कन्याकुमारी भाग -२

भारत के दक्षिणी छोर पर बसी हुई कन्याकुमारी यह नगरी तमिलनाडु के ‘नागरकोईल’ इस शहर से लगभग २२ कि.मी. की दूरी पर है, वहीं केरल की राजधानी ‘तिरुवनंतपुरम्’ से लगभग ८५ कि.मी. की दूरी पर है। यह बताने का उद्देश्य यही है कि नागरकोईल और तिरुवनंतपुरम् के समीप होने के कारण कन्याकुमारी के सागरी तट पर खड़े रहने पर दिखायी देनेवाली दो बातें हर एक मनुष्य के मन में कुतूहल जागृत करती हैं। इनमें से पहली बात है, कन्याकुमारी के समुद्र में एक बहुत बड़ी चट्टान या शिला पर बनाया गया ‘स्वामी विवेकानंदजी का स्मारक’ और दूसरी बात है, तमिल संतकवि ‘तिरुवल्लूवरजी’ का भव्य पुतला। यह पुतला भी समुद्र में एक बहुत बड़ी चट्टान पर बनाया गया है। दर असल ये दो चट्टानें समुद्र में एकदूसरे से का़फ़ी दूर हैं; लेकिन उनपर बनाये गये स्मारक इतने विशाल हैं कि उन्हें कन्याकुमारी के समुद्री तट से भी देखा जा सकता है।

‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ इस तत्त्व को अपनानेवाले हमारी भारतभूमि के संतों के लिए प्रान्त, भाषा, रीतिरिवाज़, संस्कृति आदि बातें अवरोध कभी नहीं बनीं। इसीलिए भारतभूमि के संतों ने आसेतुहिमाचल प्रवास करके वहाँ के साधारण मनुष्य का कल्याण ही किया है। फ़िर आधुनिक युग के स्वामी विवेकानंदजी जैसे संत एवं श्रेष्ठ विचारवंत इसके लिए अपवाद भला कैसे हो सकते हैं?
कोलकाता में जिनका जन्म हुआ, वे स्वामी विवेकानंदजी भारत के दक्षिणी छोर तक भला कैसे पहुँच गये, इस बारे में अब थोड़ीबहुत जानकारी प्राप्त करते हैं।

अत्यंत बुद्धिमान, अमोघ वक्ता तथा तेजस्वी व्यक्तित्त्व के विवेकानंदजी ने ‘उस’ अन्तिम सत्य की खोज करना शुरू किया। इसी दौरान उनकी मुलाक़ात हुई, स्वामी रामकृष्ण परमहंसजी से। इस मुलाक़ात से विवेकानंदजी के जीवन में आमूलाग्र परिवर्तन हो गया और जिस अन्तिम सत्य की खोज वे कर रहे थे, उसका साक्षात्कार उन्हें होने लगा। आध्यात्मिक साधना के साथ साथ राष्ट्र उत्थान का महत्त्वपूर्ण कार्य भी विवेकनंदजी आगे चलकर करनेवाले हैं, इसका एहसास रामकृष्ण परमहंसजी को था ही। अध्यात्म के प्रसार के साथ साथ विवेकानंदजी उनके ज्ञान तथा सामर्थ्य का उपयोग करोड़ों देशबांधवों के कल्याण के लिए करें, यही रामकृष्ण परमहंसजी की इच्छा थी।

रामकृष्ण परमहंसजी के देहत्याग करने के बाद उनके शिष्यो को उनकी कमी महसूस होने लगी। लेकिन रामकृष्ण परमहंसजी के आदर्श एवं तत्त्वों का प्रचार-प्रसार करने के उद्देश्य से उन सब ने साथ मिलकर काम करना शुरू कर दिया और उन सब में अग्रसर थे, स्वामी विवेकानंदजी।

प्रारंभिक समय में एकसाथ काम करने के बाद उन सभी ने अलग अलग दिशा में जाकर अपना कार्य करना तय किया और इस कार्य के लिए आसेतुहिमाचल पदयात्रा करने का फ़ैसला किया।

भारतभूमि की इस पदयात्रा में स्वामी विवेकानंदजी ने अपने देशबांधवों की दीनता, दुख, ग़ुलामी, अज्ञान आदि देश तथा देशबांधवों को दुर्बल बनानेवाली बातें देखी और इन सब में से अपने देशबांधवों को और परोक्ष रूप से देश को मुक्त कर देश एवं समाज को समर्थ बनाने के व्रत का स्वीकार किया।

पंजाब, गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र इस तरह प्रवास करके स्वामी विवेकानंदजी कर्नाटक में से उस समय के मद्रास राज्य में यानि कि आज के तमिलनाडु में पहुँच गये और अन्त में भारत के दक्षिणी छोर तक यानि कि कन्याकुमारी तक पहुँच गये।

कन्याकुमारी जाने के बाद वहाँ के समुद्र में स्थित एक बहुत बड़ी चट्टान तक स्वामीजी एक दिन तैरते तैरते पहुँच गये और वहीं पर बैठकर ध्यान करने लगे।

कन्याकुमारी के समुद्र में स्थित यह चट्टान ‘श्रीपद’ इस नाम से जानी जाती है और वह एक अत्यन्त पवित्र स्थल माना जाता है।

इसी ‘श्रीपद’ नाम की शिला पर बैठकर स्वामी विवेकानंदजी ध्यान करते थे। इस ध्यानावस्था में ही उन्हें राष्ट्रोत्थान कार्य की प्रेरणा मिली।
हमारे देशबांधवों की और देश की दुर्बलता को दूर करके उन्हें सामर्थ्यवान बनाने के कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित करने का निर्धार उन्होंने किया और अपना कार्य भी शुरू कर दिया। इसी कार्य के एक पड़ाव के रूप में अमरीका के शिकागो शहर की सर्वधर्मपरिषद में हिस्सा लेकर अपनी मातृभूमि का प्रतिनिधित्व किया। इसी परिषद में किये हुए उनके भाषण ने इतिहास रचा, जिस भाषण की शुरुआत उन्होंने की थी, ‘मेरे अमरीकावासी भाइयों और बहनों।’

कन्याकुमारी जाने के बाद

हम श्रीपाद नाम की शिला की बात कर रहे थे, जिसपर आज स्वामी विवेकानंदजी का स्मारक बना है। स्वामी विवेकानंदजी का यह स्मारक ‘विवेकानंद रॉक’ इस नाम से भी जाना जाता है।

स्वामी विवेकानंदजी के इस भव्य स्मारक के दर्शन सभी कर सकते हैं। वहाँ तक पहुँचने के लिए नौकाओं की व्यवस्था की गयी है।

यह श्रीपाद नामक शिला कितनी विशाल है, उसका अंदाज़ा हमें आ सकता है, जब इस स्मारक के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे। मगर फिर भी इसकी विशालता को बयान करनेवाली एक बात यहाँ पर बताना ज़रूरी प्रतीत हो रहा है।

कुछ वर्ष पूर्व २६ डिसेंबर २००४ को भारत के दक्षिणी किनारे पर त्सुनामी लहरों ने आक्रमण किया था। एक क्षण में आ चुकी इस आपत्ति में, समुद्र में कईं मंज़िला ऊँची लहरें उठी थीं, जिनके कारण जानमाल का का़फ़ी नुकसान हुआ था। त्सुनामी आपत्ति के समय इस रॉक पर कईं पर्यटक मौजूद थे, जिन्होंने त्सुनामी लहरों की भीषणता का अनुभव किया। उनमें से कइयों ने अपने कॅमेरे से इस आपत्ति का चित्रीकरण भी किया। हालाँकि त्सुनामी लहरों ने इस रॉक को स्पर्श तो अवश्य किया था, लेकिन इस रॉक की ऊँचाई के कारण यहाँ के पर्यटक बच गये।

तो ऐसा है यह ‘श्रीपद’ यानि कि ‘स्वामी विवेकानंदजी का शिलस्मारक’

यहाँ पर स्वामी विवेकानंदजी के जन्मशताब्दी महोत्सव के उपलक्ष्य में उनके स्मारक का निर्माण किया गया। इस स्मारक के तीन विभाग हैं।

१) विवेकानंद मंडप
२) ध्यान मंडप
३) श्रीपद मंडप

इनमें से विवेकानंद मंडप यह शिला पर सबसे अधिक ऊँचाई पर स्थित है। इस मंडप में स्वामी विवेकानंदजी का ब्राँझ से बना पूर्णाकृति पुतला है। इस मंडप के मुख मंडप, सभा मंडप और प्रतिमा मंडप इस तरह से उपविभाग किये गये हैं।

दूसरा मंडप है, ध्यान मंडप। यहाँ की दीवारों पर स्वामी विवेकानंदजी के जीवन के विभिन्न प्रसंगों को चित्रित किया गया है।

श्रीपद मंडप यह तीसरा मंडप है। इसका निर्माण मुख्य रूप से नीले स्फ़टिकमय पाषाणों द्वारा किया गया है। श्रीपद मंडप में गर्भगृह है और उसकी रचना शिल्पशास्त्र के प्रमाणलक्षणों के अनुसार की गयी है । यह रचना चोळ शिल्पशैली की रचना है।

विवेकानंद मंडप का शिखर लाल स्फ़टिक पाषाणों से बनाया गया है, वहीं प्रतिमा मंडप पर अखंड पाषाण के चार स्तंभ रचे गये हैं और उनपर शिखर बनाया गया है।

इस संपूर्ण वास्तु में सुन्दर शिल्पकाम किया गया है और यहाँ के सभी शिखर ‘बेलूर’ स्थित रामकृष्ण परमहंसजी के मठ के शिखरों जैसे ही हैं।

यहाँ पर आनेवाले यात्री यदि ध्यानधारणा करना चाहते हैं, तो यहाँ के ध्यानमंडप के ‘प्रणवपीठ’ नामक स्थान पर सदैव प्रकाशित रहनेवाला ‘ॐ’ विराजमान है।

एक और बात यहाँ पर कहना महत्त्वपूर्ण है। ऐसा कहा जाता है कि समुद्री तट पर जो कुमारी देवी का मंदिर है, उस मंदिर की कुमारी देवी की मूर्ति की नाक में जो नथुनी (रिंग) है, उसमें स्थित चमकनेवालें हिरों को समुद्र में से भी देखा जा सकता है।

देवी के इस मंदिर की उत्तरी दिशा के अग्रहार में भद्रकालीजी का मंदिर है। इन भद्रकालीजी को देवी कुमारी की सखी माना जाता है।

कन्याकुमारी तीर्थ का महत्व महाभारत में भी विशद किया गया है। उसके अनुसार समुद्री तट पर स्थित कन्या तीर्थ के जल के स्पर्श से मनुष्य पाप में से मुक्त हो जाता है।

तो ऐसा है यह कन्याकुमारी तीर्थ! किसीको पापों से मुक्त करानेवाला, वहीं किसीकी अंत:प्रेरणा को जगाकर कार्य करने के लिए समर्थ बनानेवाला।

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