हैदराबाद भाग-४

आज ‘महाशिवरात्रि’ है। हम हैदराबाद शहर में है और यहाँ से कुछ ही दूरी पर है, एक सुविख्यात ज्योतिर्लिंग! तो फिर महाशिवरात्रि के इस पावन पर्व पर हम उस ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने चलते हैं।

‘श्रीशैलम्’! बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक। ‘नल्लमल्लै’ नाम की पहाड़ियों पर बसा हुआ यह शिवजी का स्थान, जहाँ शिवजी ‘मल्लिकार्जुन’ इस नाम से विराजमान हैं।

हैदराबाद से लगभग २४५ कि.मी. की दूरी पर यह स्थान है। चलिए, श्रीशैलम् जा रही गाड़ी हमारा इंतज़ार कर रही है, हमें बस उसमें बैठना है।
‘नल्लमलै’ पहाड़ियों को दर असल ‘श्रीशैलम्’ पर्वत कहा जाता है। सारांश, मल्लिकार्जुन का मन्दिर श्रीशैलम् पर्वतपर यानी नल्लमलै पहाड़ियों पर है। इस पर्वत को ‘मलै पर्वत’ या ‘श्री पर्वत’ भी कहा जाता है।

कृष्णा नदी के दक्षिणी तट पर यह क्षेत्र बसा हुआ है। श्रीशैल पर्वत की ऊँचाई लगभग साढे तेरा सौ फीट है। देखिए, हम इस पवित्र क्षेत्र के करीब पहुँच ही चुके है।

इस श्रीशैल पर्वत के आसपास कई छोटे बड़े पर्वत हैं और उनपर से बहते हुए आनेवाला जल ठेंठ यहाँ से बहनेवाली कृष्णा में ही आ मिलता है। दर असल यहाँ पर कृष्णा नदी हमें दिखायी नहीं दे रही है, क्योंकी हम हैं पर्वत पर और कृष्णा बह रही है, पर्वत की तलहटी से और इसीलिए उसे यहाँ पर ‘पातालगंगा’ इस नाम से जाना जाता है। प्रमुख मन्दिर से पातालगंगा लगभग २ मील की दूरी पर है और वहाँ जाने के लिए हमें नीचे उतरकर जाना पड़ता है। ‘पातालगंगा’ को बहुत ही पुण्यप्रद माना जाता है। यहाँ पर मन्दिर में शिलालेख है, जिससे यह जानकारी मिलती है कि पातालगंगा की ओर जाने के लिए यहाँ पर राज करनेवाले कोंडविडु रेड्डी राजवंश के एक राजाने १५-१६ वीं सदी में सीढियाँ बनायीं।

कहते हैं कि पातालगंगा में स्नान करके आनेवाले श्रद्धालु ठेंठ प्रमुख गर्भगृह में प्रवेश करके शिवलिंग का पूजन कर सकते हैं। यह भी पढने में आया कि कुछ लोग इस पातालगंगा के रेत के हर एक कण को शिवलिंग मानते है और उसे अपने शरीर पर धारण भी करते है। तो ऐसी है इस पातालगंगा की महिमा।

मल्लिकार्जुन का यह शिवलिंग शिवजी के आठ महत्त्वपूर्ण स्थानों में से एक माना जाता है।

इसी स्थान का एक और महत्त्व भी है। यह एक शक्तिपीठ भी है। यहाँ पर ‘देवी भ्रमराम्बा’ का स्थान है।

श्रीशैल पर्वत के इस मन्दिर का निर्माण कब किया गया इसका स्पष्ट निर्देश हालाँकि इतिहास में नहीं मिलता, लेकिन पुराणों तथा महाभारत में ‘श्रीशैलम्’ का उल्लेख मिलता है। यहाँ पर कई साधकों ने विभिन्न कालखंडों में अलग अलग उपासनाएँ की हैं यह इतिहास से ज्ञात होता है। महाभारत के वनपर्व में ‘श्रीशैलम्’ का उल्लेख आता है। स्कन्दपुराण के ‘श्रीशैल खंड’ में इस स्थान का एवं यहाँ के शिवलिंग का उल्लेख मिलता है। लिंगपुराण में भी यहाँ के शिवलिंग का उल्लेख प्राप्त होता है।

नासिक में प्राप्त एक शिलालेख में इस क्षेत्र का उल्लेख किया गया है। इस शिलालेख से यह जानकारी मिलती है कि जब सन की गणना शुरू हुई, तब यह क्षेत्र सातवाहन राजाओं के अधिकार में था। जैसे जैसे समय आगे बढता गया, वैसे वैसे परिवर्तन होते रहे और बदलते वक़्त के साथ साथ सत्ता और शासक भी बदलते रहे। इसीलिए विभिन्न कालखण्डों में इस प्रदेश पर राज करनेवाले शासकों का यहाँ पर शासन रहा।

सातवाहनों के बाद यहाँ के शासक बने इक्ष्वाकु राजा। इक्ष्वाकु राजाओं के बाद यहाँ पर पल्लव राजवंश ने राज किया। पल्लवों के बाद यहाँ पर विष्णुकुंडिन, चोल, चालुक्य, काकतीय इस तरह विभिन्न राजवंशों का शासन रहा। लगभग इन सभी शासकों द्वारा यहाँ आकर दर्शन करने के उल्लेख मिलते हैं। साथ ही कुछ शासकों ने मन्दिर की पूजा-अर्चा की भी व्यवस्था की और मन्दिर परिसर में कुछ आवश्यक रचनाओं का भी निर्माण किया।

किसी काकतीय राजा के प्रधान ने यहाँ के पूजन-अर्चन की कुछ व्यवस्था की थी, यह उल्लेख भी मिलता है। रेड्डी राजवंश के एक राजा ने यहाँ के मन्दिर पर स्वर्ण का शिखर बनाने का उल्लेख मिलता है और साथ ही इसी राजा ने पातालगंगा तक श्रद्धालु आसानी से पहाड़ उतरकर जा सके, इस उद्देश्य से सीढियों का भी निर्माण किया।

यहाँ पातालगंगा तक जाने के लिए हमें यदि सीढियाँ उतरनी हो, तो कुल साढे आठ सौ सीढियाँ उतरनी पडती हैं और पुनः मन्दिर में आने के लिए उतनी ही सीढियाँ चढनी पड़ती हैं। पढकर ही साँस फूलने लग जाती है ना! तो क्या पातालगंगा तक जाने के लिए और कोई सुविधा नहीं है यह आप सोच रहे होंगे। आज की विकसित तकनीक के कारण यहाँ पर रोप-वे की व्यवस्था की गयी है। तो चलिए, रोप वे से चलते हैं, पातालगंगा के दर्शन करने के लिए!

विजयनगर के शासकों ने अपने शासनकाल में यहाँ पर मुखमण्डप तथा पातालगंगा के घाट का निर्माण किया।

आगे चलकर एक ऐसा वक़्त आ गया, जब इस सारे इला़के पर विदेशी हुकूमत का संकट मंडराने लगा। विदेशियों के हमले से यहाँ की ज़मीन झुलस गयी और जान जाने के डर से लोग यहाँ से स्थलान्तरित हुए। उस ज़माने में यहाँ पर पहले जैसी चहलपहल नहीं रही। शिवाजी महाराज जब यहाँ दर्शन करने आये, तब यहाँ पर ऊपर वर्णित हालात थे। शिवाजी महाराज ने इन हालातों को सुधारने के लिए आवश्यक व्यवस्था की।
सारांश, श्रीशैल पर मल्लिकार्जुन और देवी भ्रमराम्बा केवल कई सदियों से ही नहीं, बल्कि कई हज़ारों वर्षों से विराजमान हैं।

सदियों से कई सन्तों और साधकों ने इस स्थान की महिमा अपने मुख से अपनी रचनाओं से गायी है। आदि शंकराचार्यजी भी यहाँ पधारे थे। इसी जगह उन्होंने ‘शिवानन्दलहरी’ की रचना की ऐसा कहा जाता है।

पातालगंगा के धाराप्रवाह का दर्शन तो हम कर चुके और उसके जल को स्पर्श भी कर लिया। तो आइए, अब वापस लौट चलते हैं, श्रीशैल पर्वत पर।

प्राचीन स्थानों से कई कहानियाँ, लोककथाएँ, किंवदन्तियाँ जुड़ी हुई होती हैं। श्रीशैलपर के इस शिवलिंग को मल्लिकार्जुन यह नाम कैसे मिला, इसके बारे में भी एक कथा बतायी जाती है।

पुराणों में वर्णन मिलता है कि भगवान शिवजी श्रीशैल पर गुप्त रूप में स्वयंभू लिंगस्वरूप में वास करते हैं।

चन्द्रगुप्त नाम का एक राजा था। उसकी बेटी का नाम था चन्द्रावती। यह राजकन्या अपनी कुछ दासियों-सेवकों तथा गौओं के साथ एक बार श्रीशैल पर्वत पर गयी थी और वहीं पर रह गयीं। वहाँ वह और उसके साथ रहनेवाले सभी गौओं का दूध पीकर गुज़ारा करते थे। एक दिन उस राजकन्या के ध्यान में यह बात आ गयी कि गौओं के समूह में से एक गाय दूध नहीं देती। हर रोज़ ऐसा होते रहने पर उसके साथ रहनेवाले सेवकों को उसने उस बात की वजह खोजने के लिए कहा और उसने स्वयं भी खोज करना शुरू कर दिया।

उसे यह बात समझ में आ गयी कि वह गाय जंगल में एक जगह जाकर किसी शिवलिंग पर अपने दूध से अभिषेक करती है। राजकन्याने उस जगह को साफ़ करके उस शिवलिंग का पूजन करना शुरू कर दिया।

वहीं कुछ जगह इस कथा में ऐसा भी कहा गया है कि राजकन्या को एक रात सपने में आकर भगवान शिवजी ने दर्शन दिये और कहा कि वह शिवलिंग यह साक्षात् उनकाही अवतार है।

सारांश, राजकन्या ने वहाँ के शिवलिंग का पूजन करना शुरू कर दिया। कुछ लोगों की राय में यहाँ पर एक मन्दिर का निर्माण किया गया और वही था यहाँ पर बनाया गया पहला मन्दिर।

राजकन्याने शिवलिंग का पूजन करने के लिए ‘अर्जुन’ नाम के पेड़ के फूल और ‘मल्लिका’ के फूल इनसे एक माला बनायी और भगवान शिवजी इस माला को नित्य धारण करें, यह प्रार्थना की। भगवान शिवजीने उसकी यह प्रार्थना सुन ली और यह शिवलिंग ‘मल्लिकार्जुन’ इस नाम से सुविख्यात हो गया।

इस मन्दिर की दिवारों पर कई कथाओं एवं घटनाओं को तराशा गया है। उनमें से ही एक है यह ऊपर वर्णित कथा, जो ‘मल्लिकार्जुन’ इस नाम से जुड़ी हुई है।

अरे, देखिए, बातें करते करते हम ठेंठ गर्भगृह के सामने आ गये। अब सामने दिखायी देनेवाले मल्लिकार्जुन शिवलिंग के समक्ष विनम्रतापूर्वक नतमस्तक होते है।

Leave a Reply

Your email address will not be published.