९३. ज़मीन और ख़ेती

डेव्हिड बेन-गुरियन के बारे में एक क़िस्सा बताया जाता है। एरिएह शेरॉन की टीम ने बनाये मास्टर प्लॅन के अनुसार पूरे इस्रायल भर में डेव्हलपमेंट टाऊन्स का निर्माण होने जा रहा था, वैसा वह नेगेव्ह के रेगिस्तान में भी करने की योजना बनायी जा रही थी। इस्रायल के कुल क्षेत्रङ्गल के आधे से भी अधिक भाग में नेगेव्ह का रेगिस्तान ही फैला है। अतः वहाँ पर भी बस्तियाँ बनाने के अलावा इस्रायल के लिए और कोई चारा ही नहीं था। तो वहाँ की बस्तियों की योजना की प्रगति जानने के लिए बेन-गुरियन नेगेव्ह के रेगिस्तान के दौरे पर आये थे। वहाँ के विशेषज्ञ अधिकारी उन्हें योजना के बारे में जानकारी दे रहे थे। लेकिन उस समय तो अधिकांश योजना अभी तक अमूर्त अवस्था में ही थी। वास्तव में जहाँ देखें वहाँ ग़र्म, सूखा रेगिस्तान ही था। बात करते करते अचानक बेन-गुरियन ने एक दिशा में हाथ उठाकर उत्कटतापूर्वक कहा, ‘मेरी संकल्पना में यहाँ भी सर्वत्र हरियाली खिलेगी। इस ओर सर्वत्र फलों के बागान होंगे’; वहीं, दूसरी एक दिशा में हाथ उठाकर उन्होंने कहा, ‘और इस ओर सभी जगह सब्ज़ी-तरकारी की ख़ेती।’

नेगेव्ह की रेगिस्तान में डेव्हलपमेंट टाऊन्स योजना की प्रगति की जानकारी लेने के लिए आये हुए इस्रायली प्रधानमंत्री डेव्हिड बेन-गुरियन

योजना की जानकारी देनेवाले विशेषज्ञ यह सुनकर बेचैन हो गये और उन्होंने विनम्रता के साथ बेन-गुरियन से कहा कि ‘सर, यह रेगिस्तानी प्रदेश है। यहाँ ऐसा कुछ संभव नहीं होगा।’ बेन-गुरियन ने ग़ुस्सा होकर उस अधिकारी का तबादला कर दिया कि ‘सूचना पर कुछ भी ग़ौर न करते हुए सीधे, ‘संभव नहीं होगा’ ऐसा वह बोल ही कैसे सकता है? फिर उसे विशेषज्ञ क्यों कहा जाये! आयी हुई किसी भी सूचना को ख़ारिज़ न कर देते हुए, उस सूचना पर दक़ियानुसी सोच से परे जाकर विचार करना और उस सूचना को प्रत्यक्ष में ले आने के प्रयास करना विशेषज्ञ से अभिप्रेत है।’

अब किसीको बेन-गुरियन का यह बर्ताव एककल्ली….हाथ में अनिर्बंध सत्ता होनेवाले, ‘ना’ सुनने की आदत न होनेवाले किसी एकाधिकारशहा का बर्ताव प्रतीत हो सकता है; लेकिन आज वाक़ई नेगेव्ह के रेगिस्तान में बड़ी संख्या में फलों के बागान भी हैं और सब्ज़ी-तरकारी भी उगती है!

इतना ही नहीं, बल्कि ऐसी हालत में उस समय होनेवाला इस्रायल यह आज कृषिप्रधान देश माना जाता है और कई कृषिउत्पादनों की निर्यात भी करता है। यह बात सुनकर शायद अचरज होगा, लेकिन यह सच है।

कैसे मुमक़िन हुआ यह?

कृषिसंशोधन के कारण अब इस्रायल में अधिकांश प्रकार के कृषिउत्पादन ऊगते हैं।

इसे महज़ ‘चमत्कार’ कहकर छोड़ देना, यह फिर इस्रायली लोगों के विलक्षण वज्रनिश्चरय का, लगन का, संशोधनपूर्ण वृत्ति का, कितनी भी प्रतिकूल परिस्थिति में हार न मानने की वृत्ति का अपमान साबित होगा।

इसलिए, आज इस्रायल का हो चुका यह कायापालट दुनिया को भले ही ‘चमत्कार’ प्रतीत हो रहा हो, लेकिन उसके पीछे इस्रायली लोगों के उपरउल्लेखित गुणधर्म हैं, इसे भूलना नहीं चाहिए। ‘हमें इस्रायल के अलावा और कोई आसरा नहीं है और इस कारण हमें इस्रायल का कायापालट करना ही पड़ेगा’ इस दृढ़निश्च य के साथ जब विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ और आम इस्रायली जनता एकत्रित हुई और ‘यह करना ही है, कैसे करना है वह बाद में ढूँढ़ेंगे ही’ इस निग्रह के साथ काम में लग गयी, उसीका अंजाम यानी इस्रायल का – ‘अविकसित राष्ट्र से विकसित राष्ट्र’ तक का प्रवास!

इसपर ग़ौर किया, तो फिर बेन-गुरियन इस – इस्रायल का कायापालट करने के विचार से प्रेरित हुए दूरंदेशी नेता के उपरोक्त आचरण में मेल दिखायी देता है।

लेकिन उस समय की इस्रायल की भौगोलिक परिस्थिति को मद्देनज़र करते हुए, इस्रायल में सर्वत्र खेती संभव है या नहीं, इस बात को लेकर मन में सन्देह ही निर्माण होना स्वाभाविक था।

क्योंकि खेती के लिए आवश्यक प्राकृतिक घटक यानी ज़मीन का ऊपजाऊपन, पानी, हवा, सूर्यप्रकाश। इनमें से कई बातें उस समय इस्रायल में प्रतिकूल थीं, अब भी हैं। सादा ज़मीन का उदाहरण भी यदि ले लें, तो आकार से इतने छोटे रहनेवाले देश में – बर्ङ्गाच्छादित शिखर होनेवाले पर्वत, पर्वत के ढ़लान पर की ज़मीन, दलदली ज़मीन, शुष्क ज़मीन, पथरीली ज़मीन, समुद्रकिनारे से सटी खारी ज़मीन, रेगिस्तानी ज़मीन इतने विसंगत प्रकारों की ज़मीन देखने को मिलती है, जिसमें से बहुत ही थोड़ी ज़मीन (अँदाज़न् २०%) प्राकृतिक तौर पर खेती करने लायक थी। बाक़ी अधिकांश ज़मीन बंजर, बरसों से पेड़-पौधे बिलकुल न रहने के कारण घिस चुकी, अनुपजाऊ थी।

लेकिन उससे हार न मानते हुए इस्रायली लोगों ने कमर कस ली। ‘सरकार ही सबकुछ करेगी’ ऐसा सोचकर हाथ पर हाथ धरे न बैठते हुए आम लोगों ने ही हज़ारों की तादाद में सरकारी कार्यक्रमों में श्रमदान करने की शुरुआत की। जहाँ पथरीली ज़मीन थी, वहाँ उसे फोड़कर समतल बनाया, पत्थर-कंकर साफ़ किये; वहीं, दलदली ज़मीन में से पानी निकालकर, उसे ले जाकर शुष्क ज़मीनों में डालना शुरू किया। समुद्रकिनारे से सटीं खारीं (नमकीन) ज़मीनों पर की ऊपरी खारी परत पूरी तरह निकाल देकर, उसके नीचे की खेती के लायक परत को ऊपर लाने की शुरुआत की। पर्वत के ढ़लान पर की ज़मीन को बरसात का पानी अच्छाख़ासा मिलता था, लेकिन ढ़लान पर होने के कारण वह पानी बह जाता था और जाते समय वहाँ की ज़मीन को भी घिसा देता था। उसके लिए पर्वतढ़लान पर की खेतज़मीनों के लिए पायदान-पायदान रहनेवाले टेरेसीस् का निर्माण किया गया।

इन अथक परिश्रमों का फल दिखायी देने लगा और धीरे धीरे इस्रायल की अधिक से अधिक ज़मीन खेती करने के लिए तैयार होने लगी। कृषिजीवी बस्तियों की संख्या भी अब बढ़ने लगी। इन कृषिजीवी बस्तियों के निर्माण में ‘किब्बुत्झ’ एवं ‘मोशाव्ह’ इन्हीं दो ‘कम्युनिटी लिव्हिंग’ की संकल्पनाओं के कई तत्त्वों का इस्तेमाल किया गया था।

पर्वतढ़लान पर के खेती के लिए बनाये गये पायदान-पायदान वाले टेरेसेस्

उसीके साथ, खेतीलायक ज़मीन नहीं है इसलिए हिम्मत न हारते हुए, अब जो हैं उन विभिन्न प्रकार की ज़मीनों में कौनसी खेती कर सकते हैं, उसपर संशोधन शुरू हुआ।

इस भौगोलिक प्रतिकूलता के साथ साथ एक और अहम समस्या भी थी। बीसवीं सदी की शुरुआत से, विभिन्न ‘आलियाओं’ (आलिया=ज्यूधर्मियों का दुनिया के विभिन्न प्रदेशों से इस्रायल लौटना) के माध्यम से जो ज्यूधर्मीय पॅलेस्टाईन प्रांत में स्थलांतरित हुए थे, उन्होंने अन्य व्यवसायों के साथ ही अपने अपने हिसाब से खेती करने की भी शुरुआत की थी। लेकिन अब इस्रायल स्वतंत्र होने के बाद जो ज्यू स्थलांतरित भारी संख्या में इस्रायल लौटना शुरू हुआ था, उनमें से अधिकांश लोग युरोप में से आये थे। युरोप में इन ज्यूधर्मियों पर कई पीढ़ियों से, सदियों से वहाँ की राजसत्ताओं ने कई निर्बंध लगाये थे। उन्हींमें से एक यानी वहाँ के अधिकांश प्रदेशों में ये ज्यूधर्मीय किसी भी प्रकार की ज़मीन ख़रीद नहीं सकते थे। इस कारण कई पीढ़ियों पहले से ही, वहाँ के इन ज्यूधर्मियों का ‘ख़ेती’ यह व्यवहाय ही नहीं रहा था, बल्कि वे अकाऊंटंट, टीचर, वकील, विभिन्न प्रकार के कारोबार आदि ‘व्हाईट-कॉलर्ड’ व्यवसाय ही करते आये थे। ख़ेती का अनुभव किसे भी नहीं था।

लेकिन हर एक के पास थी, वह प्रचंड लगन और ‘अब हमारा जो कुछ होगा, वह इस्रायल में ही होगा’ यह निर्धार!(क्रमश:)

– शुलमिथ पेणकर-निगरेकर

 

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