क्रान्तिगाथा- ११

३१ मई १८५७ का दिन! दर असल बहुत पहले ही, अंग्रेजों की हु़कूमत के बन्धनों को तोड़ देने के लिए एकजुट होकर खड़े होने के दिन के रूप में स्वतन्त्रतासंग्राम के अग्रणियों द्वारा निर्धारित किया गया था। तो हक़ीक़त में ३१ मई यह दिन शान्ति में भला कैसे गुजर सकता था?

मेरठ के सैनिकों की बहादुरी की कथा सारे भारतवर्ष में कब की पहुँच चुकी थी और अब तो दिल्ली पर भी भारतीय ध्वज लहरा रहा था। दर असल मेरठ की खबर सब जगह फैलते ही गतिविधियों ने ज़ोर पकड़ लिया था। लेकिन कई जगह के सैनिक इस कदर रोजमर्रा की तरह आचरण कर रहे थे कि उनके अँग्रेज अफसरों को इस बात का यकिन था कि ये सैनिक कभी भी बगावत नहीं करेंगे।

east-india-company- अंग्रेजों की हु़कूमत

अंग्रेज़ों ने भारत की रियासतों को कोई न कोई बहाना बनाकर निगल ही लिया था और जहाँ राजा ही नहीं रहा या ‘नामधारी’ रहा, वहाँ उसके अधिकार में फ़ौज भी कैसे हो सकती है? फिर भारतीयों के पास भी रोज़ीरोटी के लिए ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में भरती होने के अलावा और कोई चारा नहीं रहा था। ये स्थानीय लोग, जिनका ज़िक्र ‘नेटिव्ह’ कहकर किया जाता था, वे फिर अंग्रेज़ों की सेना में ‘सिपॅाय’ (सिपाही/सैनिक) के रूप में भरती होने लगे थे। मद्रास और मुंबई इला़के में स्थानीय लोगों की सैनिकों के रूप में भरती करके वहाँ सेना की टुकड़ियाँ बनायी गयीं; वहीं उत्तरी भारत और बिहार के अधिकतर सैनिकों से बनी थी ‘बंगाल आर्मी’। इन सभी सैनिकों को नमकहलाली की यानी अंग्रेज़ों के पक्ष में लड़ने की क़सम खानी पड़ती थी। फिर उन्हें युद्ध करने के लिए भारत में या भारत के बाहर कहीं पर भी भेजा जाता था। ऐसे इन सैनिकों का ‘हमारे खिलाफ खड़े रहने का तो सवाल ही नहीं उठता’, यही अंग्रेज़ मानकर चल रहे थे।

यहाँ पर दिल्ली भारतीय सैनिकों के कब्ज़े में आ चुकी देखकर दिल्ली में फ़ौरन अंग्रेज़ सेना भेजने की माँग अंग्रेज़ों की तरफ से की जा रही थी।

१८५७ के मई के महीने की कड़ी धूप में परिवर्तन की गरम हवाएँ अलीगढ़, बुलंद शहर, इटावा, मिनपुर, नासिराबाद, बरेली, मुरादाबाद इन जैसे छोटे बड़े कई शहरों में बहने लगी थीं।

अंग्रेज़ों की बहुत ही भरोसेमंद रहनेवाली ९ वीं नेटिव्ह रेजिमेंट अलीगढ़ और उसके आसपास के इला़के में थी। मई के मध्य में यहाँ के सैनिकों के लिए सन्देश लेकर पास ही के गाँव में रहनेवाला एक नागरिक आ गया। ‘अब अंग्रज़ों को उनकी जगह दिखाने का व़क़्त आ गया है’ इस आशय का सन्देश उसने सैनिकों तक पहुँचाया ही था कि तभी वहाँ के अंग्रेज़ अफसर को इस बात का पता चल गया। उस मनुष्य को फ़ौरनगिरफ्तार करके उसका फैसला भी तुरन्त ही किया गया और उसे फाँसी पर चढ़ाने का तय भी कर लिया गया। यह सब हो रहा था, सारे सैनिकों की आँखों के सामने, अलीगढ़ शहर में।

अलीगढ़ में हो रहे इस घटनाक्रम को देख रहे एक सैनिक का खून खौल उठा और उसने अपने अन्य सैनिकी भाईयों को भड़काया। एक बेगुनाह को, महज़ सन्देश लेकर आये व्यक्ति को फाँसी पर लटकता हुआ देखकर अन्य सैनिक भी खौल उठे। उस शहीद का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। बुलंद शहर के सैनिक भी अब अलीगढ़ में दाखिल हो चुके थे।

मातृभूमि के दुश्मनों के खिलाफ खड़े हो चुके इन सैनिकों ने फिर ‘तुरन्त हमारी भूमि पर से चले जाओ’ यह इशारा दुश्मनों को दे दिया। फिर वहाँ के सभी ब्रिटिश अपने परिवारसहित वहाँ से निकल पड़े। उस रात उस शहर में एक भी ब्रिटिश नहीं था।

क्रान्ति कहते ही हमारी आँखों के सामने खूनखराबा आ जाता है। लेकिन १८५७ की इस क्रान्ति में इतिहास तथा उस व़क़्त के प्रत्यक्षदर्शी कहते हैं कि कई जगह जब भारतीय सैनिक अंग्रेज़ों के खिलाफ खड़े हो गये, तब उन्होंने अंग्रेजों को अपने कुटुंब-क़बिले के साथ उस जगह को छोड़कर चले जाने के लिए कहने के बाद, चले जाने के लिए अवसर भी दिया और कई बार तो उन्हें वहाँ से निकल जाने के लिए वाहन आदि की व्यवस्था भी करके दे दी।

अलीगढ़ पर भारतीय सैनिकों का वर्चस्व प्रस्थापित हो जाने की खबर मिनपुर और इटावा पहुँच गयी। मिनपुर के सैनिकों ने भी फिर इसी तरह का पैंतरा अपनाकर मिनपुर को ब्रिटिशमुक्त कर दिया और वहाँ के शस्त्रागार के शस्र-अस्त्र लेकर वे २३ मई को दिल्ली के लिए रवाना भी हो गये।

उसी समय इटावा शहर के कलेक्टर और असिस्टंट मॅजिस्ट्रेट बहुत ही चौकन्ने एवं सतर्क हो गये थे। किसी भी पल कुछ भी हो सकता है यह अनुमान उन्होंने कर लिया और उसके अनुसार हालात पर नज़र रखने के लिए सेना की एक टुकड़ी को तैयार रख दिया। मग़र तब तक सैनिक अंग्रेज़ों के खिलाफ हथियार उठा भी चुके थे। २३ मई को इटावा में सैनिकों ने जेल के दरवाज़े खोल दिये, खज़ाने पर कब्ज़ा कर लिया और अंग्रेज़ों को भारत की सरज़मीन पर से चले जाने का इशारा भी दे दिया।

अलीगढ़, मिनपुर और इटावा में अब भारतीयों का शासन प्रस्थापित हो चुका था। मई के अन्त में घटित हो रहे इस घटनाक्रम से क्रान्तिवीरों की रगों में स्फूर्ति दौड़ने लगी।

इसी दौरान नासिराबाद भी भारतीयों के कब्ज़े में आ जाने की खबर आ गयी। दिन था २८ मई का। अजमेर से चंद कुछ ही दूरी पर रहनेवाले नासिराबाद में अंग्रेज़ों ने ही मेरठ से सैनिकों की एक टुकड़ी लाकर रख दी थी। मेरठ के इन सैनिकों ने वहाँ के सैनिकों के मन की मातृभूमिभक्ति की ज्वाला भड़काना शुरू कर ही दिया था। इससे अपेक्षित परिणाम हुआ ही था।

यहाँ की ब्रिटिश सेनाने हालाँकि प्रतिकार तो किया, लेकिन वह दुर्बल साबित हुआ। यहाँ का खज़ाना और शस्त्र-अस्त्रों सहित यह शहर भी अब दास्यमुक्त हो गया था।

तो फिर ३१ मई १८५७ को क्या हुआ? अब गंगा का जल भी तपने लगा था और उसके तीर पर कई जगह गतिविधियों ने ज़ोर पकड़ लिया था।

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