क्रान्तिगाथा-१०

दिल्ली दर असल कब की अँग्रेज़ों के कब्ज़े में जा चुकी थी, साल था १८०३। सन १७८५ से दिल्ली के बादशाह को मराठों की सुरक्षा मिल रही थी। उत्तरी भारत में शासन करनेवाले शिंदे दिल्ली की सुरक्षा करने में सक्रिय थे। लेकिन दुर्भाग्यवश १८०३ में मराठा-अँग्रेज़ों के बीच जो युद्ध हुआ, उस युद्ध के बाद अँग्रेज़ों ने दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया। उसके बाद अँग्रेज़ों ने मुग़ल बादशाह की राजगद्दी उनसे छीनी तो नहीं थी, लेकिन बादशाह की सत्ता को लाल क़िले की चहारदीवारी और उसके भीतर रहनेवाले बादशाह के परिजनों तक सीमित कर दिया था। बाक़ी की दिल्ली और उसके आसपास के इला़के पर ब्रिटिश रेसिडंट का हुक़्म चल रहा था।

स़िर्फ लाल क़िले के भीतर ही मुग़ल साम्राज्य अस्तित्व में था और अँग्रेज़ भी इस साम्राज्य में दखलअंदाज़ी नहीं करते थे। राजदरबार के सभी नियमों का पालन अँग्रेज़ करते थे। यहाँ तक कि बादशाह से मिलने के लिए भी स़िर्फ अँग्रेज़ वरिष्ठ अफसर ही जाते थे और वह भी पूर्व अनुमति लेकर ही। केवल ये ही वरिष्ठ अफसर लाल क़िले के दीवान-ए-खास में जाते थे। अन्य अँग्रेज़ दीवान-ए-आम से ही कुछ दूरी पर खड़े रहते थे। सारांश, लाल क़िले का मुग़ल साम्राज्य वैसे तो महफूज़ था, लेकिन दिल्ली की प्रजा पर अँग्रेज़ ज़ुल्म ढा रहे थे।

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इन हालातों में अकबरशाह-२ ने सन १८०६ में राजगद्दी सँभाली। खैर, उन्हें नामधारी राजा बनाकर राज तो अँग्रेज़ ही कर रहे थे। सन १८३७ तक उन्होंने राजगद्दी सँभाली। अक्तूबर १८३७ में उनकी मृत्यु हो जाने के बाद उनके बेटे बहादुरशाह जफर दिल्ली की राजगद्दी पर बैठ गये। बहादुरशाह जफर जब दिल्ली की राजगद्दी पर विराजमान हुए, तब उनकी उम्र थी ६० से भी अधिक।

तब तक बहादुरशाह जफर यह नाम साहित्य के क्षेत्र में काफी मशहूर हो चुका था। ये आखिरी मुग़ल बादशाह स्वयं एक अच्छे कवि थे। उन्होंने कई ‘गज़लें’ लिखी थीं। मुग़ल साम्राज्य के बादशाह के रूप में मशहूर होने से पहले ही वे एक कवि के रूप में विख्यात हो चुके थे। वह समय ही कुछ ऐसा था, जब उत्तरी भारत के साहित्यविश्‍व में कई घटनाएँ घटित हो रहीं थीं। कई नयें-पुरानें कवियों तथा लेखकों ने अपनी प्रतिभा से साहित्यविश्‍व को समृद्ध किया था। खास कर दिल्ली में अनेकों कवियों की प्रतिभा ऊँची उड़ान भर रही थी। दिल्ली के इस आखिरी मुग़ल सम्राट के साथी थे, कई मशहूर कवि और लेखक।

ऐसे इन कविमन के बादशाह ने जब राजगद्दी सँभाली, उसके बाद भी उनकी काव्यप्रतिभा खिल ही रही थी। इन बादशाह की साहित्य कृतियों में से जो प्राप्त हुईं, उन्हें आगे चलकर पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया।

तो ऐसे इन बादशाह के हाथों में मेरठ और दिल्ली के सैनिकों ने इस स्वतन्त्रता संग्राम के सूत्र दे दिये थे। क़िले के भीतर-बाहर के अँग्रेज़ों का खात्मा करके आखिर इन स्वतन्त्रतायोद्धाओं ने दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया।

बचेकुचे अँग्रेज़ अपने परिवार के साथ दिल्ली की उत्तरी दिशा में स्थित फ्लॅग स्टाफ टॉवर में एकत्रित हो गये। फ्लॅग स्टाफ टॉवर यह एक कमरेवाला सिग्नल टॉवर था, जिसका निर्माण ब्रिटिश इंडियन आर्मी ने किया था और उसपर अँग्रेज़ों का अधिकार था। दिल्ली शहर में घमासान शुरू हो जाते ही कई अँग्रेज़ोंने अपने परिवार के साथ यहाँ पर पनाह ले ली थी। अब अँग्रेज़ अफसरों को इस बात का एहसास हो चुका था कि कल तक उनका हुक़्म माननेवाले भारतीय सैनिक अब उनकी एक भी सुनने वाले नहीं थे। अब अपनी जान बचाने के लिए क्या किया जाये इस बारे में अँग्रेज़ सोच रहे थे और इरादा पक्का होते ही वे दिल्ली से दूर जाने के लिए निकल पड़े।

क्योंकि अब सारी दिल्ली पर भारतीय सैनिकों ने कब्ज़ा कर लिया था और इसीलिए बचेकुचे अँग्रेज़ों के पास दिल्ली छोड़कर अन्य जगह जाने के अलावा और कोई चारा ही नहीं था। दिल्ली छोड़ने का फैसला करके फ्लॅग स्टाफ टॉवर में एकत्रित हुए अँग्रेज़ दिल्ली से निकलकर दूसरे दिन ‘कर्नाल’ जा पहुँचे।

कुछ इतिहासकारों की राय में, दिल्ली और मेरठ की घटना ही नहीं, बल्कि १८५७ का स्वतन्त्रतासंग्राम यह सोचविचार के साथ की हुई एक कृति थी, वहीं कुछ की राय में यह स्वतन्त्रतासंग्राम सैनिकों की उत्स्फूर्त प्रतिक्रिया में से घटित हुई कृति थी या उनमें उत्पन्न हुए जोश के कारण घटित हुई कृति थी। दर असल इतिहास कौन लिखता है इसपर वह कैसा लिखा जाता है यह निर्भर करता है।

अब दिल्ली में भारतीयों का अपना शासन शुरू हो गया और यह बात देखते ही देखते दिल्ली के बाहर सब जगह फैल गयी। दिल्ली के आसपास के इलाक़ों के निवासियों के मन में भी अब कुछ करने की आस जाग उठी। दिल्ली के पास के आग्रा में अब अँग्रेज़ सतर्क हो गये। यहाँ के अँग्रेज़ कमांडर ने कुछ सैनिकी टुकड़ियों के सैनिकों से शस्त्र-अस्त्र निकाल लिए।

अब मई का महीना समाप्त हो रहा था। अँग्रेज़मुक्त दिल्ली में दैनिक कामकाज़ चल रहा था। लेकिन वहाँ अँग्रेज़ भी हात पर हात धरे बैठे नहीं थे। वे दिल्ली पर पुन: कब्ज़ा करने की कोशिश करने में जुट गये थे। दिल्ली को अब भी बहुत कुछ देखना था।

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