डॉ. हिम्मतराव बावस्कर भाग – १

सच्चे संशोधकों का संशोधन कार्य कभी भी खतम नहीं होता है। जैसे गर्मी के मौसम में जमीन में पानी का स्तर कितनी भी गहराई तक जा चुका हो फिर भी वसंत ऋतु के आते ही वृक्षों में नये पल्लव फूट पड़ते हैं, बिलकुल वैसे ही प्रतिकूल परिस्थिति में भी संशोधकों का काम विकसित होते ही रहता है, यह वक्तव्य है डॉ. हिम्मतराव बावस्कर का।

पिछले तीन दशकों से अधिक समय तक कोकण के ग्रामीण विभाग में रहकर रुग्णों की सेवा करते हुए अपने वैद्यकीय संशोधन को पूर्णत: उसी में झोंक देने वाले डॉ. बावस्कर ये एक अनोखे प्रकार के डॉक्टर हैं। महाड़ में एक साधारण सी ददो मंजिला इमारत और उसपर डॉ.एच.एस.बावस्कर के नाम का तख्ता लगा हुआ है। यही उनका घर, हॉस्पिटल, साथ ही उनका संशोधन केन्द्र अथवा प्रयोगशाला कहलाता है। शांत स्वभाव, तेजस्वी व्यक्तित्व और हसमुख चेहरा ऐसे हैं ये जागतिक कीर्ति का संशोधन करनेवाले डॉक्टर, जो हमारे मन की वैज्ञानिक की अपेक्षित प्रतिमा के साथ मिलते जुलते न भी लग सकते हैं, परन्तु बिच्छू के दंश पर उनके द्वारा किये गये संशोधन को जागतिक धरातल पर मान्यता प्राप्त हुई है और इससे दुनिया के हजारों लोगों की जान भी बची है।

शहर में ऐशोआराम का जीवन, धन-दौलत, नाम-मान-सम्मान इन सभी से मुंह फेरकर अपने स्वयं के विज्ञान विश्व में ही आनंद मानने वाले डॉ. हिम्मतराव बावस्कर की जीवनी सबसे अलग एवं जानने योग्य है।

मराठावाडा़ के जालना जिले के देहेड़ नामक छोटे से गांव में १९५१ में हिम्मतराव का जन्म हुआ। पांच बहनें एवं एक भाई, माता-पिता कृषक एवं मोल-मज़दूरी करने वाले थे। उनकी दिल से इच्छा यही थी कि उनके बच्चे उच्च शिक्षा हासिल करें। मां खेतों में मोल-मज़दूरी किया करती थी और पिता गांव में रहकर खेती-बाड़ी करते थे। बड़ा भाई बी.एस.सी. करके कृषक बन गया।

हिम्मतराव भी मंदिर में रहकर वहां का काम, साफ-सफाई करना, होटल में कप, बरतन आदि धोने का काम, ईंटे उठाना, लकड़ियां काटना इस प्रकार के कष्टदायी काम करते हुए वे नागपुर वैद्यकीय महाविद्यालय से शिक्षा प्राप्त कर वैद्यकीय विशेषज्ञ बन गए। ग्रामीण विभाग में रहकर गांवों के रुग्णों की सेवा करने का ही निश्चय उन्होंने किया था। उसी के अनुसार सर्वप्रथम सरकारी आरोग्य केन्द्र में स्थित यंत्रणाओं के साथ सभी प्रकार के रुग्णों का इलाज वे करते थे, यहां तक कि गर्भवती महिलाओं आदि केस भी वे संभालते थे। सर्पदंश एवं बिच्छू दंश की केसें अकसर हुआ करती थीं। बिच्छूदंश का रुग्ण भी मर सकता है यह बात काफी हैरान कर देने वाली थी। बिच्छूदंश वाले मरीज़ को रुग्णालय में दाखिल करके डॉ.बावस्कर ने बिच्छूदंश से संबंधित अध्ययन शास्त्रीय पद्धति के अनुसार करना आरंभ किया।

डॉ. बावस्कर ने अपने स्वयं के हर छोटे- बड़े अनुभवों का अन्य स्थानिक वैद्यकीय विशेषज्ञों को लाभ हो इसीलिए उन्होंने अपना सारा वैद्यकीय ब्यौरा, निरीक्षण एवं इलाज़ संबंधित जानकारी स्वयं के खर्च से हर रविवार के दिन जाकर देना शुरु कर दिया। परन्तु उनका रहन-सहन सीधी-साधी ग्रामीण बोली, गमबूट आदि देखकर लोग उनका मज़ाक ही उड़ाते थे। मात्र गांव के लोग वहां के मूल रहवासी, उन्हें भोजन, साग-सब्जी़, मछलियां आदि प्रेमपूर्वक भेंट दिया करते थे।

समुद्र के पास की उष्ण, शीत हवा भी बिच्छूओं के प्रज़नन अवस्था में पोषक साबित होती है। अनेक प्रकार के लाल, काले, हरे रंग के बिच्छू भी वहां पर पाये जाते हैं। लाल रंग के मेसोब्युथस टॅम्युलस(Mesobuthus tamulus) जाति के बिच्छुओं का दंश जान के लिए धोखादायक साबित होता है। इस जाति के बिच्छू के कांटने पर उस स्थान पर वेदना नहीं होती अथवा बहुत कम होती है, परन्यु रुग्ण को पसीना आने लगता है और उसके हाथ-पैर ठंडे पड़ जाते हैं, उल्टी होना, धडकनें तेज़ हो जाना, रक्त की गति कम हो जाना, दम लगना आदि लक्षण दिखाई देते ही हृदयक्रिया बंद हो जाने से रुग्ण की जान भी चली जाती है। बिच्छूदंश पर विश्वसनीय एवं सुरक्षित इलाज़ यह महत्त्वपूर्ण ज़रूरत कोकणवासियों की थी। सितंबर १९७६ के पश्चात् छह महीने के प्रशिक्षण का डॉ. बावस्कर द्वारा बनायी गयी रिपोर्ट ‘इंडियन हार्ट जर्नल’ मासिक पत्रिका में प्रसिद्ध हुआ।

विशिष्ट जाति के बिच्छुओं के दंश के कारण होने वाली मृत्यु तथा उसके उपर न होने वाले उपाय के कारण डॉ. बावस्कर ने स्वयं नौकरी करते हुए एम.डी. (मेडिसीन) करने का निश्चय किया और पूना महाविद्यालय से यह उपाधि भी उन्होंने प्राप्त की। इसी दौरान बिच्छूदंश से संबंधित अनेकों केसेस पर, निरीक्षण के आधार पर एक प्रबंध लिखकर भेजा ‘परन्तु वह ‘ठीक नहीं लग रहा है’ इस उत्तर के साथ पुन: लौटा दिया गया। इसके पश्चात् उन्होंने उसे ‘लॅन्सेट ’नामक इस जगत प्रसिद्ध वैद्यकीय साप्ताहिक के पास भेज दिया गया और यह शोधनिबंध डॉ. बावस्कर के नाम से प्रकाशित हुआ।

ग्रामीण विभाग की आरोग्य व्यवस्था के लिए प्रतिकूल परिस्थिति को मात देने करने की तैयारी यह किसी भी संशोधक के लिए एक चुनौती ही होती है। अपना काम समाज के लिए उपयोगी साबित होता है ऐसा अनुभव काफी महत्त्वपूर्ण साबित होता है। डॉ. बावस्कर द्वारा किए गए संशोधन जानकारी अगले भाग में………..।

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