जम्मू भाग-४

अब थोड़ासा विश्राम करने के बाद तरोताज़ा होकर चलिए जम्मू की सैर करने निकलते हैं।

जम्मू के सबसे पुराने क़िले को तो हम देख ही चुके हैं। आइए अब देखते हैं एक राजमहल को, जो तावी नदी के तट पर बसा है। चलिए, तो बढते हैं तावी नदी के तट की ओर।

‘अमर महल पॅलेस’ इस नाम से जाना जानेवाला यह राजमहल जम्मू के शासकों का आख़िर तक आवास स्थल रहा है, लेकिन आज इसका रूपान्तरण एक म्युज़ियम में किया गया है। अत एव यह वास्तु ‘अमर महल म्युज़ियम’ इस नाम से भी जानी जाती है।

उन्नीसवीं सदी में जम्मू पर राज करनेवाले ‘राजा अमरसिंग’ के लिए इस राजमहल का निर्माण किया गया था, ऐसा कहा जाता है। इस राजमहल में से सामने देखें तो दिखायी देती है तावी नदी और उसके द्वारा फलने फूलनेवाला इला़क़ा।

ऐसा भी कहा जाता है कि सन १८६२ में अमर महल पॅलेस बनाने की योजना तय तो की गयी, लेकिन इसे साकार होने में सन १८९० तक इंतज़ार करना पड़ा। इस राजमहल के निर्माण के कार्य का ज़िम्मा एक फ्रेंच आर्किटेक्ट को सौंपा गया और इस राजमहल को बनवाया गया। इसकी बनावट में इसी वजह से फ्रेंच वास्तुकला शैली की झलक दिखायी देती है। कहा जाता है कि जब उन्नीसवीं सदी के आख़िर में इसका निर्माण पूरा हो गया, तब वह जम्मू की सबसे ऊँची वास्तु के रूप में विख्यात थी।

थोड़ी सी ऊँचाई पर बनायी गयी यह ख़ूबसुरत वास्तू देखनेवाले का मन तुरन्त ही मोह लेती है। लाल रंग की ईटों एवं लाल रंग के वालुकापत्थरों से इसका निर्माण किया गया है। ढालुआँ छतोंवाले बड़े बड़े बरामदें और आसपास रहनेवाली हरियाली देखनेवालों के मन को अतीत में ले जाती है।

आगे चलकर अमर महल पॅलेस का रूपान्तरण एक म्युज़ियम एवं लायब्ररी में किया गया, जिसका उद्देश्य था, इस प्रदेश की कला एवं विद्या को जतन किया जाये। जम्मू के शासकों के वंशज ने इस मक़सद से इस महल का रूपान्तरण म्युज़ियम में कर दिया। सन १९७५ में भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्रीजी के हाथों इस म्युज़ियम का उद्घाटन किया गया।

इस म्युज़ियम में प्रमुख रूप से इस प्रदेश की चित्रशैली के चित्रों को संग्रहित किया गया है। यहाँ के चार दालानों में पहाड़ी एवं कांगड़ा चित्रशैली की पेंटिंग्ज़ रखी गयी हैं। ख़ास कर पहाड़ी चित्रशैली में बनाये गये महाभारत के प्रसंगों के चित्र उल्लेखनीय हैं। साथ ही एक दालान में ‘नल-दमयन्ती’ की कथा पर आधारित कुल ४७ चित्र रखे गये हैं।

जम्मू के शासकों का तथा उनके परिजनों का परिचय भी यहाँ पर रखे गये उनके चित्रों एवं तसवीरों से होता है। यहाँ पर एक ऐसी बात है, जिसे देखकर हम अचंभित हो जाते हैं। वह है, १२० किलो का एक सिंहासन, यह कोई मामूली सिंहासन नहीं है, तो इसे १२० किलो शुद्ध स्वर्ण से बनाया गया है, जिसके दोने तरफ़ स्वर्ण के बने सिंह हैं।

साथ ही कई नये चित्रकारों के चित्र भी यहाँ के संग्रह में हैं। अत एव यह संग्रहालय नयीं और पुरानीं चित्रशैलियों का अनोखा संगमस्थल बना है।

अब यह बात तो सच है कि जम्मू के शासक यहाँ रहते थें। इसकी एक झलक भी हमे यहाँ देखने मिलती है। सन १९६७ तक जम्मू की महारानी यहाँ रहती थीं। उनका दालान भी उनके द्वारा इस्तेमाल की जानेवालीं चीज़ों के साथ जतन किया गया है। इससे हमें राजा एवं उनके परिजनों की जीवनशैली का परिचय मिलता है।

कई विषयों की लगभग २५,००० दुर्लभ पुस्तकों का संग्रह भी यहाँ की लायब्ररी में किया गया है।

सबसे पुराने बाहु क़िले से लेकर आज के ज़माने के ‘अमर महल म्युज़ियम’ तक का सफ़र हम कर चुके हैं। अब १५० वर्ष की परंपरावाले ‘मुबारक़ मण्डी पॅलेस’ को देखने चलते हैं।

उसे देखने हमें तावी तट पर से पुन: एक बार मुख्य शहर की तरफ़ जाना होगा। यह ‘मुबारक़ मण्डी पॅलेस’ भी जम्मू के शासकों का निवासस्थान था। दर असल यह महज़ राजमहल नहीं है, बल्कि यहाँ पर अनेक वास्तुएँ हैं। जिस तरह कोई रेसिडेंशियल कॉम्प्लेक्स रहता है, उसी तरह यहाँ पर राजस्थानी, मुग़ल एवं युरोपीय वास्तुशैली में बनायी गयी इमारतें हैं। यहाँ पर आकर्षण की केन्द्रबिन्दु है, ‘शीश महल’। यहाँ के ‘पिंक पॅलेस’ में ‘डोगरा आर्ट म्युज़ियम’ भी है। इस म्युज़ियम में कांगड़ा, जम्मू और बशोली चित्रशैली के लगभग ८०० चित्र रखे गये हैं।

डोगरा वंश जिन दो तालाबों के बीच के प्रदेश में बढा, विकसित हुआ, उन दोनों तालाबों को भी अब हम देखते हैं। ‘मनसर’ और ‘सुरइनसर’ नाम के ये दो तालाब जम्मू से कुछ ही दूरी पर हैं।

पहाड़ों की गोद में से गुज़रती हुई सड़क हमें जल के एक विशाल तालाब तक ले जाती है। तालाब के चारों ओर पहाड़ हैं और उन हरेभरे पहाड़ों को देखते ही मन को शांति, प्रसन्नता और सुकून मिलता है।

जम्मू से लगभग साठ किलोमीटर्स की दूरी पर है, ‘मनसर लेक’। इसे बहुत ही पवित्र माना जाता है। इसके तट पर शेषनागजी का एक मन्दिर भी है, जो भाविकों के लिए श्रद्धास्थल है। साथ ही उमापति महादेवजी एवं नरसिंहजी के भी प्राचीन देवालय यहाँ हैं।

इस लेक में धार्मिक उत्सवों एवं पर्वों पर स्नान करने की परिपाटी है। यहाँ पर ऐसी भी एक परिपाटी है कि जिनकी अभी अभी शादी हुई है, ऐसे दम्पती इस लेक की तीन परिक्रमाएँ करते हैं, जिससे कि उन्हें शेषनाग के आशीर्वाद प्राप्त होते हैं।

एक मील लंबे और आधे मील चौड़े इस तालाब के साथ कई आख्यायिकाएँ एवं पुराणकथाएँ जुड़ी हैं। ये कथाएँ मुख्य रूप से इस लेक की उत्पत्ति महाभारत काल में हुई, यह बयान करती हैं।

इनमें से एक आख्यायिका के अनुसार अर्जुन के बाण से इस तालाब का निर्माण हुआ, तो दूसरी आख्यायिका कहती है कि बभ्रुवाहन के तीर से इस तालाब का निर्माण हुआ।

इतना ही नहीं, बल्कि इन आख्यायिकाओं में यह भी कहा गया है कि ‘सुरइनसर लेक’ का निर्माण भी अर्जुनद्वारा छोड़े गये दुसरे तीर से हुआ।

इन आख्यायिकाओं के अनुसार अर्जुन जब नागलोक गया था, तब उसने इन तालाबों के स्थान में बाण चलाकर वहाँ जाने के लिए एक छिद्र (सुराग़) बनाया, जिनमें से आगे चलकर इन तालाबों का निर्माण हुआ।

अन्य आख्यायिका के अनुसार बभ्रुवाहन यह अर्जुन और नागकन्या उलुपी का बेटा था, लेकिन बभ्रुवाहन और अर्जुन एक-दुसरें को नही जानते थे। पाण्डवोंद्वारा भेजे गये अश्‍वमेध यज्ञ के अश्‍व (घोड़े) को बभ्रुवाहन ने इस मनसर तालाब की जगह रोक दिया। इसके कारण अर्जुन और बभ्रुवाहन एक-दुसरे के साथ लड़ने लगे। इस युद्ध में बभ्रुवाहन द्वारा छोड़े गये एक बाण के कारण अर्जुन की जान जोख़िम में आ गयी। वह सुनकर उलुपी ने फ़ौरन वहाँ जाकर बभ्रुवाहन को अर्जुन के साथ रहनेवाले उसके रिश्ते के बारे में बताया।

अब अर्जुन की जान बचाने के लिए एक वनस्पति को अन्य लोक से ले आना आवश्यक बन गया था, क्योंकि उसीसे अर्जुन की जान बचनेवाली थी। अत एव बभ्रुवाहन ने आज जहाँ ‘मनसर’ नाम का तालाब है, उस भूमि में एक बाण मार दिया और वहाँ बने हुए मार्ग से वह वनस्पति लाने के लिए अन्य लोक में जा पहुँचा और उसके द्वारा छोड़ा गया बाण जहाँ ‘सुरइनसर’ नाम का तालाब है, वहाँ से बाहर निकला और उसके साथ ही बभ्रुवाहन भी उस वनस्पति को अपने साथ लेकर बाहर आ गया और अर्जुन के प्राण बचाये।

तो यह थी इन दो तालाबों की उत्पत्ति की आख्यायिका। इन तालाबों के इला़के में विकसित हुए डोगराओं को इन तालाबों के प्रति बहुत आस्था है।

भाविक इन स्थलों को देखने श्रद्धापूर्वक जाते हैं और सैलानी यहाँ की कुदरती सुन्दरता का अनुभव करने जाते हैं।

इस इला़के में विकसित हुए डोगराओं की जीवनशैली यहाँ की कुदरत के साथ मिलती जुलती है। निसर्गचक्र पर उनका जीवन आधारित है। अत एव निसर्ग में होनेवाले परिवर्तनों को, ख़ास कर खेतों में फ़सल उगने के मौसम आदि बातों को वे उत्सवों के रूप में मनाते हैं। इन उत्सवों के कार्यक्रम में नृत्य और संगीत का समावेश भी होता है। लोहड़ी, बैसाखी जैसे उत्सवों के साथ साथ उनके जीवन में रंग भरते हैं, यहाँ भरनेवाले मेलें। उत्सव, मेलें ये सब यहाँ के स्थानीय लोगों के जीवन का अभिन्न अंग बन चुके है। तो इन मेलों, उत्सवों को देखने जानने के लिए हम भी हमारा यह सफ़र जारी रखेंगे, लेकिन थोड़ा सा विश्राम करने के बाद।

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