कांगड़ा भाग-१

अप्रैल-मई में प्राय: हम सब कुछ दिन आराम करने के लिए कहीं बाहरगाँव जाने की योजना बनाते हैं, तो कुछ लोग अपने गाँव जाते हैं। संक्षेप में, मई की छुट्टियाँ और मनचाहा सफ़र इनका अटूट रिश्ता प्राय: हमारे मन में रहता ही है।

हमारे भारत में तो इतनी भौगोलिक विविधता है कि उत्तर दिशा में हिमालय, दक्षिण में अथाह नीला सागर, कहीं रुखें मरुस्थल, तो कहीं घने जंगल; और इसीलिए भारत में सफ़र करना चाहनेवालों के लिए कई विकल्प (ऑप्शन्स) उपलब्ध रहते हैं। अब मुंबई जैसे शहर के निवासी जब मई में कही जाने की सोचते हैं, तब स्वाभाविक रूप से उनके मन में इन गरमियों में किसी हिल स्टेशन जाने का विचार ही आता है। चलिए, तो हम भी हिमालय की ओर रुख करते हैं, वहाँ की ठंडक को अनुभव करने के लिए।

हिमाचल प्रदेश! जिसके नाम में ही हिम यानि बर्फ़ है, ऐसा प्रदेश। ‘हिमाचल प्रदेश’ का नाम लेते ही हमारे मानसपटल पर चित्र अंकित होता है – पहाड़ों की बर्फ़ीली चोटियाँ, हरी-भरी वादियाँ, खलखल करते हुए बहनेवालीं कई छोटी-बड़ी नदियाँ, जलधाराएँ, बेहद ख़ूबसूरत घाटियाँ और जी हाँ, इन सबके साथ हमेशा ही मेहमानों का मुस्कराकर स्वागत करनेवाले यहाँ के निवासी भी।

हिमालय प्रदेश को कुदरत का कुछ ऐसा वरदान प्राप्त हुआ है, जिससे कि यहाँ के सफ़र में हर मोड़ पर कॅमेरा ‘क्लिक्’ करने का मन करता है।
कांगड़ा, जिसे आम तौर पर ‘कांगड़ा व्हॅली’ कहा जाता है, वह हिमाचल की सुन्दरता की एक मिसाल है। यह कांगड़ा किसी मेट्रो सिटी जैसा बड़ा शहर नहीं है; बल्कि सुन्दर, शान्त, सुकूनदेह रहनेवाला एक बड़ा सा गाँव या नगर है। दर असल ‘कांगड़ा’ यह जिस तरह एक गाँव का नाम है, उसी तरह कांगड़ा यह उस व्हॅली का नाम भी है और उस ज़िले का नाम भी।

पुराने समय में कांगड़ा को ‘नागरकोट’ कहा जाता था। उसका नाम कांगड़ा कैसे, कब हुआ या किसने किया इसके बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं मिलती। यह बात पढ़ने में आती है कि जहाँ पर कान बनाये जाते थे, उस जगह को ‘कान-घड़ा’ इस नाम से पुकारा जाने लगा, जो आगे चलकर कांगड़ा हो गया। लेकिन इस जानकारी से इस नामकरण के बारे में कोई विशेष खुलासा नहीं होता। वहीं, इस बात का समर्थन करनेवालों की राय में इस बात का संबंध शायद किसी लोककथा के साथ रह सकता है।

संक्षेप में, इस जगह का नाम ‘नागरकोट’ या ‘कांगड़ा’ कैसे हुआ, यह पहेली नहीं सुलझती।

‘कांगड़ा’ को पुराने ज़माने में ‘भीमनगर’ कहा जाता था, ऐसी जानकारी भी मिलती है। पाँच पांडवों में से एक रहनेवाले भीम द्वारा इस नगरी का निर्माण किया गया और इसीलिए इसका नाम ‘भीमनगर’ हुआ, ऐसा भी माना जाता है।

इस तरह के विभिन्न नाम धारण करनेवाला यह नगर आज कल ‘कांगड़ा’ इस नाम से जाना जाता है।

यह कांगड़ा नगर, पुराने समय में उसके वैभव के लिए मशहूर था। यहाँ के विशाल मन्दिर और यहाँ का क़िला ये काफ़ी मशहूर थे। लेकिन इसके साथ साथ इस नगर को कई मुसीबतें भी झेलनी पड़ी, ऐसा इतिहास कहता है ।

इस नगर में काफ़ी धन-दौलत है, इस बात की जानकारी मिलते ही विदेशी दुश्मनों ने इस नगर पर कई बार हमला किया है। यहाँ का प्राचीन क़िला भी कई कारणों से आकर्षण का विषय बना था और इसीलिए इस क़िले पर कब्ज़ा करने के लिए भी दुश्मनों ने इस नगर पर कई बार धावा बोला है। कई बार दुश्मनों द्वारा इस क़िले को हथियाने की कोशिशें की गयी, यह जानकारी भी इतिहास से प्राप्त होती है। दुश्मनों द्वारा कई बार इस नगरी को लूटे जाने की बातें भी इतिहास में दर्ज़ की गयी हैं।

कांगड़ा नगर की ‘देवी वजे्रश्‍वरी’ के मन्दिर को उत्तरी भारत का सबसे प्राचीन एवं वैभवशाली पूजास्थल माना जाता था।

कांगड़ा की समुद्री सतह से ऊँचाई है, लगभग २४०० फीट। इस नगर की स्थापना ‘माझी’ और ‘बेनेर’ इन दो नदियों के संगम पर हुई है। ‘बियास’ यह इस प्रदेश की एक महत्त्वपूर्ण नदी मानी जाती है।

इस प्रदेश में से बहनेवाली नदियों और दूर दूर तक फैले हुए पहाड़ों के कारण हिमाचल में कई जगह घाटियों का निर्माण हुआ है। ‘कांगड़ा व्हॅली’ यह उसीका एक उदाहरण है। यहाँ की नदियों में साल भर भरपूर जल बहता रहा है, क्योंकि अधिकतर नदियों के जल का प्रमुख स्रोत है, हिमालय की बर्फ़ीली चोटियों पर स्थित बर्फ़। साल भर विपुल जल से भरी रहनेवाली नदियाँ, दूर दूर तक फ़ैली हुई पहाड़ियाँ और ऊपर चारों तरफ दिखायी देनेवाला नीला आसमान, यह नज़ारा देखनेवाले के मन को मोह लेता है और जैसा कि मैं पहले ही कह चुकी हूँ, यहाँ के सफ़र में हर मोड़ पर आपको कॅमेरा ‘क्लिक्’ करने की इच्छा होती ही है।

जल की विपुलता के कारण घास से लेकर विशाल पेडों तक सभी प्रकारकी वनस्पतियाँ यहाँ पर हैं। साथ ही पहाड़ी इलाक़ा होने के कारण पाइन, फर इन जैसे विभिन्न वृक्ष भी यहाँ पर हैं।

गत कई दशकों तक हिमाचल प्रदेश के कई ज़िलें आधुनिकता की लहर की चपेट में नहीं आये थे। लेकिन गत कुछ वर्षों में आधुनिकीकरण (मॉडर्नायज़ेशन) की जड़ें मज़बूत होती जा रही हैं। मग़र तब भी कुदरती सुन्दरता के चाहनेवालों को यहाँ की वादियाँ आज भी बुलाती हैं और यहाँ की असीम शांति, तन-मन को उल्लसित करनेवालें हवा के झौंकें, खलखल करते हुए बहता शीतल जल यह सब सैलानियों को सुकून देता है।

यहाँ का जीवन, वैसे देखा जाये तो बड़ा ही शान्त है और शहरों की तुलना में काफ़ी धीमा भी है। लेकिन इस जीवन की भी अपनी एक लय है। यहाँ के भोले भालें, मेहनती लोगों के जीवन में छोटे बड़े गाँवों में लगनेवाले मेलें, मन्दिरों में मनाये जानेवाले उत्सव और शोभायात्राएँ ये सभी बातें रंग भर देती हैं।

हम जिस कांगड़ा में दाखिल हो चुके हैं, वह भी कुछ ऐसा ही एक शान्त नगर है। हमें असीम शान्ति का एहसास दिलानेवाला, रोजमर्रा की भागदौड़ से और मुख्य रूप से घड़ी के काँटों पर दौड़ रही ज़िंदगी से कुछ पल की राहत देनेवाला और नस नस में नयी ऊर्जा भर देनेवाला।

कांगड़ा से कुछ ही दूर पर है – ‘धरमशाला’। आपमें से कई लोगों ने इसका नाम अवश्य सुना होगा। लेकिन ‘धरमशाला’ जाने के बाद ही उसके बारे में विस्तार से बात करेंगे। फिलहाल तो बात करेंगे, सिर्फ़ ‘कांगड़ा’ की ही।

कांगड़ा की भूमि पर काफ़ी प्राचीन समय से आबादी के बसने के सबूत मिलते हैं।

कुछ लोगों की राय में कांगड़ा व्हॅली का अस्तित्व वेदकाल से हैं। इतिहासकार एवं अध्ययनकर्ताओं का मानना है कि आज का कांगड़ा पुराने समय में ‘त्रिगर्त’ नाम के राज्य का एक हिस्सा था। इस ‘त्रिगर्त’ नाम के देश का उल्लेख महाभारत में मिलता है।

सतलज, रावी और बियास की घाटी में बसे हुए इस प्रदेश को ‘त्रिगर्त’ कहा जाता था और यहाँ के निवासी भी इसी नाम से पहचाने जाते थे। त्रिगर्त की राजधानी के रूप में ‘जालंदर’ का नाम लिया जाता है। वहीं अन्य एक राय के अनुसार त्रिगर्त के एक इलाके की राजधानी जालंदर थी और दूसरे इलाके की राजधानी थी – ‘नागरकोट’ यानि आज का ‘कांगड़ा’।

त्रिगर्त के राजा महाभारत युद्ध में कौरवों के पक्ष में थे, ऐसा उल्लेख मिलता है। संक्षेप में, महाभारत के समय में भी इस भूमि पर आबादी बसा करती थी, यही इससे ज्ञात होता है।

इतिहास कहता है कि इस पहाड़ी इलाके में प्राचीन समय में कई छोटे बड़े राज्य थे। उन प्रदेशों के शासक और राजा भी हुआ करते थे। उनमें से ही एक था – ‘कटोच’ राजवंश और यह कटोच राजवंश ही उस समय कांगड़ा पर राज कर रहा था।

इस लेख में जैसा कि पहले ही ज़िक्र किया है, कांगड़ा की बेशुमार धनदौलत और यहाँ के शानदार क़िले की ख्याति दूर दूर तक फैली हुई थी। अभी अभी तो ग्यारहवीं सदी की शुरुआत ही हुई थी कि हुकूमत और दौलत की हवस मन में लेकर गज़नी का महमूद भारत पर आक्रमण करने आ रहा था। मैदानी पंजाब इला़के पर कब्ज़ा करने के बाद उसने कूच किया, ‘नागरकोट’ यानि ‘कांगड़ा’ की ओर। यहाँ की धनदौलत और क़िले के बारे में उसने पहले ही सुना था और यहाँ आने के बाद उसने खुद वह सब कुछ अपनी आँखों से देखा। उसने राजा पर आक्रमण कर दिया। उस समय यहाँ के राजा की सेना अन्य जगह युद्ध कर रही थी और इसी वजह से फौजी ताकत की दृष्टि से उस समय कमज़ोर रहनेवाले राजा को जीतना गज़नी के महमूद के लिए आसान था। यहाँ की बेशुमार धनदौलत, सोना, चाँदी आदि तथा क़िले एवं मन्दिरों की संपत्ति को लूटकर और ऊँटों की पीठ पर वह सब लादकर महमूद उसे अपने देश ले गया।

इसके बाद भी कांगड़ा को कई परचक्रों का सामना करना पड़ा। लेकिन इसके बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे, थोड़ासा विश्राम करने के बाद।

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