जम्मू भाग-५

‘मन्दिरों का शहर’ इस नाम से जाने जानेवाले जम्मू शहर से हमारा परिचय तो हो ही चुका है। तो चलिए, फिर आज भी क्या इस शहर की यह पहचान क़ायम है या नहीं यह देखते हैं। पहले मुख्य जम्मू शहर की सैर पर निकलते हैं और उसके बाद आसपास के इला़के को भी देखते हैं।

जम्मू शहर के ‘रघुनाथ मन्दिर’ और बाहु क़िले में बसे मन्दिर के दर्शन तो हम कर ही चुके हैं।

जम्मू में एक शिवमन्दिर भी है, जो ‘रणबीरेश्‍वर मन्दिर’ इस नाम से जाना जाता है। रणबीरेश्‍वर इस नाम का संबंध प्रमुख देवता से नहीं, बल्कि इस मन्दिर के निर्माणकर्ता से है। जम्मू के डोगरा शासकों में से एक रहनेवाले ‘रणबीरसिंग’ नाम के राजाने इसका निर्माण किया। सन १८८३ में यह बनकर पूरा हो गया। यहाँ के गर्भगृह में साढेसात फीट की ऊँचाईवाला शिवलिंग है और साथ ही स्फटिक से बने अन्य बारह शिवलिंग भी हैं। स्फटिक के शिवलिंग १५ सेंटीमीटर्स से लेकर ४० सेंटीमीटर्स तक ऊँचे हैं। साथ ही कई छोटे छोटे शिवलिंग भी यहाँ पर हैं और उनकी संख्या इतनी है कि शायद उन्हें गिनते गिनते आप थक जायेंगे। इसी मन्दिर में गणेशजी और कार्तिकेयजी भी विराजमान हैं।

जम्मू शहर के जम्मू इस नाम के इतिहास की झलक देखते हुए हमने देखा कि एक आख्यायिका के अनुसार किसी समय जाम्बुवन्तजीने यहाँ पर तपस्या की थी। वह स्थल आज भी यहाँ है। पर्वत और पेड़ों की पार्श्‍वभूमि में दो गुफाएँ हैं और वहीं पर जाम्बुवन्तजी ने तपस्या की थी, ऐसा कहा जाता है। अब आप सोच रहे होंगे कि मन्दिरों के शहर के रूप में जम्मू की क्या पहचान है, यह देखने हम निकले हैं और यह गुफाओं की बात बीच में कहाँ से आ गयी? इन गुफाओं में भी एक शिवलिंग है और इसी वजह से इन्हें महज़ गुफाएँ नहीं बल्कि देवालय भी माना जाता है। इस जगह को ‘पीर खो मन्दिर’ कहा जाता है। यहाँ पर काले रंग का लगभग १२ फीट की ऊँचाईवाला एक शिवलिंग है और वह कुदरती रूप में बना है ऐसा भी माना जाता है।

जाम्बुवन्तजी की तपस्या का स्थान होने के की कथा के साथ साथ इस स्थान के बारे में यह भी कहा जाता है कि यहाँ के कुदरती रूप में बने हुए शिवलिंग की स्थानीय लोग पूजा करते थें और फिर आगे चलकर यह स्थल मशहूर हो गया।

आइए अब यहाँ से फिर लौटते हैं शहर के प्रमुख इला़के में। वहाँ के एक सबसे पुराने शिवालय के दर्शन करते हैं। आप को यह लग रहा होगा कि हमारा यह सफ़र तो भागदौड़ भरा है। लेकिन क्या करें, जम्मू और उसके आसपास के इला़के में इतने मन्दिर हैं कि उनके दर्शन करने हमें थोड़ी बहुत तेज़ी से सफ़र करना ही होग़ा।

अब हम जा रहे हैं, जम्मू के सबसे पुराने माने जानेवाले ‘पंचवक्त्र मन्दिर’ इस शिवालय की ओर। अन्य मन्दिरों की तरह इस मन्दिर के साथ भी कई कथाएँ एवं आख्यायिकाएँ जुड़ी हैं।

‘पंचवक्त्र’ इस शब्द का अर्थ हैं, पाँच मुख। यहाँ के शिवलिंग के पाँच मुख हैं, ऐसा माना जाता है। कुछ कथाओं एवं आख्यायिकाओं के अनुसार आदिशंकराचार्यजी के ज़माने में यह मन्दिर अस्तित्व में था, तो कुछ के अनुसार इसका निर्माण चौदहवीं सदी में किया गया।

यह पंचवक्त्र शिवलिंग ‘स्वयंभू’ माना जाता है। मालदेव नाम के राजा के शासनकाल में हुई एक घटना से इस छोटे से शिवालय का रूपान्तरण बड़े शिवालय में हुआ, ऐसा कहा जाता है। शिवालय की महिमा जम्मू इला़के में फैलती रही और इसी वजह से आगे चलकर जम्मू के शासकों का वह श्रद्धास्थल बन गया। जम्मू के कई शासकों ने इस मन्दिर की देखभाल करने की समुचित व्यवस्था भी की थी।

लेकिन ऐसी क्या घटना हुई, जिससे कि इस छोटे से शिवालय का रूपान्तरण बड़े शिवालय में हुआ?

तब जम्मू शहर तावीशी नदी के तट पर बसा हुआ एक समृद्ध शहर था। यहाँ पर एक राजा राज कर रहे थे और उनका राजमहल भी यहाँ था। लेकिन इस समृद्ध नगरी के चारों ओर घना जंगल था और इस शहर की शानोंशौकत के कारण दुश्मनों की टेढी नज़र हमेशा ही इसपर रहती थी। ये आक्रमक इस भूमिपर आक्रमण करके यहाँ की धनदौलत के साथ साथ यहाँ की प्रजा को भी ग़ुलाम बनाकर ले जाते थे।

इसी तरह के एक आक्रमण के दौरान दुश्मनद्वारा ग़ुलाम बनाकर ले जाये गये व्यक्ति के किसी अभिभावक ने जम्मू के राजा के पास फ़रियाद की। उस व़क़्त दुश्मन इस इला़के के पास में ही डेरा डाले हुए था। लेकिन राजा के पास दुश्मन के आक्रमण का मुँहतोड़ जबाब देने जितनी ताकत नहीं थी और राजा ने फ़रियादी को इस वास्तविकता से अवगत कराया।

इस घटना से राजा के सेनापतिजी गहरी सोच में डूब गये और चाहे जो भी हो जाये, लेकिन अग़वा किये गये प्रजाजनों को छुड़ाकर वापस ले आने की बात उन्होंने तय कर ली। सेनापतिजी शिवजी के निस्सीम भक्त थे और इस भक्ति के बल पर ही जितनी सेना उनके पास थी, उसे साथ में लेकर उन्होंने दुश्मन पर हमला करने का निश्‍चय कर लिया और उस अभिभावक को भी आश्‍वस्त कर दिया।

अपनी योजना के अनुसार सेनापतिजी ने रात में दुश्मन पर हमला करके अग़वा किये गये नागरिकों को तो रिहा कर ही दिया और साथ ही शत्रु की सेना को भी धूल चटा दी। नामुमक़िन सी प्रतीत होने वाली इस घटना को सच होते देखकर सभी अचंभित हुए, लेकिन राजा के सेनापतिजीको इस बात का पूरा यक़ीन था कि यह सब पंचवक्त्र शिवजी का ही प्रताप है। फिर इस घटना की स्मृति के एवं दुश्मन पर प्राप्त हुई जीत के प्रतीक के रूप में उन सेनापतिजी ने यहाँ रहनेवाले पंचवक्त्र के छोटे से मन्दिर को बड़े शिवालय में रूपान्तरित कर दिया।

यह थी पंकवक्त्र मन्दिर के निर्माण की कहानी। इसी मन्दिर के अहाते में जम्मू की सबसे पुरानी गौशाला है और एक संस्कृत विद्यालय भी है।

जम्मू के मन्दिर तो हमने देखे। अब अन्य मन्दिरों के दर्शन करने ज़रा जम्मू के बाहर चलते हैं।

जम्मू से लगभग ४० कि.मी. की दूरी पर है, ‘पुरमंडल’ नाम की जगह। देवक नदी के तट पर बसे इस स्थान पर ‘उमापतिजी’ का मुख्य मन्दिर है। साथ ही शिवजी के अन्य मन्दिर भी यहाँ पर हैं। इस स्थल को ‘छोटी काशी’ भी कहा जाता है।

क्या आप २८०० वर्ष पुराने शिवलिंग के दर्शन करना चाहते हैं? यदि हमें इनके दर्शन करने हैं, तो हमें जम्मू से थोड़ी और दूरी तय करनी पड़ेगी। जम्मू से लगभग १२० कि.मी. की दूरी पर वह जगह है, जहाँ का शिवलिंग लगभग २८०० वर्ष पुराना माना जाता है। इस स्थल का नाम है – ‘शुद्ध महादेव’।

यहाँ के मन्दिर में काले रंग के संगेमर्मर से बना एक शिवलिंग है। इस स्थान की ऊँचाई हैं, लगभग १२०० मीटर्स। अब इतनी ऊँचाई पर बसने के कारण यह स्थान कुदरती सुन्दरता से भरपूर होगा यह तो स्वाभाविक है।

यहीं पर जल का एक प्राकृतिक स्रोत भी है, जिसे ‘पापनाशिनी बावली’ कहा जाता है। अब इसके नाम से आप यह जान ही गये होंगे कि इस प्राकृतिक जलस्रोत का संबंध मनुष्य के पापों का नाश करने से है।

जम्मू और उसके आसपास के इन छोटे बड़े मन्दिरों के उत्सवों में मेले भी लगते हैं। शुद्ध महादेव’ मन्दिर में भी तीन दिनों तक मेला लगता है। श्रावण महीने की पूर्णिमा को यहाँ पर एक बड़ा मेला लगता है, जो तीन दिनों तक चलता है। जम्मू के प्रदेश की कला, संगीत, निवासी इन सब के साथ साथ यहाँ के कई स्थानिय व्यंजनों से भी आपकी इस मेले में मुलाक़ात होती है यानि इन तीन दिनों में आप जम्मू के मिट्टी की महक को अनुभव कर सकते हैं।

जम्मू और उसके आसपास के इला़के के कुछ महत्त्वपूर्ण मन्दिरों के दर्शन तो हम कर चुके हैं। जम्मू और उसके आसपास के इला़के में कई छोटे बड़े मन्दिर हैं। उन मन्दिरों के बारे में हम चलते चलते ही जानकारी लेते है। इनमें से कुछ मन्दिरों की स्थिती अच्छी है, तो कुछ मन्दिरों के बस कुछ निशान ही बाक़ी हैं।

इन मन्दिरों की ख़ासियत यह है कि इन मन्दिरों में, उनका निर्माण जिस समय किया गया उस व़क़्त की शिल्पशैली का परिचय भी हमें मिलता है। इन मन्दिरों में हैं – किर्मची, लाड़न कोटली, भिल्लवर, बबोर, बशोली, कलधेरा इन स्थानों पर रहनेवालें मन्दिर।

अब अन्त में शुद्ध महादेव मन्दिर के बारे में एक महत्त्वपूर्ण जानकारी। कहा जाता है कि शुद्ध महादेव मन्दिर इस स्थान पर ही शिवजी और पार्वतीजी का विवाह हुआ था।

अब हमें जाना है, पर्वत चढते दूर बसे दो महत्त्वपूर्ण मन्दिरों को देखने। लेकिन सफ़र बहुत दूर का है। चलिए, तो फिर इसी दिशा में सफ़र को आगे बढाते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published.