जयपुर

ह सृष्टि विभिन्न रंगों से सजी हुई है, ईश्वर के द्वारा निर्मित इन रंगों के कारण यह पूरी सृष्टि मनोहारी बनी है| यह सृष्टि और उसमें विद्यमान घटकों के विभिन्न रंग इनके प्रति मनुष्य के मन में बहुत प्राचीन समय से आकर्षण रहा है, इसी आकर्षण के कारण प्राचीन समय में मानव जब चित्र बनाने लगा, तब उन चित्रों में रंग भरने के लिए उसने प्रकृति में उपलब्ध प्राकृतिक रंगों का उपयोग किया| मनुष्य का रंगों के प्रति आकर्षण एवं पसन्द इनके कारण ही वह जब किसी शहर को ही पूरा का पूरा रंगीन बना देता है, उसका उदाहरण है ‘जयपुर’| गुलाबी रंग में रंगी हुई यह राजस्थान की राजधानी| इस गुलाबी रंग के कारण ही ‘जयपुर’ यह शहर ‘गुलाबी शहर – पिंक सिटी’ के नाम से मशहूर है| इस शहर का निर्माण करते समय गुलाबी रंग के पत्थरों का इस्तेमाल किया गया और इसी कारण इस शहर को ‘गुलाबी शहर’ यह सम्बोधन प्राप्त हुआ|

जयपुर शहर के निर्माण का श्रेय महाराजा सवाई जयसिंह-२ इन्हें जाता है| इस कछवाहा वंश के राजा ने इसवी १७२७ में इस शहर की स्थापना की| आंबेर यह कछवाहा राजाओं की पुरानी राजधानी थी| महाराजा सवाई जयसिंह-२ आंबेर के शासक थें, उन्होंने ‘जयपुर’ की स्थापना करके जयपुर को राजधानी का दर्जा दिया| जयपुर रियासत का अस्तित्व १२वी सदी से ही था| लेकिन जयपुर शहर की स्थापना इसवी १८वी सदी में की गई| आज के आधुनिक भारत में चंदीगढ़ जैसे शहर को योजनाबद्ध रूप से बसाया गया है, लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि जयपुर इस शहर को जब १८वी सदी में बसाया गया, उसी समय उसकी रचना योजनाबद्ध रूप से और बहुत ही सुन्दर की गई|

‘विद्याधर पण्डित’ नाम के एक बंगाल के स्थापत्यविशारद महाराजा जयसिंह की सेवा में थें| उन्होंने इस शहर की रचना की| महाराजा जयसिंह स्वयं भी निपुण खगोलशास्त्रज्ञ एवं स्थापत्यविशारद (आर्किटेक्ट) थें| इस पूरे शहर की रचना प्राचीन भारतीय शिल्पशास्त्र के अनुसार की गई है| इस शहर की रचना नौं मण्डलों में की गई है, इन मण्डलों को ‘पीठपद’ कहा जाता है| प्राचीन खगोलीय राशिचक्र में विद्यमान नौं ग्रहों के अनुसार इन नौ मण्डलों की
स्थापना की गई है और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि व्यवसाय के स्थान अर्थात् दुकानों का निर्माण भी नौ की गुनाई (मल्टीपल) में ही किया गया|

Jaipurजयपुर पर शासन करनेवाले राजघरानों के कुछ व्यक्ति मुगलों के सेनापति थें| राजा मानसिंह-१, जयसिंह-१ अर्थात् मिर्झाराजे और जयसिंह-२, ये मुगलों के सेनापति थें| मुगलों की सत्ता जब कईं टुकड़ों में बट रही थी, तब जयपुर का सैन्य निरन्तर युद्ध में उलझा हुआ था| १८वी सदी के अन्त में भरतपुर के जाट और अलवार के प्रमुख जयपुर रियासत से अलग हो गये और उन्होंने स्वयं को स्वतन्त्र घोषित करके जयपुर के पूर्वी विभाग पर कब्जा जमा लिया| इसके बाद जयपुर के शासकों का का़ङ्गी समय जाट, मराठा, अन्य राजपूत राजाओं, पिंडारी और ब्रिटिशों के साथ संघर्ष में बीता| महाराजा सवाई जगतसिंह और ब्रिटीश गव्हर्नर जनरल वेलस्ली इनके बीच इसवी १८०३ में एक क़रार हुआ था, लेकिन वेलस्ली के पश्चात् सत्ता में आये कॉर्नवॉलिस ने इस क़रार को तोड़ दिया| फिर भी अंग्रेजों को वहॉं खुले दिल  से पनाह दी गई| इसवी १८५७ में सैनिकों की बगावत के समय, जो वास्तविक रूप से सैनिकों की बगावत नहीं थी, बल्कि अंग्रेज शासन के खिला़ङ्ग छेड़ा गया भारतीयों का स्वतन्त्रतासंग्राम था| इसवी १८५७ के स्वतन्त्रतासंग्राम में भारतीय सैनिकों के गुस्से से बचने के लिए अंग्रेजों ने जयपुर के बिल्कुल पास स्थित नहरगढ़ क़िले में शरण ली|

इसी कार्यकाल में अंग्रेजों को जयपुर के शासकों से का़फी सहायता मिली| भारत के स्वतन्त्र हो जाने के बाद १९४८ में जयपुर रियासत भारत में शामिल हुई| उस समय जयपुर पर महाराजा सवाई मानसिंह-२ का शासन था और भारत में शामिल होते ही ‘जयपुर’ राजस्थान की राजधानी बन गई| इस शहर की पूरब, उत्तर एवं पश्चिम इन तीनों दिशाओं में पहाड़ स्थित हैं| और इन्हीं पहाड़ों पर क़िलों एवं मीनारों का निर्माण किया गया है| पूर्व उल्लेखित नहरगढ़ यह इन्हीं क़िलों में से एक है| १९वी सदी में इस शहर का तेजी से विकास एवं उत्कर्ष हुआ| दीर्घचौकोर आकार के इस शहर की चारों ओर २० फीट ऊँची एवं ९ फीट चौड़ी चहारदीवारी का निर्माण किया गया है और उसमें ८ दरवा़जे हैं|
राजस्थान का नाम लेते ही हमारी आँखों के सामने आता है, रेगिस्तान| थर का रेगिस्तान जयपुर से नजदीक ही है|
आधुनिक एवं परंपरागत उद्योगों का जयपुर यह केन्द्र है| पुराने जमाने से धातु एवं संगमर्मर से जुड़े हुए उद्योगों के लिए यह शहर मशहूर है| जयपुर यह भारत की मूर्तिकला का प्रमुख केन्द्र है| कछवाहा वंश के मानसिंह के समय इस मूर्तिकला का विकास शुरू हुआ| सुड़ौल एवं सुन्दर संगमर्मर की मूर्ति यह यहॉं की ख़ासियत है| और विशेष बात यह है कि इस काम में उपयोगी संगमर्मर राजस्थानस्थित मकराना की खानों में से उपलब्ध होता है|

इन्हीं उद्योगों की सहायता से आज जयपुर भारत का प्रमुख शहर बनने की दिशा में आगे बढ़ रहा है| विदेशी आक्रमणों के चंगुल से सुरक्षित बचा रहा जयपुर का राजमहल अत्यधिक प्रेक्षणीय है| इस राजमहल में राजस्थानी शैली के उत्तम चित्र, पुरानी संस्कृत पोथियॉं, पुराने उत्तमोत्तम शस्त्र इनका संग्रह किया गया है| इस राजमहल के निर्माण में विद्यमान मुगल एवं राजपूत शिल्पशैली के मिलाप को हम देख सकते हैं| इस राजमहल के कुछ दालान चित्रों और नक्काशी के द्वारा सुशोभित किये गए हैं, तो कुछ दालानों की दीवारें और छतें इन्हें  आइनों के द्वारा सुशोभित किया गया हैं|

जयपुर के शासकों के उदार रवैय्ये के कारण इस प्रदेश में जैन धर्म का प्रसार एवं प्रचार आसानी से हो सका| केवल जयपुर ही नहीं, बल्कि पूरे राजस्थान में ही व्यापारी वर्ग बड़े पैमाने पर है| ‘जंतर-मंतर’ यह नाम सुनने में कुछ अजीबसा लगता है| दिल्लीस्थित ‘जंतरमंतर’ से कईं लोग परिचित भी होंगें| इसी ‘जंतरमंतर’ नाम से जानी जानेवाली एक वास्तु जयपूर शहर में है| यह वास्तु एक ‘वेधशाला’ है| महाराजा सवाई जयसिंह-२ इन्होंने जयपुर को अपनी नयी राजधानी के रूप में बसाने के बाद वहॉं इसवी १७२७ से लेकर इसवी १७३३ की अवधि में इस वेधशाला का निर्माण किया| महाराजा ने कुल ५ वेधशालाओं का निर्माण किया, उनमें से जयपुरस्थित यह वेधशाला अन्य वेधशालाओं की अपेक्षा बड़ी है|

‘यन्त्रमन्त्र’ इस शब्द का अपभ्रंश होकर ‘जंतरमंतर’ यह शब्द बना है| इस वेधशाला में पत्थर और संगमर्मर की सहायता से कुल १४ उपकरणों को स्थापित किया गया है| समय का मापन करने के लिए, ग्रहण का पूर्वानुमान, तारों का पता लगाना, इनके साथ ही अन्य खगोलीय विषयों की निश्चिति के लिए इन यन्त्रों का उपयोग किया जाता था| ये सारे यन्त्र विशिष्ट पद्धति से स्थापित किये गये हैं और हर एक यन्त्र के साथ खगोलीय गिनती को अंकित किया गया है| हर एक यन्त्र का जो अपेक्षित कार्य है, उसके अनुसार उस यन्त्र का निर्माण एवं रचना की गयी है और यह पूरी बनावट स्थायी रूप में हैं, अर्थात् उन्हें जमीन पर बनाया गया है| उस समय के उपलब्ध साधनों का विचार करते हुए यह वेधशाला विशाल तो थी ही, साथ ही साथ खगोलशास्त्र और मनुष्य इनके बीच की महत्त्वपूर्ण कड़ी भी थी| अचूक निष्कर्षों की प्राप्ति के लिए यहॉं के उपकरण अचूक ऊँचाई, लम्बाई एवं चौड़ाई के बनाये गए हैं| इन उपकरणों में से सबसे बड़ा उपकरण है ‘सम्राट यन्त्र’| इसकी ऊँचाई ३० फीट है| सम्राट यन्त्र की परछाई के अनुसार दिन में ठीक समय को जाना जाता था| इस सम्राट यन्त्र के माथे पर विद्यमान चबूतर से ग्रहण एवं बारिश के आगमन की सूचना नागरिकों को दी जाती थी| जिस समय दुनियाभर में कहीं भी विज्ञान एवं खगोल के क्षेत्र में अधिक प्रगति नहीं हुई थी, उस समय हमारे भारत में निर्मित इस तरह की वेधशालाओं पर हमें निश्चित ही गर्व होना चाहिए| इसवी १९४८ में इस ‘जन्तरमन्तर’ को राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा दिया गया| आज यह जन्तरमन्तर कार्य भले ही नहीं कर रहा है, लेकिन हम उसे देख तो जरूर सकते हैं|

जयपुर के इतिहास की एक और महत्त्वपूर्ण वास्तु है, ‘हवामहल’| यह हवामहल एक तरह का महल ही है| इसकी रचना लालचन्द उस्त ने की और इसवी १७९९ में महाराजा सवाई प्रतापसिंह ने इस हवामहल का निर्माण किया| हवामहल इस नाम से ही हम समझ सकते हैं कि इसका हवा के साथ कुछ नजदीकी रिश्ता रहेगा| पुराने जमाने में रानियॉं एवं राजपरिवार की महिलाएँ रास्ते पर जा रहे जुलूस, रोज की यातायात को देख सकें, लेकिन उन्हें कोई देख न सकें, इसीलिए इस हवामहल का निर्माण किया गया|
यह वास्तु लाल एवं गुलाबी पत्थरों से बनी है| इस वास्तु के दर्शनीय हिस्से में कुल ९५३ छोटी खिड़कियॉं हैं और उनमें से हवा बहती रहती है| इसीलिए इस वास्तु को ‘हवामहल’ यह नाम दिया गया| इसकी विशेषता यह है कि इन खिड़कियों से आनेवाली हवा गर्मी के दिनों में भी ठंडी रहती है| यह ५ मंजिला वास्तु है| लेकिन इसका निर्माण निवास के हेतु नहीं किया गया था, यह निश्चित है| हवा के लिए जिस तरह हवामहल का निर्माण किया गया, उसी तरह पानी में निर्माण किया गया एक जलमहल भी जयपुर में है| पानी में बॉंधे गये महल यह राजस्थान की विशेषता है| गर्मी में गर्मी की तीव्रता से बचने के लिए, राजाओं के लिए इस प्रकार के खास महल बनाये जाते थें| अंग्रेजों को पनाह देनेवाला नहरगढ़ क़िला अरवली पर्बत की तलहटी पर है| क़िले की रचना इस प्रकार है कि मानों वह नीचे फैले हुए जयपूर शहर को देख रहा है, ऐसा प्रतीत होता है| नहरगढ़ का अर्थ है, ‘शेरों का निवासस्थान’| लेकिन आज यह क़िला अच्छी स्थिति में नहीं है|

जयपुर से १५ कि.मी. की दूरी पर ‘जयगढ़ क़िला’ है| यह क़िला युद्धसाहित्य का निर्माण करने का केन्द्र था| इसी क़िले में ‘जैवन’ नाम की पहियों पर चलनेवाली विश्‍व की सबसे बड़ी तोप है| इस क़िले में रहनेवाले सैनिकों के लिए पर्बत से पानी लाने की व्यवस्था की गयी है| और इस पानी का संग्रह करने के लिए क़िले के बीचोंबीच एक बड़ा तालाब भी है| ऐसा कहा जाता था कि उस समय के राजा अपनी सम्पत्ति को सुरक्षित रखने के लिए, इस तालाब
के नीचे तैय्यार किए गए दालान में उसे रखते थें| रेगिस्तान की रेत, पत्थरों से निर्मित गढ़, क़िले और संगमर्मर की मूर्तियॉं इनके रंग और ऐसी ही विभिन्न वस्तुओं के विभिन्न रंग इस गुलाबी शहर में बड़ी सहजता से घुलमिल गये हैं|

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