जम्मू भाग-२

सिंह और बकरी जहाँ एकसाथ पानी पी रहे थे, उस जगह ‘जम्मू’ नाम की नगरी की स्थापना की गयी। स्थापना के बाद धीरे धीरे यह नगरी विकसित होने लगी। इस शहर के विकास में उस समय के निवासी और शासक दोनों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।

महाभारत काल में भी इस नगरी का उल्लेख मिलता है। हडप्पा और मोहंजोदड़ो ये दो नगर काफ़ी प्राचीन समय में बसे हुए थे, यह ज़मीन की खुदाई के द्वारा साबित हो ही चुका है। भूगर्भ की खुदाई में इन नगरों के कई अवशेष मिले हैं, जिनसे यह साबित हुआ कि इनकी रचना बहुत ही सुव्यवस्थित एवं नियमबद्ध रूप में की गयी थी। इतिहास कहता है कि किसी ज़माने में यह जम्मू शहर भी हडप्पा नामक नगर का एक हिस्सा हो सकता है। जम्मू से कुछ ही दूरी पर स्थित ‘अखनूर’ में प्राप्त हुए अवशेषों से इतिहासकारों ने यह अनुमान लगाया है कि यह जम्मू नगरी भी हडप्पा नगर का एक हिस्सा रही होगी। अब अखनूर की बात चली ही है तो इस पर भी ग़ौर करते हैं कि यह अखनूर पुराने समय में ‘विराट नगर’ नाम से जाना जाता था। लेकिन किसी मुग़ल राजा की रानी की दृष्टि का रोग यहाँ के नदी के जल में औषधि मिलाकर आँखों को धोने से ठीक हो गया और तब से इसका नाम ‘अख-आँख’ और ‘नूर-दृष्टि’ इन दो शब्दों के मिलने से ‘अखनूर’ हो गया।

चलिए, अब पुन: एक बार ‘जम्मू’ शहर के इतिहास में झाँकते हैं। इस इला़के पर मौर्य, कुशाण, गुप्त आदि राजवंशों ने राज किया था। इस प्रदेश के कुछ स्थानों के नाम पुराने समय से लेकर आज तक वैसे के वैसे हैं, यह भी अध्ययनकर्ता कहते हैं।

तैमूरलंग ने भारतपर जो आक्रमण किया था, उसके वर्णन में इस प्रदेश का भी उल्लेख मिलता है। इस भूमि पर विदेशियोंद्वारा आक्रमण करके यहाँ पर सत्ता स्थापित करने का वर्णन भी इतिहास में मिलता है। किसी ‘तुरुक्श’ नाम के विदेशियों ने, जिन्हें ‘हेप्थलाइट’ भी कहा जाता है, पुराने समय में इस इला़के पर कब्ज़ा कर लिया था, ऐसा भी उल्लेख मिलता है।

तुरुक्शों के बाद यहाँ पर शाही वंश की हुकूमत शुरू हो गयी। ग्यारहवीं सदी के प्रारम्भ में इस शाही वंश का शासन भी ख़त्म हो गया।

इसके बाद काफ़ी समय तक यहाँ पर किसका राज था, इस संदर्भ में कुछ ख़ास जानकारी प्राप्त नहीं होती।

उन्नीसवीं सदी के बाद का जम्मू शहर का इतिहास ठीक से प्राप्त होता है। डोगरा राजाओं के अधिपत्य में रहनेवाला यह प्रदेश तब पंजाब और उसके आसपास के इला़के पर राज करनेवाले शासकों के कब्ज़े में चला गया। लेकिन पंजाब इला़के के उस शासक ने यहीं के राजवंश के व्यक्ति को राजगद्दी पर बिठाकर उसके हाथ में सत्ता की बाग़डोर दे दी। इस वजह से सत्ता यहीं के राजवंश के पास रही।

इतिहास का यह दौर जिस तरह जम्मू की प्रगति और विकास का था, उसी तरह इस दौर में जम्मू को विदेशी हमलों का भी सामना करना पड़ा।

इतिहास के इस दौर से और इसके बाद भी जम्मू पर राज करनेवाले राजाओं ने यहाँ की जनता के लिए कई सुखसुविधाएँ उपलब्ध करायीं। नयी तकनीकों का लाभ जनता को मिल सके इस उद्देश्य से नये उद्योगों की शुरुआत भी यहाँ की गयी। ज़ाहिर है कि यह बात किसी एक राजा के शासनकाल में नहीं हुई।

जम्मू-कश्मीर का इलाक़ा यह पहाड़ी इलाक़ा है। यहाँ के कई देहात तो पहाड़ियों, घाटियों में बसे हैं और उन तक पहुँचने के लिए अच्छी सड़कों का होना आवश्यक था। फिर यहाँ पर सड़कों का निर्माण भी किया गया। दूरदराज के गाँवों को न ही सही, लेकिन प्रमुख शहरों और गाँवो को एकदूसरे से जोड़ने की दृष्टि से कोशिशें की गयी।

डाक और उसके बाद टेलिग्राम विभाग की भी शुरुआत की गयी। अब इन सुखसुविधाओं की व्यवस्था हो जाने तक अँग्रेजों ने अपनी जड़े यहाँ पर मज़बूत बना ली थी, यह तो आप समझ ही गये होंगे।

इस इला़के में पर्वतों के साथ साथ उनके बीच से बहनेवाली नदियाँ भी हैं। हिमालय पर्वत की बर्फ़ और बरसात दोनों से इन नदियों में जल की आपूर्ति होती रहती है। इन बड़ी नदियों को पार करके जाने के लिए कई पुल भी बनाये गये।

साथ ही यहाँ के शासकों ने यहाँ पर न्यायदान व्यवस्था के लिए कोर्ट कचहरी, कानून आदि बातों का भी नियोजन किया।

जनता के विकास की नींव शिक्षा में है यह जानकर उस दृष्टि में भी कदम उठाये गये।

जम्मू के ‘रघुनाथ मंदिर’ की लायब्ररी में अनेकों संस्कृत हस्तलिखितों का संग्रह है। सारे भारतवर्ष में यह संग्रह बहुतही महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इस संग्रह कार्य में जम्मू के एक राजा का, जो बहुत बड़े विद्वान थे और विभिन्न भाषाओं के अच्छे जानकार भी थे, उनका बहुत बड़ा योगदान था।

जम्मू-कश्मीर के इस इला़के में वन्यजीवसंपदा और वनस्पतियाँ विपुल प्रमाण में थीं। लेकिन उसका ध्यान रखने में कुछ ख़ास ध्यान उस समय नहीं दिया जा रहा था। तब जम्मू के एक राजा ने इस बात पर ग़ौर करके इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम उठाये।

हालाँकि जम्मू शहर और इस इला़के का विकास तो हो रहा था, मग़र तब भी भारत पर राज करनेवाले अँग्रेज़ों का शासन इस प्रदेश पर भी था, यह भी ध्यान में रखना होगा।

अँग्रेज़ी हुकूमत का अन्त होने के साथ साथ भारत का भी विभाजन हुआ था। आज़ाद भारत में कई छोटे बड़े राज्य और रियासतें थीं। इन सभी को स्वतन्त्र भारत के शासन में शामिल करना था। इनमें से कई रियासतें स्वतन्त्र भारत में शामिल हो रही थीं। जम्मू राज्य भी स्वतन्त्र भारत में शामिल हो गया और उसके बाद इस जम्मू शहर को जम्मू-कश्मीर राज्य की, सर्दियों की राजधानी का दर्जा दिया गया।

तो यह था जम्मू शहर का इतिहास।

अब जरा इस प्रदेश में रहनेवाले ‘डोगरा’ नाम के लोगों के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त करते हैं।

कई जाति-धर्म के लोग इस ‘डोगरा’ नाम के विशाल वृक्ष के हिस्सें हैं। अध्ययनकर्ताओं की राय में इन डोगराओं के मूल वंशज एशिया के दक्षिणी विभाग के रहनेवाले थे, जो समय के विभिन्न पड़ावों पर सफ़र करते करते यहाँ आकर इस प्रदेश में एवं आसपास के इला़के में बस गये। इस घटना को भी कई हज़ारों वर्ष बीत गये और आज यह प्रदेश डोगरा लोगों की पहचान बन गया है।

ये डोगरा बहुत ही बहादूर माने जाते हैं। सैनिक के रूप में विश्‍वयुद्धों के दौरान भी उन्होंने का़ङ्गी बहादुरी दिखायी थी, यह भी इतिहास से ज्ञात होता है।

इस इला़के में उगनेवाली बाजरी, मकई, गेहूँ, सब्ज़ियाँ और ङ्गल ये इनका आहार है। यहाँ पर बड़े पैमाने पर उगनेवाले केसर (जाफ़रान) का भी खाने में उपयोग किया जाता हैं।

डोगराओं की भाषा हैं ‘डोगरी’, जो आज इस प्रदेश के लगभग ५० लाख लोगों की बोली है, ऐसा भी कहते हैं।

दरअसल जम्मू में हिन्दी, पंजाबी इन भाषाओं के साथ साथ पूंछी, मिरपुरी, गोजरी, कोटली ये अन्य भाषाएँ भी बोली जाती है। मग़र फिर भी प्रमुख रूप से डोगरी भाषा ही प्रचलित है।

अध्ययनकर्ताओं की राय में डोगरी भाषा यह पश्‍चिमी पहाड़ी भाषाओं के परिवार की एक सदस्य है, इसलिए उसे ‘पहाड़ी’ भी कहा जाता है।

डोगरी यह बोली भाषा होते हुए भी मूलत: उसकी अपनी लिपी थी और उस लिपी को ‘टाकरी लिपी’ कहा जाता है। कश्मीर की शारदा लिपी और पंजाब की गुरुमुखी लिपी इनके साथ यह मिलती जुलती है। आज कल यह देवनागरी लिपी में लिखी जाती है।

जम्मू के इला़के में इस भाषा में कथाएँ, कविताएँ, साहित्य प्रकाशित किया जाता है। सन १८७३ में जम्मू की विद्याविलास प्रेस ने एक संस्कृत ग्रन्थ को डोगरी भाषा में प्रकाशित किया था और वह ग्रन्थ था, भास्कराचार्यद्वारा लिखित ‘लीलावती’, जो गणित पर आधारित है।

डोगरी बोली बोलनेवाले पहाड़ी इला़के के ये डोगरा जितने परिश्रमी और बहादुर हैं, उतने ही यहाँ की कुदरत से क़रीबी रिश्ता रखते हैं। यहाँ की कुदरती ताज़गी इनके लोकगीतों और लोकनृत्यों में से अभिव्यक्त होती है। कैसे? यह तो हम जम्मू की सैर करते समय ही देखेंगे।

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