढ़ती ही जा रही थीं। अब गरमियों की परेशानी झेलने के साथ खाने-पीने का सामान भी बहुत ही कम बचा था। सारांश, इन सब बातों के कारण अँग्रेज़ों के गुट में काफ़ी निराशाजनक माहौल बन गया था।

वहीं यहाँ पर भारतीय सैनिकों का जोश दिनबदिन बढ़ता ही जा रहा था क्योंकि अब कानपुर को अँग्रेज़ मुक्त बनाने का सपना सच में उतरने जैसे हालात बनते जा रहे थे। १८५७ जून की दस तारीख के आसपास कानपुर में लगभग १२-१५ हज़ार नेटिव्हों का नेतृत्व कर रहे थे, ‘नानासाहब पेशवा’।

‘बाजीराव पेशवा-२’ से उनका राज छीनकर अँग्रेज़ों ने उन्हें कब का बिठूर भेज दिया था। अब तक इन पेशवा की गद्दी को कोई वारिस नहीं था। नारायणभट्ट और गंगाबाई इस दंपती के घर १९ मई १८२४ को एक बच्चे का जन्म हुआ। उस बच्चे का नाम रखा गया ‘धोंडुपंत’। इस बच्चे को बाजीराव पेशवा-२ ने गोद लेकर उसका नामकरण किया – ‘नानासाहब पेशवा’।

‘बाजीराव पेशवा-२’

नानासाहब पेशवा की परवरिश बिठूर में ही हुई। यहीं पर उन्हें एक राज्यकर्ता के लिए आवश्यक प्रशिक्षण दिया गया। बाजीराव पेशवा-२ को ‘पेशवा’ इस संबोधन का उपयोग करने से अँग्रेज़ों ने मनाई की थी, लेकिन उन्हें ‘महाराज’ इस प्रकार संबोधित किये जाने से अँग्रेज़ों को कोई आपत्ति नहीं थी। बाजीराव पेशवा-२ को जब बिठूर में स्थलान्तरित किया गया, तब उनके परिवार के साथ साथ उनके इला़के के कुछ लोग भी बिठूर आकर बस गये थे। अँग्रेज़ों ने बाजीराव पेशवा-२ को उनके जन्मस्थल में पैर तक रखने से सख्त मना किया हुआ था। अँग्रेज़ों ने बाजीराव पेशवा-२ द्वारा गोद लिये गये बेटे को उनकी गद्दी का वारिस मानने से साफ़ इनकार कर दिया था। इसी बात से नानासाहब के मन में अँग्रेज़ों के खिलाफ़ संघर्ष के बीज बोये गये थे।
१८१४ में महाराष्ट्र के नासिक जिले के येवला में पैदा हुआ एक बालक, जिसके माता-पिता का नाम था ‘पांडुरंगराव टोपे’ और ‘रखमाबाई’। ये ही थे वे १८५७ के संग्राम के जाँबाज़ सेनापति ‘तात्या टोपे’। बिठूर में नानासाहब के साथ तात्या टोपेजी की दोस्ती इतनी दृढ़ हो गयी कि स्वतन्त्रतासंग्राम की युद्धभूमि में उतरे अपने राजा का सेनापति पद उन्होंने स्वीकार कर लिया। प्रखर सैनिकी मिजाज़ का परिचय हमें तात्या टोपे के चरित्र से मिलता है। जिस पल कानपुर ने अँग्रेज़ों के खिलाफ़ जंग छेड़ दी, उसी पल से यह जाँबाज़ सेनापति डँटकर लड़ रहा था, अपनी मातृभूमि के लिए, अपने देशवासियों के लिए। तात्या टोपे यह एक वीर व्यक्तित्व था इसमें कोई दोराय नहीं है, लेकिन साथ ही गुप्त रूप से एवं बड़ी बुद्धिमानी से दाँवपेंच लडानेवाला एक बहुत ही बुद्धिमान व्यक्तित्व था। अत एव इस स्वतन्त्रतासंग्राम को क़ामयाब बनाने के लिए उन्होंने जिस तरह बहादुरी से तलवार चलायी, उसी तरह अपनी बुद्धि के बल का भी उपयोग किया। किसी जगह यदि भारतीय सेना को पीछे हटना पड़ रहा हो, तो वहाँ पर तात्या टोपे कुछ ऐसी चालें चलते थे, जिससे कि अँग्रेज़ों को पूरी तरह खदेड़ देने में सफ़लता मिलती थी।

इसी बिठूर में पली बढ़ी थी ‘मनकर्णिका’। मोरोपन्त तांबे और भागीरथीबाई की बेटी। इसका जन्म हुआ था १९ नवंबर १८२८ को काशी में। उसकी उम्र के चौथें वर्ष में ही उसकी माँ का देहान्त हो गया। वह अपने पिता के साथ बिठूर में ही रह रही थी, क्योंकि उसके पिता बिठूर के पेशवा के राजदरबार का कामकाज देखते थे। पेशवा ने तो उसकी परवरिश अपनी बेटी की तरह की थी। तीरंदाज़ी, धनुर्विद्या और घुड़सवारी भी उसे बिठूर में सिखायी गयी। १८४२ में उसकी शादी होकर वह ससुराल चली गयी। उसका ससुराल था झाँसी का और उसके पति का नाम था- राजा गंगाधरराव- झाँसी के महाराज और फ़ीर मनकर्णिका जानी जाने लगी ‘रानी लक्ष्मीबाई’ इस नाम से- ‘झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई’।

अब कानपुर के अँग्रेज़ों को घेरे हुए आधा जून बीत चुका था। २३ जून १८५७ का दिन! प्लासी की जंग की शताब्दी! ठीक इसी दिन, १०० साल पहले प्लासी की जंग के बाद भारत में अँग्रेज़ों ने अपने पैर जमा लिये थे और कहीं किसी ने भविष्यवाणी की थी कि भारत में स्थित अँग्रेज़ी हुकूमत का अन्त ठीक सौ साल बाद होनेवाला है।

फ़ीर ऐसे इस दिन को भला कानपुर के सैनिक व्यर्थ गँवा कैसे सकते थे? उस शताब्दी को उन्होंने मनाया, दुश्मन पर ज़ोरदार आक्रमण करके। मग़र इसके बावजूद भी दुश्मन घुटने नहीं टेक रहा था और कोई ठोस नतीजा सामने नहीं आ रहा था।

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